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अस्पताल में पर्ची बनवाने में देरी होने से वृद्ध आदमी की मौत

राजस्थान के कोटा शहर में सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में एक वृद्ध की मौत हो गई। जिसका कारण सिर्फ उसके पास रजिस्ट्रेशन की पर्ची नहीं होना था। 

एक बेटा अपने वृद्ध पिता को लेकर पूरे अस्पताल में भटकता रहा। अस्पताल के सारे ठेके के कर्मचारियों की हड़ताल थी और सारा काम बंद था इसलिए पर्ची बनाने में भी काउंटर पर कुछ ही कर्मचारी थे, जिससे पर्ची बनाने में देरी हो रही थी। जब वह बेटा पिता को लेकर डॉक्टर के पास पहुंचा तब डॉक्टर ने उसका बिना पर्ची के इलाज करने से मना कर दिया।

बेटे ने कइयों से मदद मांगी पर कुछ नहीं हुआ। अंत में वह पिता को लेकर निजी अस्पताल में गया मगर तब तक देर हो चुकी थी और डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। इससे प्रकरण से एक ही सवाल बार-बार आ रहा है कि क्या एक इंसान की जान से ज़्यादा कीमती एक कागज़ की पर्ची है? 

यह घटना हमें मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस का एक डायलॉग याद दिलाती है,

अगर मरीज़ मरने की हालत में रहा तो फॉर्म भरना ज़रूरी है? और फॉर्म भरते-भरते मरीज़ मर गया तो फॉल्ट किसका?

आज के सरकारी अस्पतालों की व्यवस्थाएं एकदम जर्जर हैं। जैसे ही कोई मरीज़ इलाज के लिए आता है, तब उसे डॉक्टर से मिलने से पहले 4-5 घंटे पर्ची की लिए लाइन में लगना पड़ता है। डॉक्टर के बाद जांच के लिए 2-3 घंटे से पहले नंबर नहीं आता, फिर मुफ्त दवाओं के लिए भटकते रहना पड़ता है।

उसके अलावा अस्पताल कर्मचारियों का व्यवहार मरीज़ और उसके परिवार के साथ बिल्कुल व्यवहारिक नहीं होता। कई अस्पताल ठेकेदारों के भरोसे चल रहे हैं, जहां कर्मचारी कभी भी हड़ताल पर चले जाते हैं। वह किसी के लिए जवाबदेही नहीं होते। कहीं जांच की मशीने नहीं हैं, कहीं डॉक्टर नहीं है और कहीं बेड नहीं है।

इन सभी में अगर मरीज़ कोई अकेला वृद्ध होता है तो उसकी हालत और बुरी होती है। अस्पताल का ध्यान मरीज़ से ज़्यादा कागज़ी कार्रवाईयों में होता है। चाहे किसी की जान ही चली जाए।

इन तरीकों से आ सकता है बदलाव 

इसमें किसी एक को दोष देना भी सही नहीं है। डॉक्टर्स की अलग परेशानियां हैं और उनके ऊपर काम का बोझ बहुत होता है। दोष पूरे सिस्टम का है, जहां सभी अपने काम से भाग रहे हैं और लोगों के प्रति ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेता।

इसके लिए एक उपाय सबसे ज्यादा ज़रूरी है, वह है, सारी चिकित्सा सेवाओं को डिजिटल करना।

इन सबके अलावा कई पारंपरिक सुझाव जैसे,

अस्पताल को लोग एक उम्मीद से देखते हैं, जहां उनकी ज़िंदगी का फैसला होता है। ऐसे में हर डॉक्टर और कर्मचारी की यह नैतिक ज़िम्मेदारी होती है कि मरीज़ की जान सबसे ऊपर रहे। चाहे किसी ने पर्ची बनवाई हो या नहीं या किसी के पास पैसे हो या नहीं।

आपातकाल में उसके इलाज़ को कभी मना नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसी लापरवाही से कई जाने भारत में चली जाती हैं, जिन्हें हम हत्या भी बोल सकते हैं। यूपी और बिहार में हाल ही में हुई कई बच्चों की मौतें इसका सटीक उदाहरण हैं। अस्पताल व्यवस्था को यह बात ध्यान रखना चाहिए कि हर इंसान की जान इस दुनिया में सबसे ऊपर है, जिसे किसी पर्ची से नहीं तोला जाना चाहिए।

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