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चुनाव में जीत के बदलते मायने

भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में चुनाव एक पर्व के समान है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों- त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के विधानसभा चुनावों में मतदाताओ ने काफी बढ़-चढ़ कर भाग लिया है और आकड़े बताते हैं कि इन चुनावों में 70 फीसदी तक रिकॉर्ड मतदान दर्ज किये गए। एक लोकतांत्रिक देश के लिए यह अच्छे संकेत हैं, लेकिन मसला यह है कि वर्तमान समय में चुनाव की व्यापक अवधारणा को सीमित किया जा रहा है। इस पक्ष को ऐसे समझाना ज़्यादा उचित होगा कि स्थानीय मुद्दों पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी होते नज़र आ रहे हैं। ऐसे मामले पिछले कुछ दशकों से ही देखे जा रहे हैं। यह एक गंभीर प्रश्न है कि विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों को तवज्जो देना कहां तक उचित है? ये मसला किसी खास पार्टी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह रवैया सभी पार्टियों ने अख्तियार कर लिया है। चुनावी भाषणों में स्थानीय मुद्दे कम ही दिखते हैं। पिछले दिनों पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आए जिनमें एक बड़ा फेरबदल देखा जा सकता है। त्रिपुरा विधानसभा चुनावों में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, जहां  25 साल से लेफ्ट की सरकार थी। यह सही मायनो में एक व्यापक जन समर्थन को दिखाता है, ऐसे में राज्य में बीजेपी की सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वो राज्य के स्थानीय मुद्दों को तवज्जो दे। चुनाव परिणाम के बाद कई समाचार रिपोर्ट सामने आई, जिनमें सिर्फ जीत से जुड़े मुद्दों को ही तवज्जो दी गई है, जबकि स्थानीय मुद्दों और राज्य हित के पहलु पर नई सरकार के पक्ष नदारद ही मिले। ऐसा देखा गया है कि चुनाव के समय कई छोटे राज्यों को समाचार पत्रों में तवज्जो दी जाती है और ये सिलसिला चुनाव परिणाम तक जारी रहता है, जबकि आने वाले वक्त में उनके महत्व को कम कर के आंका जाता है। ध्यान देने वाली बात ये भी है कि जब केंद्रीय निर्वाचन आयुक्त नसीम ज़ैदी ने जनवरी में पांच राज्यों – उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा की थी, उस समय मणिपुर के चुनावों ने उतनी सुर्खिया नहीं बटोरी, जितनी आज पूर्वोत्तर के इन राज्यों की मिल रही है। जवाब काफी सरल है, आज चुनाव के आयाम और रूप दोनों बदलते जा रहे हैं। जैसे राजस्थान के उपचुनाव के नतीजों को कॉंग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव से जोड़ कर देखा, वैसे ही बीजेपी भी पूर्वोत्तर के इन तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में मिली जीत को 2019 के लोकसभा चुनाव से जोड़ कर देख रही है। अब मसला ये है कि क्या चुनाव ही हमारा साध्य बन चुका है? इसमें दो राय नहीं कि विगत वर्षो में चुनाव हमारे देश में काफी सुर्खियां बटोरते रहे हैं और अगला कदम आगामी कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तरफ होगा। एक बार फिर कई राष्ट्रीय मुद्दे राज्य के चुनाव पर हावी दिखेंगे। विगत दिनों जिन राज्यों में नई सरकार का गठन हुआ है, वहां के मुद्दों के लिए अब न मीडिया में कोई जगह है न विपक्षी पार्टी के बीच, बस कुछ-एक मामलो को छोड़ कर। ये मसला जितना सरल दिख रहा है, उतना ही उलझाने वाला भी है। चुनाव अपनी व्यापकता खोते जा रहे हैं, जहां चुनाव जीतना हर राजनीतिक पार्टी का सर्वमान्य लक्ष्य हो गया है, वहीं विकास के मुद्दे कहीं पीछे छूट गए हैं। इन पेचीदिगियों को जरा गौर से देखें तो देश में आए दिन चुनाव का माहौल बन जाता है और स्थानीय निकाय चुनाव को भी राष्ट्रीय महत्व के तौर पर देखा जाता है। ये किसी क्रिकेट मैच की तरह हो गया है, जिसमें जीत के जश्न के साथ लोग अगले मैच की तैयारी में जुट जाते हैं और स्थानीय मुद्दे धरे के धरे रहा जाते हैं। इन मामलो में देश की मीडिया का भी पक्ष नकारात्मक ही दिखता है। मीडिया रिपोर्टों में स्थानीय चुनाव के राजनीतिक मायने ढूंढना और उसका राजनीतिक विश्लेषण करना और चुनाव परिणामों को आगामी चुनाव से जोड़ना आदि कई ऐसे विषय हैं जिन पर संजीदगी से विचार करना होगा। हालांकी स्थानीय चुनाव के मुद्दों को तवज्जो देना और उसका तार्किक विश्लेषण करना मीडिया के सराहनीय पक्ष हैं और इसमें दो राय नहीं है कि ऐसी मीडिया रिपोर्ट, लोकतंत्र को मजबूत करती हैं। बहरहाल चुनाव में जीत के मायने बदल गए हैं और जिस राजनीतिक चेतना का उभार हमें लोगो के बीच देखने को मिलता है, उसका स्थानीयकरण करने की ज़रूरत है, ताकि स्थानीय मुद्दों को सुलझाकर एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण किया जा सके। ज़रूरत है कि चुनाव परिणामों के विश्लेषण में सामाजिक विषयों और स्थानीय मुद्दों को महत्व दिया जाए, न कि इसे केवल राजनीतिक विश्लेषण के नज़रिये से देखा जाए।

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