हिन्दी और उर्दू दोनों ही मकबूल ज़ुबान हैं लेकिन इनका असर आज भारत में कस्बाई बोलियों पर पड़ रहा है, खासतौर पर हिन्दी का। इसके प्रचार-प्रसार में सरकार की तरफ से भी कोई कमी नहीं की गई और साहित्यकारों ने भी अपना पूरा योगदान दिया लेकिन हिन्दी के अलावा खासतौर से उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और बाकी भारत में अन्य भाषाएं भी हैं, जिनको तरजीह देना ज़रूरी है। हिन्दी और उर्दू भाषाएं हैं लेकिन उन बोलियों का क्या जिनका इतिहास इनसे भी पुराना है?
जी हां, जैसे अवधी, ब्रज, बुंदेलखंडी, बघेलखण्डी, रोहिलखण्डी, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मारवाड़ी आदि। इन भाषाओं में कुछ का तो साहित्य इतना प्रासंगिक एवं प्राचीन है कि हिन्दी या उर्दू उनके सामने टिक भी नहीं सकते। फिर भी विडम्बना यह है कि इन बोलियों को पूर्ण भाषा का दर्ज़ा नहीं दिया जाता और इन्हें हिन्दी के अंतर्गत ही पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। हालांकि इन ज़ुबानों के अदीब और अदब हिन्दी से कहीं ज़्यादा कदीम हैं।
जिस वक्त हिन्दी-उर्दू वजूद में भी नहीं आई थी, उस वक्त भी इन बोलियों में बेहिसाब कविताएं और उपन्यास आदि लिखे गए थे, जिसे हम आज भी लोकगीतों के माध्यम से सुनते हैं। “गोस्वामी तुलसीदास” हों या “सूरदास”, “अमीर खुसरो” या रसखान जैसे तमाम कवि और उपन्यासकार हुए हैं, जिनकी कलम से इन ज़ुबानों को प्रसिद्धि मिली। यहां तक की भक्ति आंदोलन का भी यह हिस्सा रही हैं।
मीरा बाई की रचनाओं को आज भी उसी ज़ोर-शोर से सरहा जाता है। अमीर खुसरो के दोहे और कव्वालियां किसने नहीं सुनी होगी? तुलसी के बगैर तो राम ही अधूरे हैं और महान कवि कबीरदास, रहीमदास और संत रविदास आदि। जिन्होंने उस तारीख में लिखा है, उसका सानी नहीं है लेकिन आज अफसोस की बात है कि लोग इन सब चीज़ों को पढ़ते ज़रूर हैं मगर ना तो अमल में लाते हैं और ना ही भाषाओं के प्रति कुछ करते हैं।
गाँवों से शहर आने वाले लोग जैसे ही शहर की तरफ रुख करते हैं, अपनी ही बोली की ओर हिकारत से पेश आते हैं। उनको लगता है कि वह अपनी मातृभाषा में बात करेंगे तो देहाती कहलायेंगे। चाहे वह भले ही घर में रामचरित मानस का पाठ कराएं या नित हनुमान चालीसा पढ़ें। वह आसपास देखते हैं कि कहीं कोई सुन ना ले। बच्चों को तो इस कदर डांटा जाता है, जैसे वह मातृभाषा बोलकर कोई गुनाह कर रहें हैं लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि अपनी ही भाषा से अगर वह दूर हुए तो हिन्दी या अंग्रेज़ी किसी और भाषा से भी वह कभी नहीं जुड़ पाएंगे।
इन बोलियों को लेकर सजग रहना बेहद ज़रूरी है। ऐसा नहीं है कि बोलने वालों की खामी हो लेकिन इनको प्यार करने वाले और साहित्य में रूचि रखने वाले ज़रूर कम हो गए हैं। ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी, उर्दू या अंग्रेज़ी को ही हमें ताक पर रख देना चाहिए क्योंकि यह भी बड़ी खूबसूरत ज़ुबानें हैं और आज के वक्त में इनकी ज़रुरत भी है मगर क्या हमारा कोई फर्ज़ अपनी मातृभाषा के लिए नहीं है?
भाषा सिर्फ बात करने का माध्यम नहीं होती बल्कि एक पूरी की पूरी सभ्यता और सकाफ़त को साथ लेकर चलती है अगर हमने अपनी अनमोल बोलियों को यूं ही रुस्वा किया तो वह दिन दूर नहीं जब हम इन्हें खो देंगे और उसके साथ-साथ हमारी एक तहज़ीब का भी अंत हो जाएगा।
इस चमन में कुछ गुल खिले हैं,
दरख्त पर कुछ फल लगे हैं,
आई है शाखों पर नव पत्तों की बहार,
तहज़ीब की परवरिश में कई दौर जले हैं।