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“आर्टिकल 15 में वह सच्चाई है, जो कहब तो लग जाई धक से”

ठेकेदारों के लिए यह फिल्म हानिकारक है क्योंकि वे फिल्म, कलाकार, कहानी, निर्देशक सभी को जी भरकर गालियां तो दे सकते हैं पर अपने गिरेबान में झांककर सच की पड़ताल नहीं कर सकते। यह फिल्म उनकी कथनी और करनी की सच्चाई पेश करती है।

फिल्म में स्टीरियोटाइप तोड़े गए

अनुभव सिन्हा और गौरव सोलंकी की लिखी आर्टिकल 15 की कहानी उत्तर प्रदेश की सच्ची घटनाओं से प्रेरित है। सामाजिक समानता की दुहाई देने वालों ने निचले तबके के साथ किस तरह का समाज साझा किया है, इस फिल्म में इस चीज़ को बखूबी दिखाया गया है। 

फिल्म की खासियत यह है कि यह स्टीरियोटाइप फिल्म बनने से बच गई। यहां अन्याय से लेकर न्याय तक में हर किसी की भूमिका को समान तौर पर दर्शाया गया है। हमारे ही बीच निहाल सिंह और ब्रह्मदत्त जैसे किरदार भी हैं, जो खुद दलदल में हैं और उन्हीं से हम कीचड़ साफ करने की उम्मीद भी करते हैं।

फिल्म के कुछ ज़रूरी दृश्य और संवाद

फिल्म का पात्र निशाद। फोटो सोर्स- Youtube

फिल्म शुरू होती है 3 दलित लड़कियों के अगवा होने से, जिसकी एफआईआर तक लिखने में पुलिस ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। बड़ी गहमा गहमी के बाद आखिर में लड़की के पिता को ही थाने में बुलाकर गुनाह कबूल करवाकर जेल भेज दिया जाता है। ऐसे उदाहरण अक्सर हम आए दिन देखते ही रहते हैं।

“ये लोग ऐसे ही होते हैं” इस वाक्य को आप फिल्म में कई बार सुनेंगे। वह भी एक दलित तबके से आए पुलिस अफसर की ज़ुबान से, और हर बार इसे कहने के पीछे आपको गहरा रहस्य समझ में आएगा। मज़दूरी में तीन रुपए बढ़ाने की मांग पर बलात्कार और हत्या, कई दिनों तक अत्याचार सहकर बची एक 15 साल की बच्ची और एनकाउंटर में दलित समाज के 2 सक्रिय लोगों की हत्या जैसे मुद्दों को आर्टिकल 15 में इतनी बारीकी से दर्शाया गया है कि आप इन्हें झुठलाने की हिम्मत नहीं कर सकते।

क्यों देखें आर्टिकल 15?

फोटो सोर्स- Youtube

सामाजिक विषमता से लेकर प्रशासन व्यवस्था की सच्चाई को जानना है, तो आर्टिकल 15 आपके लिए है। यह फिल्म एकतरफा संवाद नहीं करती, किसी एक जाति विशेष को दोषी भी नहीं ठहराती, बल्कि यह फिल्म वर्चस्व की लड़ाई पर आधारित है। आर्टिकल 15 के हर दृश्य में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि मौका मिलने पर हम गुनाह करने या सहने में बराबर के भागीदार हैं।

अयान रंजन और निषाद सहित सभी कलाकारों ने अपने किरदार को बेहतरीन ढंग से निभाया है। आर्टिकल 15 आपके खर्च किए गए एक-एक रूपए और एक-एक मिनट को जस्टिफाई करता है। इंटरवल में भी आप पॉपकॉर्न की तरफ शायद ना दौड़े, क्योंकि फर्स्ट हाफ का ट्रीटमेंट आपके दिमाग में गहरा असर छोड़ चुका होता है।

आर्टिकल 15 का विरोध करने वालों के लिए बस इतना ही कहेंगे,

कहब तो लग जाई धक से, धक से।

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