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क्यों डी राजा के CPI महासचिव चुने जाने को जाति के नज़रिये से देखा जाना ज़रूरी है

यह पिछली शताब्दी का तीसरा दशक रहा होगा जब तमिलनाडु के वेल्लूर ज़िले की एक दलित महिला, जो मज़दूर थी ने अपने किस्म का एक अनूठा विरोध किया। उसके गाँव में ऊंची जाति के भूस्वामियों के इलाके से गुज़रते वक्त दलितों को अपने चप्पल अपने हाथ में लेने पड़ते थे। उसका घर नदी के पास था और कहीं भी जाने के लिए उसे ऊंची जाति के भूस्वामियों के इलाके से गुज़रना पड़ता था।

वह देखती कि उसके आस-पास के लोग वहां से गुज़रते हुए अपने चप्पल हाथ में लेकर जाने को विवश हैं। उसने इस अपमानजनक स्थिति से निपटने के लिए तय किया कि वह आजीवन चप्पल नहीं पहनेगी।

प्रतिरोध का एक दूसरा स्वरूप यह भी था कि नारियल के खेतों में मज़दूरी करने वाली उस महिला ने और उसके पति ने अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया, उनमें से उसके एक बेटे ने ना सिर्फ तालिम हासिल की, बल्कि समाज बदलने के अपने जुनून के साथ चलते हुए वह एक इतिहास रच चुका है।

वह कम्युनिस्ट पार्टियों के 95 साल के इतिहास में किसी कम्युनिस्ट पार्टी का पहला महासचिव होगा, जो दलित समुदाय से आता है। हां, यह कहानी है दुरईस्वामी राजा यानी राज्यसभा सांसद डी राजा की, जो भारत की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीआई (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया) के महासचिव चुने गए हैं, उन्हें उनके पूर्ववर्ती महासचिव सुधाकर रेड्डी के स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा देने के बाद 19 से 21 जुलाई, तीन दिनों तक चली पार्टी की नैशनल काउन्सिल की बैठक में पार्टी की बागडौर सौंपी गई है।

क्यों राजा के चुने जाने को जाति के नज़रिये से भी देखें-

डी राजा। फोटो सोर्स- Getty

ये सवाल इसलिए कि राजा के महासचिव चुने जाने पर हम जैसे लोग भारत में 95 साल के कम्युनिस्ट इतिहास में इसे एक ऐतिहासिक घटना मान रहे हैं लेकिन हमारी इस मान्यता पर वामपंथी खेमे से ही सवाल भी उठ रहे हैं।

दलित परिवार से आने वाले डी राजा ने अपनी बौद्धिकता, नेतृत्व क्षमता और पार्टी के लिए अपना महत्व सिद्ध किया है। 1967-68 में पार्टी के छात्र संगठन एआईएसएफ से जुड़ने के बाद पार्टी ने उन्हें विभिन्न मोर्चों पर आज़माया।

1985 में यूथ विंग ऑल इंडिया यूथ फेडरेशन के राष्ट्रीय सचिव बनाए जाने पर उन्होंने पहले तो ‘जॉब या जेल’ के नारे के साथ अभियान चलाया, जिसके बाद कुछ सुझावों और बहसों के बाद इस अभियान को ‘सेव इंडिया चेंज इंडिया’ में बदल दिया। देशभर के नवजवानों में इस नारे के साथ संगठन ने पैठ बनाई। सायकल यात्रा से लोगों के साथ कनेक्ट किया।

1993 में जब वह राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य होकर दिल्ली आ गए, तो वह दौर मंडल आन्दोलन के बाद दलित-बहुजन नेताओं के उभार और पहलकदमियों का था। जातियों का उन्नयन भी उस दौर का एक केन्द्रीय विचार था। शरद यादव, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद आदि नेताओं ने तबकी राजनीति की नब्ज़ पकड़ रखी थी।

इस समय में राजा सीपीआई और इन नेताओं के बीच एक कड़ी की तरह रहें। इस भूमिका को भारतीय राजनीति में जाति-वर्चस्व और वंचन के विरोध में संघर्ष हो समझने वाले बेहतर समझते हैं। डी. राजा का परिवेश कम्युनिस्ट और द्रविड़ आन्दोलन का रहा है। द्रविड़ आंदोलनों का केन्द्रीय दर्शन ब्राह्मणवाद विरोध रहा है। उस परिवेश में पैदा हुए और सक्रिय रहे इस नेता के रिश्ते करुणानिधि की पार्टी द्रमुक के साथ भी सहज थी। उनकी यह भूमिका 2006 के बाद राज्यसभा में आने के बाद भी स्पष्ट दिखती है। जाति के सवाल पर, अम्बेडकरवाद को लेकर उनकी मुखरता संसद में और संसद के बाहर उनके लेखों में देखी जाती रही है।

डी राजा के महासचिव चुने जाने को बहुजन विचारक कांचा आयलैया शेफर्ड इस मायने में ऐतिहासिक मानते हैं,

