Site icon Youth Ki Awaaz

हिमा देश के लिए दौड़ रहीं और कुछ लोग उनकी जाति के पीछे दौड़ रहें

थोड़े दिन पहले की ही बात है, जब गूगल पर बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु की जाति खूब टटोली गई थी। उस समय इसकी निंदा हुई थी लेकिन हम भारतीय अपनी आदतों में सुधार कर ले तो हमें भारतीय कौन कहे?

अब ताज़ा मामला हिमा दास से जुड़ा है। हिमा दास ने एक महीने के भीतर ही पांच स्वर्ण पदक जीत लिए किन्तु लोग उनकी जाति में भी दिलचस्पी दिखा रहे हैं और गूगल में उनकी जाति सर्च कर रहे हैं।

लगता है आज जिस सबसे गंभीर बीमारी से भारतीय जूझ रहे हैं, वह मधुमेह या कैंसर नहीं बल्कि जातीय पहचान, गर्व और शर्मिंदगी की बीमारी है। जिसके निदान की कोई दवा, कोई टीका अभी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है। यह तय है कि आने वाले समय में यह बीमारी कम होने की बजाय और ज़्यादा समाज में दिखाई देगी।

हिमा दास। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

हिमा दास को लेकर मैंने सिर्फ इतना पढ़ा सुना था कि असम के छोटे से गाँव की गरीब किसान की बेटी हिमा दास ने बीस दिन के अन्दर पांच गोल्ड मेडल जीतकर देश का नाम गर्व से ऊंचा कर दिया। मैंने कई बार उनका वह वीडियो देखा, जब वह प्रतियोगिता जीतने के बाद रुककर, सांस लेने की बजाय भारतीय दर्शकों से हाथ से इशारा कर भारतीय गौरव का प्रतीक तिरंगा मांग रही थीं, ताकि वह उसे लहराकर इस देश की शान को और बढ़ा सके।

पर वह राष्ट्रीय खुशी ज़्यादा देर ना टिक सकी। बेशक उनके हाथों में तिरंगा था किन्तु सोशल मीडिया पर बैठे लोगों ने फटाफट गूगल पर उनकी जाति टटोलनी शुरू की, ताकि वह पोस्ट डालकर अपने जातीय गर्व को चार चांद लगा सके। उनके ग्रुप उसकी फ्रेंडलिस्ट के लोग भी जान सके कि ये महारथी कितने कमाल के हैं, कितनी जल्दी हिमा की जाति खोद लाए।

इसके बाद खेल शुरू हो गया और सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट घुमने लगी, जिनमें कहा जा रहा था कि दलित होने की वजह से हिमा दास को सरकार ने उचित इनाम व सम्मान नहीं दिया। इसमें कोई आम फेसबुकिया या ट्वीटरबाज़ नहीं बल्कि हाल ही में भाजपा से कॉंग्रेस में गए जाने-माने नेता उदित राज भी शामिल थे, जिन्होंने अपने ट्वीट में लिखा,

हिमा दास के सरनेम में दास की जगह मिश्रा, तिवारी, शर्मा ये सब लगा होता, तो सरकारें करोड़ों रुपए दे देती और मीडिया पूरे दिन देश के सभी चैनलों में उनकी खबरें चलाते।

हालांकि हिमा को लेकर यह नया तमाशा नहीं है, इससे पहले भी जब उन्होंने विश्व अंडर-20 एथलेटिक्स चैंपियनशिप की 400 मीटर दौड़ स्पर्धा में पहला स्थान प्राप्त कर गोल्ड जीता था, तब भी सोशल मीडिया पर इसी तरह का जातीय प्रचार किया गया था। उनकी जाति से संबंधित अनेक पोस्ट शेयर किए गए थे।

हिमा दास। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

एक पोस्ट में तो उनके साथ भारत की पूर्व एथलीट पीटी उषा खड़ी थीं और पोस्ट में लिखा था,

मूलनिवासी ही कोच है। मूलनिवासी ही धावक है। आप समझ जाइए सफलता इनकी ईमानदारी की वजह से मिली है। अन्यथा मनुवादी तो हर जगह चोर ठगी करते हैं।

इन पोस्टों से मुझे एहसास हुआ कि जिसके पास जैसा चश्मा है, वह वैसा भारत देख रहा है और जिसके पास जिस रंग की स्याही है, वह वैसा ही भारत लिख रहा है। वजह इन दिनों देश एक मूलनिवासी नाम की नई बीमारी से भी पीड़ित दिखाई दे रहा है। इस मूलनिवासी शब्द के नाम पर षड्यंत्र को नए रूप में उठाने का प्रयास जारी है।

इसमें थ्योरी है, कई सिद्दांत हैं। कोई भी किसी को भी बाहरी और खुद को मूलनिवासी कह सकता है। जातीय बैंड बजाने का यह चलन खूब बढ़ता चला जा रहा है। एक ओर जातीय गर्व है, दूसरी ओर जातीय अपशब्द है। एक तरफ जाति का अहंकार है, दूसरी तरफ शर्मिंदगी है।

लोगों की रगों में यह सब इस कदर भरा हुआ है कि पूरा रक्त निचोड़ लो तो भी एक दो तोला बच ही जायेगा। पर करें भी क्या, सभी जातिवाद में लिप्त हैं और सभी इससे छुटकारा चाह रहे हैं पर कमाल देखिए जातीय कीचड़ में सने लोग फिर भी एक दूसरे पर ऊंगली उठा रहे हैंं।

Exit mobile version