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प्रकृति का दोहन करके एक विनाशकारी विकास की ओर बढ़ रहे हैं हम

Kerala floods

मौनसून आ चुका है। ज़ाहिर है कि कई जगहों पर बाढ़ भी आएगी। बाढ़ हर साल आती है लेकिन इसकी वजह पर कोई ध्यान नहीं देता है। फिर लोग सरकार और कुदरत को कोसना शुरू कर देते हैं। बाढ़ आने के बाद यह मुद्दा सोशल मीडिया और मीडिया में गरमाता है और फिर ठंडा हो जाता है। इस बार भी वही आसार नज़र आ रहे हैं, क्योंकि अभी तक सरकारों को इस पर विचार करने का समय ही नहीं मिला है।

प्राकृतिक आपदा या प्रकृति का गुस्सा?

पिछले साल केरल में आया बाढ़। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

जब भी हमारी पृथ्वी या देश के किसी भी हिस्से में बाढ़, भूकंप या अन्य घटनाएं होती हैं, तो कहा जाता है कि ये प्राकृतिक आपदा है लेकिन ऐसा नहीं है। उदाहरण के तौर पर जब भी किसी मनुष्य को किसी भी प्रकार का दर्द होता है, तो वह दवा लेता है या फिर जब वह गुस्से में आता है तो किसी को डांट देता है।

ठीक उसी प्रकार प्रकृति भी करती है। अपने आपको आगे बढ़ाने के लिए मनुष्य आज यह भूल चुका है कि जिस पृथ्वी को नष्ट करके वह अपने आशियाने बना रहा है, उससे पृथ्वी को दर्द होता है। आज की तारीख में अधिकतर लोगों का प्रकृति की ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं है। मनुष्य अपना विकास करने के लिए एक विनाशकारी विकास की ओर बढ़ रहा है।

जहां मन चाहा वहां धरती को चीरकर, पेड़ों को काटकर, अवैध रूप से मिट्टी का खनन कर मनुष्य अब विकास की ओर बढ़ रहा है। इस विनाशकारी विकास की कीमत मनुष्य को अपने ही विनाश से चुकानी पड़ती है। यह कटु सत्य है कि जब भी प्रकृति के नियमों के साथ मनुष्य ने छेड़छाड़ की है तब प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखाया है।

मनुष्य के इन कार्यों से प्रकृति को बहुत दर्द होता है और उसी दर्द को बयां करने के लिए प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाने के लिए मजबूर हो जाती है। आपको क्या लगता कि बाढ़ इतनी तबाही क्यों मचाती है? वह सिर्फ इसलिए क्योंकि नदी का पानी अपनी जगह मांग रहा होता है। जिस स्थान से नदी पहले बहा करती थी, वह उसी स्थान से बहना चाहती है और सब तबाह हो जाता है।

भारत के राज्य केरल में पिछले वर्ष जो विपदा आई थी, वह इंसान और पानी के बीच अपने अस्तित्व और अपनी जगह की लड़ाई का सबसे ताज़ा उदाहरण है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा इंसानों और जंगली जानवरों के बीच जंगल के लिए लड़ाई होती है।

विनाशकारी विकास बन रहा आपदा का कारण

वर्ष 2004 में आई सुनामी के ज़रिए भी प्रकृति ने अपना गुस्सा प्रकट किया था और सैकड़ों की संख्या में लोगों को अपने गुस्से का शिकार बनाया था। हज़ारों ज़िंदगियां तबाह हो गई थीं। इन सभी जगहों पर पानी ने अपनी जगह वापस पाने के लिए इंसानों और उनके विनाशकारी विकास को बुरी तरह किनारे कर दिया है।

देश की सबसे पवित्र नदी मानी जाने वाली गंगा की बात करें, तो उसकी हालत भी खराब है। गंगा की सफाई के लिए कई सरकारों ने कई वादे किए लेकिन आज तक कोई भी वादा पूरा नहीं हो सका।

समय रहते सचेत होने की ज़रूरत

जिस देश के लोग अपनी प्रकृति की देखभाल नहीं कर पा रहे हैं, उस देश का भविष्य खतरे में है। गलती इंसान खुद करता है और हर बार दोष जाता है राजनीतिक पार्टियों को। वैसे गलती उनकी भी बराबर होती है। वे भी बड़े-बड़े वादे करके भूल जाते हैं।

भूकंप, बाढ़, सूखा ये सब प्रकृति के दर्द बयां करने के तरीके हैं। जब हज़ारों की संख्या में लोग मरते हैं, इमारतें तबाह हो जाती हैं, तब यह गुस्सा थमता है। अगर समय रहते इंसान अपनी गलतियों से बाज़ नहीं आया तो एक दिन प्रकृति अपना रौद्र रूप ज़रूर दिखाएगी और वह सब कुछ जो इंसानों ने नदियों व जंगलों पर कब्ज़ा कर बनाया है, नष्ट हो जाएगा।

इंसानों को प्रकृति से जितना मिला है उतने में ही संतोष करना चाहिए नहीं तो प्रकृति के प्रकोप से उन्हें कोई नहीं बचा सकता है। विनाशकारी विकास इंसानों के विनाश के साथ-साथ प्रकृति का भी विनाश करता है। इंसानों को समय रहते सचेत हो जाना चाहिए नहीं तो प्रकृति के रौद्र रूप के लिए तैयार रहना चाहिए।

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