Site icon Youth Ki Awaaz

“राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019: सभी भाषाओं पर संस्कृत का मॉडल थोपना गलत है”

सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 का ड्राफ्ट जारी किया है। इस ड्राफ्ट के पैरा 4.5.11. में “भाषा सीखने सिखाने की अप्रोच” का विवरण दिया गया है। दिया गया विवरण “आनंददायी तरीकों” से सिखाने की बात करता है। ड्राफ्ट नीति यह कहती है कि भाषा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में रोज़मर्रा के इस्तेमाल पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। भाषा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में संवाद को केंद्र में रखा जाएगा ताकि सीखने वालों की “अभिव्यक्ति की क्षमता को प्रखर बनाया जा सके”। इन उद्देश्यों के अलावा संबद्ध भाषा से जुड़ी लिपि में पढ़ना और लिखना सिखाने की बात भी कही गई है।

भाषा सिखाने के कौशल पर्याप्त नहीं

संक्षेप में कहें तो भाषा शिक्षण के संदर्भ में जिन चार कौशलों की बात होती है, नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में उन चारों कौशलों यानि सुनना, बोलना, पढ़ना, और लिखना सिखाने की परंपरा को निभाने की नीति अपनाने की सिफारिश की गई है। भाषा सीखने-सिखाने के संदर्भ में यह चारों कौशल अनिवार्य होने के बाद भी पर्याप्त नहीं है।

दुनिया भर में भाषाओं को सीखने-सिखाने का डिस्कोर्स आज जहां पहुंच चुका है, नीति निर्माताओं ने उस डिस्कोर्स से लाभ लेने का प्रयास नहीं किया। नीति के ड्राफ्ट में एक बहुत ही चिंताजनक बात कही गई है। नीति के ड्राफ्ट में लिखा गया है कि भाषा-शिक्षण की पद्धति के लिए संस्कृत भारती जैसी संस्था को एक मॉडल की तरह देखा जा सकता है और ज़रूरत हो तो अन्य भाषाओं के शिक्षण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। 

सीखने में तनाव का महत्व

आनंददायी तरीके और रोज़मर्रा के इस्तेमाल की भाषा सीखने की प्रक्रिया में यदि “आनंद” का महत्व है, तो तनाव का भी महत्व है। भाषा को अपने तरीके से इस्तेमाल करने, उससे खेलने, उसमें नई अभिव्यक्तियां सृजित करने में आनंद आ सकता है लेकिन सीखने की प्रक्रिया में तनाव का भी महत्व होता है। विद्यार्थियों द्वारा कही जाने वाली बातों को तकनीक तथा विचार के स्तर पर चुनौती मिलने पर वे खुद को तकनीकी रूप से दुरुस्त करते हैं और विचार के स्तर पर समृद्ध करते हैं।

शिक्षा-शास्त्रीय तनाव विद्यार्थियों में सीखने की ललक पैदा कर सकता है। विद्यार्थी उस प्रक्रिया में बेहतर सीखते हैं जिसमें उनके तकनीकी और वैचारिक पक्ष को चुनौतियां मिलती हैं। रोज़मर्रा के इस्तेमाल की भाषा से शुरुआत करना ना केवल ज़रूरी है, बल्कि यह एक शैक्षणिक मजबूरी भी है। रोज़मर्रा के इस्तेमाल की भाषा को सीखने-सिखाने के स्रोत के रूप में देखने के कम से कम दो मकसद हो सकते हैं। एक, रोज़मर्रा की भाषा के इस्तेमाल से भाषा के द्वारा रोज़मर्रा के इस्तेमाल को सुधारना। दूसरा, रोज़मर्रा की भाषा के कंटेंट को सुधारना।

जब तक विद्यार्थियों को उनके द्वारा कही जा रही बातों पर कंटेंट के स्तर पर चुनौती नहीं मिलती तब तक उनके बौद्धिक विकास का रास्ता बंद रहता है। नीति में इस बात का उल्लेख होना चाहिए कि रोज़मर्रा के इस्तेमाल की भाषा का किन रूपों में शैक्षिक उपयोग किया जा सकता है। बोलना भी रोज़मर्रा का काम है और ज़िम्मेदारी के साथ बोलना भी रोज़मर्रा का काम है।

