वैश्वीकरण के युग में बदलते हुए परिवेश के साथ समाज में बदलाव आना स्वाभाविक है। महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक जगत में सक्रिय भागीदारी के कारण पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की स्थिति में भी बदलाव आया है। माहवारी हर महिला के जीवन में होने वाली एक सामान्य, शारीरिक प्राकृतिक प्रक्रिया है किन्तु बहुत से सामाजिक-धार्मिक मिथ्या-भ्रमों के कारण माहवारी को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है।
शिक्षा एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विस्तार के कारण बढ़ी जागरूकता से माहवारी के सन्दर्भ में समाज में कुछ परिवर्तन प्रेक्षणीय हैं। आज सरकार की नीतियों से लेकर सिनेमा और सोशल मीडिया में भी माहवारी से संबंधित जानकरियों का संचार हो रहा है।
तमाम स्त्रोत माहवारी के दौरान स्वच्छता एवं महिला स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए बाज़ार में भरे पड़े व्यवसायिक सैनेटरी नैपकिन के प्रयोग के विचार का समर्थन करते हैं। यह सोच निस्संदेह सकारात्मक है परन्तु एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि इस सोच से जो परिवर्तन होगा वह कितना टिकाऊ है?
माहवारी के दौरान संभलकर करना होना सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल
सैनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करने वाली अधिकतर महिलाएं इस बात से अनभिज्ञ होती हैं कि व्यवसायिक तौर पर उत्पादित की जाने वाली सैनेटरी नैपकिन का मुख्य घटक प्लास्टिक होता है। मरीन कंज़र्वेशन सोसाइटी और नत्राकेयर ने प्रयोगों में यह पाया कि एक सैनेटरी नैपकिन में चार प्लास्टिक बैग या पॉलिथीन के बराबर प्लास्टिक होती है। पॉलिथीन की तरह इसको भी पूर्णतः विघटित होने में पांच सौ से आठ सौ वर्षों का समय लगता है।
इस्तेमाल किया हुआ सैनेटरी नैपकिन अधिकतर घरेलू कचरे के साथ ही फेंक दिया जाता है। कूड़े-कचरे का समुचित प्रबंधन ना होने के कारण कचरा इकट्ठा करके शहर से बाहर कचरा भराव क्षेत्र (लैंडफिल) में फेंक दिया जाता है।
यह कचरा हवा तथा आस-पास के पानी के स्त्रोतों को प्रदूषित करने के साथ ही मिट्टी को भी ज़हरीला बनाता है। माहवारी से जुड़ी वर्जना एवं शर्म के कारण कुछ महिलाएं गंदे सैनेटरी नैपकिन को घर के आस-पास खुले हुए नाले-नालियों में डाल देती हैं।
सैनेटरी नैपकिन में प्रयोग होने वाले रसायन पहुंचा सकते हैं नुकसान
सैनेटरी नैपकिन में एक विशिष्ट प्रकार का पॉलीमर होता है, जो अपने भार से लगभग तीस गुना अधिक तरल सोख सकता है। नाले-नालियों में पड़े सैनेटरी नैपकिन पानी सोखकर फूल जाते हैं और जल-प्रवाह को बाधित करते हुए नालियों को जाम कर देते हैं।
कुछ महिलाएं इस्तेमाल की हुई सैनेटरी नैपकिन को जला देती हैं। इसके अलावा कुछ विद्यालयों और कार्यालयों में कचरा-भट्टी या इन्सिनेरेटर का प्रयोग किया जाता है। पर्यावरण विज्ञान केंद्र की स्वाति सिंह संब्याल ने बताया कि सैनेटरी नैपकिन को जलाने से डाइऑक्सिन और फ्यूरान नामक विषैली गैसे निकलती हैं, जो पर्यावरण को बहुत अधिक हानि पहुंचाती हैं।
बाज़ार में उपलब्ध तमाम ब्रांड्स के सैनेटरी नैपकिन ना केवल पर्यावरण बल्कि सफाई कर्मियों तथा महिला स्वास्थ्य के लिए भी बेहद नुकसानदायक हैं। घर के अन्य कचरे के साथ फेंके जाने के कारण कूड़े की छंटाई के समय गंदे सैनेटरी नैपकिन सफाई कर्मियों के पैर के नीचे पड़ते हैं, या उन्हें हाथ से उठाकर इसे अलग करना पड़ता है, जिससे फंफूदजनित तथा बैक्टीरियाजनित संक्रमण होने की संभावना बढ़ती है।
सैनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करने वाली अधिकतर महिलाएं भी इसके दुष्प्रभाव के बारे में नहीं जानती हैं।
- इन नैपकिन की ऊपरी सतह को सफेद करने के लिए रसायनों द्वारा ब्लीच किया जाता है, जिसमें डाईऑक्सिन मौजूद रहता है।
- इसके अतिरिक्त नैपकिन में भरी हुई रुई में खरपतवारनाशक और कीटनाशक होते हैं।
- डाईऑक्सिन, खरपतवारनाशक और कीटनाशक ये तीनों ही विषाक्त पदार्थ होते हैं, जिसकी कुछ मात्रा महिलाओं की त्वचा प्रत्येक माह सैनेटरी नैपकिन में से सोख लेती है।
आमतौर पर महिलाएं अपने पूरे जीवनकाल में लगभग तीस वर्षों तक माहवारी में रहती हैं। इन वर्षों में प्रति माह सैनेटरी नैपकिन के ज़रिए इन विषैले पदार्थों की थोड़ी-थोड़ी मात्रा महिलाओं के शरीर में एकत्र होती रहती हैं।
सैनेटरी नैपकिन के महिला शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का वर्णन करते हुए दिल्ली के मैक्स स्मार्ट सुपर स्पेशिअलिटी क्लीनिक की डॉक्टर अनुराधा कपूर ने बताया कि लम्बे समय तक सैनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करने से नमी के कारण जनन अंगों में फंफूदजनित संक्रमण (फंगल इन्फेक्शन) से एलर्जी, खुजली, लाल चकत्ते आदि की समस्या हो सकती है।
सस्ते और सुरक्षित हैं ये नैपकिन्स
इन समस्याओं के समाधान के लिए कई मौलिक एवं प्रगतिशील प्रयास केंद्र सरकार एवं गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा किए गए हैं। केंद्र सरकार की ओर से प्रधानमंत्री भारतीय जन-औषधि परियोजना के तहत रसायन एवं उर्वरक मंत्री अनंत कुमार ने जैविक रूप से स्वतः अपघटित होने वाले बायो-डिग्रेडेबल सैनेटरी नैपकिन का लोकार्पण किया।
ये नैपकिन बाज़ार में उपलब्ध व्यवसायिक सैनिटरी नैपकिन की तुलना में सस्ते हैं, जो कि निम्न आयवर्ग की महिलाओं की माहवारी के समय में स्वच्छता एवं सुरक्षित स्वास्थ्य सुनिश्चित करने में सहायता करेंगे।
इसके अलावा कुछ गैर-सरकारी संस्थाएं एवं स्वयं-सहायता केंद्र प्राकृतिक रेशों से बायो-डिग्रेडेबल सैनेटरी नैपकिन तैयार करती हैं, जो कि हानिकारक रसायनों से मुक्त होते हैं। गुजरात में केले के रेशे से बनने वाले ‘साथी’ पैड्स, गोवा की जयश्री परवार ने ‘सखी’ पैड्स, आकार सामाजिक उद्योग के अंतर्गत बनने वाले ‘आनंदी’ पैड्स ये सभी पर्यावरण अनुकूल उत्पाद हैं।
ये पैड्स बाज़ार में आसानी से उपलब्ध तो नही हैं लेकिन इनमें से कुछ ऑनलाइन खरीदे जा सकते हैं। इनके अलावा ‘इको-फेम’ तथा ‘जैओनी’ के कपड़े के पैड्स भी ऑनलाइन मिल जाते हैं।
आज के दौर की महिलाएं जो घर और दफ्तर दोनों संभालती हैं उनके लिए आवश्यक है कि अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहें। माहवारी के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले उत्पादों के बारे में पूरी जानकारी लेने के बाद ही इस्तेमाल करें। नगर निगम और स्थायी सफाई इकाइयों की ज़िम्मेदारी है कि माहवारी के अपशिष्ट का उचित प्रबंधन किया जाए।
इसके साथ ही ये उत्पादनकर्ता तथा उपभोक्ता महिलाओं दोनों की ज़िम्मेदारी है कि इस्तेमाल की हुई सैनेटरी नैपकिन से पर्यावरण को कोई नुकसान ना हो। आपकी जागरूकता महिला स्वास्थ्य एवं पर्यावरण संरक्षण में आपकी भागीदारी सुनिश्चित करती है।