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आर्टिकल 15: “जातिगत भेदभाव पर बनी फिल्म को पुलिस चौकी तक सीमित रखना उचित नहीं”

आयुष्मान खुराना

आयुष्मान खुराना

जाति व्यवस्था पर आधारित फिल्म ‘आर्टिकल-15’ देखने की चाहत तो बीते कई रोज़ से थी लेकिन रिलीज़ के लगभग 1 महीने बाद यह फिल्म देखने का संयोग प्राप्त हुआ। अमुमन ऐसा बहुत कम होता है, जब हम किसी फिल्म के बारे में जाने बगैर ही उसे देखने चले जाते हैं। चाहे सिनेप्रेमियों की बात करें या कभी-कभार फिल्में देखने वालों की, फिल्म के बारे में कुछ तो आइडिया ज़रूर होता है।

जी हां, आर्टिकल-15 के बारे में भी कुछ ऐसी चीज़ें थीं जिसने मुझे यह फिल्म देखने के लिए मजबूर कर दिया। अब चाहे आप इसे सवर्णों द्वारा फिल्म का विरोध कह लीजिए या रूपहले पर्दे पर जाति व्यवस्था की बात। खैर, समा बांधते हुए अब आपको और अधिक बोर नहीं करूंगा। मोटे तौर पर यह समझ लीजिए कि तीन दलित लड़कियों की गुमशुदगी के बाद उनमें से दो के साथ गैंगरेप कर उन्हें पेड़ पर टांगकर हत्या करने और फिल्म के अंत तक तीसरी लड़की की खोजबीन पर आधारित है आर्टिकल-15.

एक साथ कई सारी चीज़ों को दिखाने की कोशिश

फिल्म में आयुष्मान खुराना, आईपीएस अफसर वाली अपनी भूमिका के साथ पूर्ण रूप से न्याय करते नज़र आते हैं मगर बहुत सारे ऐसे संदर्भ हैं, जिनपर गहराई से चर्चा करने की ज़रूरत थी।

जाति व्यवस्था के खिलाफ दलितों की लड़ाई तो इस समाज के तथाकथित सवर्णों से है लेकिन इस फिल्म में जाति व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश का केन्द्र बिन्दु आयुष्मान खुराना और एक दलित नेता के इर्द-गिर्द ही दिखाया गया है, जो सामाजिक तानेबाने से अलग है।

एक साथ कई सारी चीज़ों को दिखाने की कोशिश कहीं ना कहीं फिल्म के सब्जेक्ट को कमज़ोर करती दिखाई पड़ती है। फिल्म में आयुष्मान खुराना की गर्लफ्रेंड ईशा तलवार एक पत्रकार की भूमिका में हैं लेकिन पूरी फिल्म के दौरान सिर्फ अंतिम समय में दोनों की मुलाकात का दृष्य दिखाया जाता है। कहने से तात्पर्य यह है कि जिस तरह बतौर आईपीएस अफसर आयुष्मान खुराना को केन्द्र में रखा गया है, उसी तरह से बतौर पत्रकार रूपहले पर्दे पर ईशा तलवार की उपस्थिति भी और अधिक होनी चाहिए थी।

पत्रकार की भूमिका में आयुष्मान की गर्लफ्रेंड ईशा को रूपहले पर्दे पर बने रहने की ज़रूरत थी

फिल्म के दौरान कई ऐसे मौके आए हैं, जब आयुष्मान अपने कार्यक्षेत्र की जटिलताओं को फोन के ज़रिये गर्लफ्रेंड ईशा के साथ साझा करते हैं। बतौर दर्शक जब हॉल में बैठकर मैं फिल्म देख रहा था, तो कहीं ना कहीं मुझे लग रहा था कि एक पत्रकार के तौर पर ईशा को और अधिक समय तक केन्द्रीय भूमिका में पेश करने की ज़रूरत है।

फिल्म की शुरुआत में ही जब आयुष्मान खुराना की पहली पोस्टिंग लाल गाँव होती है, तब उनकी मुलाकात उनके एक मित्र से होती है, जिनके बारे में पूरी फिल्म देखने के बाद दर्शकों की समझ बस इतनी ही बन पाती है कि एक शराबी के तौर पर वह अपनी ज़िन्दगी से परेशान है। इस किरदार को थोड़ा और स्पेस देने के लिए उनकी पत्नी को एक गर्भवती महिला के तौर पर हर वक्त अपने पति के लिए परेशान रहते दिखाया गया है। यह छोटी-छोटी चीज़ें दर्शकों को फिल्म के सब्जेक्ट से भटकाती है।

डायलॉग्स और ओपनिंग गीत दमदार

जब फिल्म शुरू होती है, तब एक गाना बजता है, “कहब तो लग जाई धक से।” इस क्रांतिकारी गीत की जितनी तारीफ की जाए, कम ही होगी। फिल्म के डायलॉग्स काफी दमदार हैं। खासकर यह डायलॉग, “मैं और तुम इन्हें दिखाई ही नहीं देते हैं। हम कभी हरिजन हो जाते हैं तो कभी बहुजन हो जाते हैं। बस जन नहीं बन पा रहे कि जन गण मन में हमारी भी गिनती हो जाए” काबिल-ए-तारीफ है।

फिल्म की जिन कमियों का ज़िक्र हमने किया है, यह ज़रूरी नहीं है कि उसपर आपकी सहमति हो। मेरा मानना है कि एक दर्शक के तौर पर फिल्म की समीक्षा हर किसी को करनी चाहिए। फिल्मों के ज़रिये एंटरटेनमेंट परोसने के युग में किसी भी सामाजिक मुद्दे पर आधारित फिल्मों का स्वागत इसलिए भी करना ज़रूरी है क्योंकि अब तक हम सामाजिक परिवेश में हर प्रकार की कुरीतियों का विरोध करते थे और अब जब उन मुद्दों को रूपहले पर्दे पर उठाया जा रहा है फिर देखना तो बनता है।

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