सीपीएम, कॉंग्रेस, भाजपा में से किसी भी पार्टी ने अबतक डी राजा जैसे कद्दावर दलित नेता को अपने यहां ग्रूम नहीं किया है, इस स्तर तक ना तैयार किया है और ना ऊपर लाया है। सीपीआई इस मामले में कम-से-कम अव्वल हुई है।

आसान नहीं है राह

डी राजा। फोटो सोर्स- Getty

अब जबकि अगले कुछ सालों तक देश की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी की बागडौर डी रजा के हाथों में आई है, तब कम्युनिस्ट पार्टियां अपने सबसे बुरे दौर में है। संसद और संगठन, दोनों ही स्तरों पर वे पस्तहाल हैं। सीपीएम से भी अधिक पस्तहाल सीपीआई है। एक ओर जहां दोनों पार्टियों को मर्ज किए जाने की बात हो रही है, वहीं इसे लेकर मतैक्य नहीं है, तब डी राजा पार्टी के महासचिव के रूप में चुने गये हैं।

राज्यसभा में 24 जुलाई को उनका आखिरी दिन था और इस तरह वह पूर्णकालिक रूप से पार्टी को अपना समय दे सकेंगे लेकिन सवाल फिर सामने है कि विपरीत परिस्थियों में वह कैसे और कितना डिलीवर कर पायेंगे?

जाति के सवाल पर सीपीआई सहित कम्युनिस्ट पार्टियों का रवैया प्रायः अड़ियल रहा है। आज भी सीपीआई की निर्णयकारी समितियों में कथित ऊंची जातियों का ही वर्चस्व है। देश में जब ऊंची जातियों को राजनीतिक रूप से चुनौती मिलने लगी तो भी इन पार्टियों ने अपने यहां ना भागीदारी के सवाल को उठाया और ना ही जाति के प्रश्न को ईमानदारी से संबोधित किया।

हस्र यह हुआ कि दलित-पिछड़ी जातियों में जनाधार वाली पार्टी का जनाधार घटने लगा। 9वें दशक तक हिन्दी क्षेत्र में सीपीआई का जनाधार समाप्त हो गया। वजह साफ थी, समर्थन और संघर्ष के समाजों से बड़ी संख्या में नेतृत्व को मौका ना देना। राजा अपवाद स्वरूप, द्रविड़-कम्युनिस्ट प्रभाव में ज़रूर अपरिहार्य बनते गए लेकिन हिन्दी क्षेत्र में ऐसा कोई नेतृत्व उभर नहीं पाया।

आज जब सीपीआई को अपना अस्तित्व बचाना है, तो इस सवाल को शिद्दत से संबोधित करना होगा, राजा अकेले ऐसा कितना कर पायेंगे यह सवाल ज़रूर है।

पार्टी को दलित-बहुजन आन्दोलन से अपने रिश्ते कायम करने होंगे। तमिलनाडु में पेरियार के प्रभाव में और महाराष्ट्र में पैंथर आन्दोलन के दौरान नामदेव ढसाल जैसे जनप्रिय कवि और नेता के साथ सहजता के कारण दलित-आन्दोलन से इसके रिश्ते एक हद तक ठीक हुए भी लेकिन डॉ. अम्बेडकर के साथ सीपीआई का पुराना विरोधी रिश्ता दलित-आन्दोलन की स्मृतियों में है, जिसे व्यवहारिक तौर पर ठीक करना होगा।

1952 में सीपीआई के नेता अमृतपाद डांगे ने अपील की थी कि अपना वोट बर्बाद कर दें लेकिन डॉ. अम्बेडकर को वोट ना दें। डी राजा व्यवहारिक तौर पर इस स्मृति को ठीक करने में सक्षम हैं। इतिहास में जाकर भूल सुधार नहीं हो सकता लेकिन राजा अपने राजनीतिक रिश्तों से आगे जाकर व्यावहारिक तौर पर कार्यक्रम बनाते हैं तो स्मृतियां धुंधली हो सकती हैं।

यह सुनहरा अवसर भी है

एक ओर जहां कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए यह बुरा दौर है, वहीं इस दौर की राजनीतिक स्थितियां उसके अपने विस्तार और विकास के लिए अनुकूल हैं। देश में धूर दक्षिणपंथी ताकतों की सरकार है, समाज का साम्प्रदायीकरण हो रहा है, युवाओं में रोज़गार का अभाव है, क्रूर निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, शिक्षा- स्वस्थ्य व्यवस्था लचर है और गरीबों की पहुंच से दूर है।

दूसरी ओर सामाजिक न्याय की राजनीति 30 वर्षों में एक यथास्थिति की हालत तक पहुंच गई है, इसके दूसरे चरण की राजनीति और मुद्दे तय किये जाने की ज़रूरत है। इस राजनीतिक हकीकत के बीच दलित नेतृत्व में सीपीआई अपना विस्तार करने के सबसे सुनहरे और अनुकूल अवसर में है। राजा इस स्थिति को अपनी पार्टी के लिए अनुकूल बना सकने के लिए आवश्यक दृष्टिसम्पन्न हैं।

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