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कविता: “क्यों हमें नारीवादी आंदोलन को भड़काना है”

ऐसे देश पर लानत है,

ऐसे संविधान पर लानत है,

जहां दिन प्रतिदिन बहन-बेटी सताई जाती हैं,

कभी हवस का शिकार होती हैं,

कभी ज़िंदा ही जला दी जाती हैं।

 

सरकारें सोई रहती हैं,

केवल मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर लड़ती हैं,

माँ, बहन और बेटी पर हो रहे अत्याचारों पर चुप्पी साध लेती हैं,

कभी-कभी दोषियों का साथ भी देती हैं,

पर्दे के बाहर कुछ और पर्दे के भीतर कुछ और करती हैं।

 

यहां फांसी होती है सिर्फ नाबालिग कन्या से रेप करने पर,

बाकी स्त्रियों पर अत्याचार करने पर होती है छोटी-मोटी सज़ा,

रिश्वत देने पर सज़ा माफ भी कर दी जाती है,

उल्टा बहन-बेटी पर ही बदचलन होने के इल्ज़ाम लगाए जाते हैं।

 

यहां कानून भी बिक जाता है

क्योंकि यह बहुत लचीला, हल्का, नरम है,

शायद सख्त होता तो नहीं बिकता,

दोषियों को रेप जैसे मामलों में कड़ी से कड़ी सज़ा सुनाता,

सिर्फ एक ही सज़ा-फांसी,

तब कानून खुद का स्वाभिमान बचाता और देश की लाज।

 

बहन-बेटी सुरक्षित होगी तो हमारी इज्ज़त भी सुरक्षित होगी,

आज बहन-बेटी हैवानियत की शिकार है,

जिसके दोषी हम खुद हैं,

क्योंकि हम ठोस कदम नहीं उठाते,

अत्याचारियों से मुकाबला नहीं करते।

 

हमारा कानून सच्चा न्याय नहीं सुना रहा है,

एक केस को सुलझाने में सालों लगा रहा है,

अब हमें खुद दोषियों को सज़ा देनी है,

नारीवादी आंदोलन को भड़काना है,

नए सख्त कानूनों को लाना है।

 

बहन-बेटी तुम्हें किसी से नहीं डरना है,

पापियों को मौत के घाट उतारना है,

हम सबको मिलकर हैवानियत का नामोनिशान मिटाना है,

सिर्फ इंसानियत लाना है।

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