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“स्कूलों में CCTV लगाने का फैसला, बचपन का दम घोटने जैसा है”

विद्यालय दिनचर्या का वह चौथा पीरियड, सर परशुराम अपने चिर-परिचित अंदाज़ में गणित की कक्षा ले रहे थे। मैं आगे की सीट पर बैठना पसंद करता था। यह पसंद मेरी नहीं, बल्कि मेरे घर वालों की थी। उनका मानना था कि आगे बैठने से ज़्यादा सीखने को मिलेगा पर दुर्भाग्य से हमारी कक्षा में ऐसी कोई निश्चित व्यवस्था नहीं थी। हमारी कक्षा में प्रतिदिन सीट रोटेट होता था और उस दिन मुझे पीछे बैठना पड़ा था।

कक्षा में पीछे बैठ कर खाया टिफिन

वैसे कक्षा के कुछ तथाकथित विलेन पहली ही पीरियड के बाद अपनी सीट बदल लेते थे और पीछे चले जाते थे। सर ब्लैकबोर्ड की तरफ घूमकर गणित के क्लास को सरपट दौड़ा रहे थे और हमारे कुछ सहपाठी नवीन, रविभूषण, अमित, नाज़िर, मो.अलकमर अपनी ही कक्षा के एक सहपाठी का टिफिन बॉक्स चुपके से उसके बैग से निकालकर खा रहे थे। पीछे बैठने की वजह से परिश्रम के उस फल में मुझे भी हिस्सेदार बनाया गया और हमने एक चलती क्लास में टिफिन खाने का चमत्कार किया।

ये सब हमने विद्यालय के सबसे खतरनाक और वरिष्ठ शिक्षक के पीरियड में किया। कायदे से देखा जाए तो यह अनुशासनहीनता का परिचय था मगर इसके साथ ही यह बचपना और स्वाभाविक चंचलता का परिचय भी था। वह बचपन, जो आज़ादी के बाद ही मैकेले शिक्षा व्यवस्था का अत्याचार सह रही है। वह बचपन, जिसमें ना कोई शिकन होती है और ना किसी से कोई बैर।

विद्यालय बन गए हैं जेल

फोटो प्रतीकात्मक है।

उस बचपन पर पहले से ही इस देश में कई बंदिशें थोप दी गई हैं। जो देश कभी प्रकृति की गोद में पढ़कर और पढ़ाकर विश्वगुरु हुआ करता था, आज उसके गुरुकुलों को एक चारदीवारी के अंदर कैद कर दिया गया है। गौर से देखें तो विद्यालय और किसी केंद्रीय कारावास में ज़्यादा फर्क नहीं रह गया है। जेलों की तरह विद्यालय में भी सेल होते हैं, यहां आपकी उम्र तय करती है कि आप किस सेल में होंगे, ना कि आपकी सीखने की ललक।

कैदियों की तरह बच्चों के भी निर्धारित कपड़े होते हैं और सही कपड़े नहीं पहनने पर सज़ा भी मिलती है। अपने मन मुताबिक बच्चों को प्रोजेक्ट वर्क और असाइनमेंट दे दिए जाते हैं। इसका बच्चों की रुचि से कोई लेना देना नहीं होता है। बस बोर्ड ने जो निर्धारित किया है उसे पूरा करके आना है।

दिल्ली के स्कूलों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश

कई शिक्षक तो कहां से नकल उतारना है यह भी बता देते हैं। चारदीवारों और कसी टाई में अभी बच्चों का दम घुट ही रहा था कि ऊपर वाला देख रहा है वाला फरमान दिल्ली के स्कूलों में लागू हो गया। 

घर के बाहर दोस्तों के साथ चंचलता दिखाने का जो अवसर बच्चों को मिलता था, अब वह भी उनसे छीन लिया जाएगा। अब मनीष की वह प्रेम कहानी, रवि का निशिता को प्रोपोज़ करने का किस्सा और निशिता का ठुकराना कहां दिखेगा।

कक्षा के एक कोने से दूसरे कोने तक गुप्त प्यार वाली चिट्ठियां कौन पहुंचाएंगी? कक्षा के बीच में शिक्षकों से खुलकर हंसी-ठिठोली कैसे हो पाएगी? अब बच्चों के साथ-साथ सभी शिक्षकों को भी यही डर सताएगा कि ऊपर वाला सब देख रहा है।

मैं शुक्रगुज़ार हूं कि मुझे और मेरे मित्रों को ऐसी अमानवीय शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनना पड़ा और शिक्षकों ने भी हमारी गलतियों और चंचलता को सहज रूप से माफ करते हुए शिक्षा प्रदान की। यह सब संभव हुआ क्योंकि वहां ‘ऊपर’ से देखने वाला कोई नहीं था, आज़ादी थी और बस बचपन था।

 

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