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गाँधी के विचारों को मारने के लिए काँग्रेस भी बराबर दोषी है

महात्मा गाँधी की मौत का सीधा ज़िम्मेदार नाथूराम गोडसे था, जिसने गाँधी जी को 3 गोलियां मारी और उनकी हत्या कर दी। नाथूराम गोडसे उग्र हिंदुत्व की राजनीति का ध्वज उठाए हुए था। गाँधी जी की हत्या स्वतंत्र भारत की पहली आंतकवादी कार्यवाही थी जिसको हिंदुत्ववादी खेमे ने अंजाम दिया था। आज 70 साल बाद भी ये धार्मिक आंतकवादी प्रत्येक हत्या के बाद खुशी मनाते हैं।

गाँधी की हत्या 1948 में की गई थी, उसके बाद उनके कातिलों को फांसी भी हो गई। लड्डू बांटने वाले संगठनों पर उस समय की सरकार में गृह मंत्री रहे सरदार पटेल ने प्रतिबंध भी लगा दिया।

क्या गाँधी को मारने से गाँधी मर गए?

मेडगर एवर्स ने कहा है,

“आप इंसान को तो मार सकते हो

लेकिन उसके विचार को नहीं मार सकते।”

हत्यारी सोच यह जानती थी इसलिए उसने सबसे पहले गाँधी को मारा और उसके बाद गाँधी की सोच को मारने के लिए पिछले 70 सालों से लगे हुए हैं। बहुत हद तक वे कामयाब भी हुए हैं।

जवाहर लाल नेहरू, डॉ भीम राव अम्बेडकर, सरदार पटेल, ये तीनों उस समय के दिग्गज नेता थे। ये तीनों उस समय काँग्रेस के पदाधिकारी थे और भारत की जनता का नेतृत्व कर रहे थे। ये सभी गाँधी जी के अनुयायी थे और उनको पूजनीय मानते थे। इन सबकी बहुत से मुद्दों पर गाँधी जी से असहमतियां थी लेकिन फिर भी ये उनके साथ खड़े थे।

भगत सिंह और गाँधी के बीच असहमतियां

आवाम के एक बड़े तबके का नेतृत्व क्रांतिकारी विचारधारा का नेतृत्व करने वाले भगत सिंह और उनके साथी कर रहे थे।

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथियों ने अपनी पार्टी लाईन के अनुसार 23 दिसंबर 1929 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्तंभ वाइसराय की गाड़ी को उड़ाने का प्रयास किया, जो असफल रहा। गाँधी जी ने इस घटना पर एक कटु लेख “बम की पूजा” लिखा, जिसमें उन्होंने वाइसराय को देश का शुभचिंतक और नवयुवकों को आज़ादी के रास्ते में रोड़ा अटकाने वाला कहा। गाँधी जी के इस लेख के जवाब में भगवती सिंह वोहरा ने “बम का दर्शन” नाम से लेख लिखा जिसे भगत सिंह ने जेल में अंतिम रूप दिया।

लेख में हिंसा और अहिंसा पर विस्तार से लिखा गया। इसके साथ ही क्रांतिकारी मंसूबे ज़ाहिर किए गए जिससे सिर्फ देश ही नहीं, बल्कि मानवता की आज़ादी का रास्ता स्पष्ट किया गया। लेख में गाँधी जी के विचारों की बड़ी ही मज़बूती से तार्किक आलोचना की गई। इससे पहले शायद ही किसी ने खुले मंच से गाँधी जी के विचारों की ऐसी तार्किक आलोचना की थी।

पूरे लेख में एक भी शब्द महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व के खिलाफ नहीं लिखा गया। इसके विपरीत महात्मा गाँधी को जनता का नेतृत्व करने वाला इंसान बताया गया। क्रांतिकारी तबका महात्मा गाँधी की बजाए सांप्रदायिक व सामन्तवादियों को क्रांति की राह में सबसे बड़ा रोड़ा मानता था, जिसका नेतृत्व हिंदुत्ववादी ताकतें कर रही थी। 

गांधी के खिलाफ फैलाई जा रही नफरत

अब हम 2019 पर आते हैं। आज वर्तमान में हम भगत सिंह को आदर्श मानने वाले किसी भी व्यक्ति से जब महात्मा गाँधी के बारे में पूछते हैं तो वह गाँधी से नफरत करता पाया जाता है। हम डॉ अंबेडकर को आदर्श मानने वालों से बात करेंगे तो वे गाँधी को गालियां देते मिलेंगे। हिंदुत्ववादी टोली तो गाँधी का विरोध करेगी ही क्योंकि उसी ने तो उनकी हत्या की थी।

सांप्रदायिक ताकतों ने बड़ी ही चतुराई और झूठ का सहारा लेते हुए भगत सिंह, डॉ अंबेडकर को मानने वालों और यहां तक कि गाँधीवाद के सहारे सत्ता हासिल करने वाली काँग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी गाँधी के विरोध में खड़ा कर दिया। हिंदुत्ववादी ताकतों का देश की आज़ादी की लड़ाई में योगदान शून्य था।