भाषा पर विवाद

भाषा पर होने वाले विवाद हमेशा ही इस बात पर अटककर रह जाते हैं कि कौन सी भाषा आगे बढ़ाई जाए। कितनी भाषाएं पढ़ाई जाएं? किस कक्षा में कौन सी भाषा पढ़ाई जाए? इस तरह के सवालों में एक राजनीतिक संभावना है इसलिए अलग-अलग राजनीतिक दल और भाषाई समूह इन सवालों में रुचि रखते हैं।

कक्षाओं के अंदर भाषा पढ़ाने के नाम पर विद्यार्थियों को क्या पढ़ाया जा रहा है, यह ना तो भाषाओं में राजनीति तलाशने वालों के लिए चिंता का विषय है और ना ही भाषाओं के नाम पर लामबद्ध होने वाले समूहों के लिए। भाषा सिखाने के नाम पर विद्यार्थियों के मस्तिष्क पर क्या प्रभाव डाला जा रहा है, भारतीय समाज में यह चिंता का विषय नहीं बन पाया है।

अप्रोच, विजन का ही एक तत्व है। भाषा सिखाने की पद्धति और भाषाओं के बारे में समझ का आपस में गहरा रिश्ता है क्योंकि पद्धति भाषाओं के बारे में समझ से ही निकलती है। अगर भाषाओं के बारे में समझ सीमित होगी तो भाषा को सिखाने की पद्धति का कॉग्निटिव लैंडस्केप भी बहुत सीमित होगा। प्रस्तावित नीति के इस अंश से यह तथ्य उभरकर सामने आ रहा है कि भाषा का मुख्य काम कम्युनिकेशन है, जबकि भाषा को कम्युनिकेशन के साधन के तौर पर परिभाषित करने के डिस्कोर्स को सैद्धांतिक तौर पर बहुत पहले ही हाशिए पर धकेला जा चुका है। भाषा को कम्युनिकेशन तक सीमित रखने का विचार मुख्यतः व्यवहारवादी विचार है।

कम्युनिकेशन को भाषा का एकमात्र काम बताने के खतरे

नोम चोम्स्की ने अपने प्रसिद्ध पर्चे “क्रिटीक ऑफ वर्बल बिहेवियर” में इस विचार की बुनियादी मान्यताओं को उधेड़ कर रख दिया था। चोमस्की ने अपनी किताब “ऑन लैंग्वेज” के पृष्ठ 87 पर भाषा को कम्युनिकेशन के समकक्ष बताए जाने को असभ्यता की संज्ञा दी है। वित्गेंसटाइन ने अपनी पुस्तक “फिलासफीकल इन्वेस्टिगेशन” में भाषा को एक उपकरण बताया है और यह समझाया है कि जैसे सभी उपकरण किसी ना किसी चीज़ को सुधारने और ठीक करने के काम में आते हैं, वैसे ही भाषा का काम सुधारना भी है।

कम्युनिकेशन को भाषा का एकमात्र काम बताने के कई खतरे हैं, जिनमें से सबसे बड़ा खतरा यह है कि आप विद्यार्थियों को इन्डोकट्रीनेट करके वह विचार कम्युनिकेट करना सिखा सकते हैं जो सीखने वाले की नागरिकता और लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। भाषा के ज़रिए सामाजिक वास्तविकताओं का सक्रिय रूप से निर्माण किया जाता है। भाषा हमें समाज से मिलती है। समाज, शक्ति संबंधों के स्तर पर अनेक प्रतिद्वंदी और सहयोगी विचारों में बंटा हुआ है।

भाषा को संप्रेषण मानने से भाषा के निर्माण के बारे में इन सच्चाईयों से विद्यार्थियों को महरूम रखा जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि उन्हें भाषा को गढ़ने की क्षमताओं से महरूम रखा जाएगा। ऐसा किया जाना भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। प्रस्तावित नीति में कहा गया है कि भाषा सीखने-सिखाने के लिए ऐसी अप्रोच अपनाई जाएगी जिसका मकसद “अभिव्यक्ति की क्षमता को प्रखर” बनाना होगा।

भाषा और अभिव्यक्ति की क्षमता।

हमें इस ऐतिहासिक तथ्य को याद करना होगा कि अभिव्यक्ति की क्षमता से अलग-अलग समूह अपने अलग-अलग उद्देश्यों को साधते हैं। पिछले कुछ सालों की राजनीति में हम इस तथ्य से परिचित हैं कि अभिव्यक्ति की क्षमता का इस्तेमाल लोगों के बीच दरार डालने, उन्हें डराने, उन्हें उनके अधिकारों से बेदखल करने के लिए काफी किया जाता रहा है। 