देश आज़ाद होते ही उन्होंने सत्ता हासिल करने के लिए धर्म के नाम पर दंगे करवाए। गाँधी जी हर जगह जाकर लोगों से दंगे ना करने की अपील करते थे। हिंदुत्ववादी ताकतों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा गाँधी जी बन गए थे। इसलिए उन्होंने महात्मा गाँधी की हत्या कर दी लेकिन हत्या के बाद भी गाँधी जी के विचार हिंदुत्ववादी ताकतों की राह में रोड़ा बना हुआ था।

इसके लिए उन्होंने गाँधी के विचार को मारने के लिए दो रास्ते अपनाए। एक रास्ता गाँधी का नाम जपने का, और दूसरा रास्ता गाँधी के खिलाफ दुष्प्रचार करने का। इन दोनों रास्तों में वे कामयाब होते गए। वर्तमान में अगर फासीवादी और सांप्रदायिक टोली सत्ता में बैठी है तो ये उसी मेहनत का फल है।

गाँधी के विचारों की हत्या की काँग्रेस भी उतनी ही दोषी

गाँधी के विचारों की असलियत में किसने हत्या की, यह सोचने वाली बात है। लंबे समय तक सरकार में रहने वाले गाँधी खेमे के नेताओं ने भी गाँधी जी के विचार को मारने का काम किया है, जिसके सीधे ज़िम्मेदार नेहरू और उनके बाद का काँग्रेस का नेतृत्व है।

देश की आज़ादी के दौर में चलने वाला तेलगांना, तेभागा का हथियार बंद क्रांतिकारी आंदोलन ज़मीन जोतने वालों के लिए सामन्तवादी ताकतों से लड़ रहा था। इस आंदोलन को देश की आज़ादी के बाद हिंसा के बल पर निर्ममता से कुचल कर काँग्रेस ने गाँधी जी के विचारों की हत्या की शुरुआत की थी।

1962 के चीन युद्ध के बाद नेहरू ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए गाँधी की हत्या करने वाली हिंदुत्ववादी गैंग को सम्मानित किया। नेहरू का यह कृत्य महात्मा गाँधी जी की पीठ में छुरा घोंपने जैसा था।

उसके बाद जितनी भी सरकारें आई उन सभी ने राजनीतिक स्वार्थ के कारण गाँधी जी की बार बार हत्या की। चाहे वो नक्सलबाड़ी आंदोलन को कुचलना हो, सिख दंगे हो या आदिवासियों का कत्लेआम हो, ये सभी गतिविधियां गाँधी जी की विचारधारा के खिलाफ सत्ता की हिंसा थी। जो पार्टी गाँधी के मूल मंत्र अहिंसा को सर्वोपरि मानने का दम भरती रही, उसी पार्टी ने समय-समय पर सत्ता की हिंसा और संगठन की हिंसा का सहारा लिया।

ऐसे ही डॉ अंबेडकर के नाम पर स्वार्थ की राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी ने गाँधी को डॉ अंबेडकर के दुश्मन के रूप में पेश किया। बसपा ने अपने कार्यकर्ताओं को सांप्रदायिक संघ और उसकी टोली के खिलाफ कम और गाँधी के खिलाफ ज़्यादा जागरूक किया।

काँग्रेस के लिए कुछ ज़रूरी सवाल।

अगर काँग्रेस पार्टी ये सब नहीं कर सकती तो वह भी गाँधी जी के विचारों को मारने की उतनी ही बड़ी दोषी है जितनी हिंदुत्ववादी गैंग।

गांधी के विचारों को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी प्रगतिशील ताकतों पर

प्रगतिशील ताकतें भी आवाम को यह समझाने में नाकामयाब रही कि भगत सिंह के विचारों की सबसे बड़ी दुश्मन सांप्रदायिक और फासीवादी विचारधारा थी, जिसका नेतृत्व संघ, हिन्दू महासभा एवं मुस्लिम लीग कर रहे थे, ना कि गाँधी।

आज जब सांप्रदायिक ताकतें सत्ता में बैठी हैं तब बुद्विजीवियों, कलाकारों, नाटककारों, दलितों, मुसलमानों को मारा जा रहा है।  गाँधी को गोली मारने का एक बार फिर खुला मंचन किया जा रहा है। गाँधी की फर्ज़ी अश्लील तस्वीरें बनाकर सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही है।

गाँधी के हत्यारे का मंदिर बनाने की कोशिश हो रही है। कपूर कमीशन ने जिस सावरकर को गाँधी की हत्या का मास्टरमाइंड बताया, उसकी तस्वीर संसद में लगी है। जो अपने आपको गाँधी के पक्ष में बताते नहीं थकते क्या उन्होंने कभी मज़बूती से इसका विरोध किया? दरअसल गाँधी की हत्या के बाद से आज तक खुद काँग्रेस साम्प्रदायिकता का कार्ड खेलती रही है।

आज महात्मा गाँधी की विचारधारा से असहमत होते हुए भी उसे बचाने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी भारत के उन असंख्य बुद्धिजीवियों, कलाकारों, नाटककारों, क्रांतिकारी जमातों के कंधों पर है, जो गैर बराबरी, शोषण, अन्याय के खिलाफ लड़ रहे हैं।

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