अभिव्यक्ति की क्षमता के साथ अभिव्यक्ति से जुड़े हुए विजन के बारे में बताना बहुत ज़रूरी है। हमारे पास बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किए गए ऐसे साहित्य प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हैं, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था, मर्दवाद आदि जैसी संरचनाओं को स्थापित करने और फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसलिए अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास एक विजन के साथ किया जाना चाहिए और उस विजन का स्पष्ट होना बहुत ज़रूरी है, विशेषकर किसी नीतिगत दस्तावेज़ में।

भाषा द्वारा अभिव्यक्ति की जाती है तो अभिव्यक्ति का सृजन भी किया जाता है। प्रश्न यह उठता है कि हम अभिव्यक्ति से क्या समझते हैं। भाषा द्वारा अभिव्यक्ति पर सवाल भी उठाए जा सकते हैं। इस प्रकार भाषा सवालों को अभिव्यक्त करने का माध्यम भी बन सकती है।

संस्कृत के आधार पर विकसित मॉडल क्यों कमज़ोर साबित होगा?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के ड्राफ्ट में कहा गया है कि भाषा पढ़ाने के लिए उस मॉडल को अपनाया जा सकता है जो मॉडल संस्कृत पढ़ाने के लिए संस्कृत भारती नाम की एनजीओ ने विकसित किया है। तमाम आधुनिक भारतीय भाषाओं को संस्कृत के आधार पर पढ़ाए जाने का मॉडल एक कमज़ोर मॉडल है। भाषा के संदर्भ में जिस संस्था का उद्देश्य किसी भाषा विशेष का रिवाइवल हो, उसमें उस भाषा के साहित्य को महिमामंडित किए जाने की संभावना बहुत अधिक होती है।

भारत सरकार की चार जनगणना रिपोर्टों के अनुसार जिस भाषा को बोलने वालों की संख्या शून्य प्रतिशत हो उस भाषा के शिक्षण के मॉडल को भारत की ज़िंदा भाषाओं के लिए शिक्षण का मॉडल नहीं बनाया जाना चाहिए। किसी भाषा को जब किसी खास संस्कृति, संप्रदाय, और धर्म के साथ जोड़ दिया जाता है तो उस भाषा के अपने ही कोटर में कैद हो जाने की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती हैं। ऐसे में उस भाषा द्वारा किए जाने वाले काम सीमित हो जाते हैं।

यह मालूम नहीं कि संस्कृत भारती द्वारा संस्कृत भाषा का उपयोग करने वाले लोगों की भूख, प्यास, बेरोज़गारी, उत्पीड़न, शोषण, पलायन, संगठित लूट, दर्द, जन पक्षीय मुद्दों, संवैधानिक मूल्यों के प्रसार के लिए काम किया जाता है या नहीं। यदि ऐसा नहीं है तो फिर संस्कृत सिखाने का मॉडल भारतीय लोकतंत्र में भाषाओं को सीखने-सिखाने के लिए इस्तेमाल किए जाने का तार्किक प्रस्ताव नहीं है।

एक भाषा वह है जो ज़िंदा होने की लड़ाई लड़ रही है और एक भाषा वह है जो ज़िंदगी के विभिन्न पहलुओं में अपनी पैठ जमा चुकी है। दोनों भाषाओं को पढ़ाने का तरीका एक नहीं हो सकता है। 1971 से 2011 तक हुई पांच जनगणनाओं में से चार जनगणनाओं में संस्कृत बोलने वालों का प्रतिशत शून्य है। केवल 1991 की जनगणना में संस्कृत बोलने वालों का प्रतिशत शून्य की बजाय 0.01 प्रतिशत था।

अब संस्कृत की तुलना 2011 की जनगणना में हिंदी बोलने वालों के प्रतिशत से कीजिए। 2011 की जनगणना में हिंदी बोलने वाले लोगों का प्रतिशत 44 है। ज़ाहिर है कि हिंदी सीखने वालों को घर, गाँव, मोहल्ले, बस, रेल, मार्केट, अखबार, मैगज़ीन, टीवी, स्कूल आदि में जो भाषाई वातावरण मिलेगा वह संस्कृत सीखने वालों को कतई उपलब्ध नहीं है। इसलिए दोनों भाषाओं के सीखने-सिखाने के मॉडल बुनियादी तौर पर भिन्न होंगे।

Exit mobile version