आज की शिक्षा की कीमत आसमान छू रही है और स्कूलों की इमारतें तो आलीशान हैं ही, जो एक बार देखने भर से आपके दिमाग में यह बात पक्की कर सकती है कि आपके बच्चे के लिए यह स्कूल बेहतर है। स्कूल फीस के तो कहने ही क्या, जितनी ज़्यादा फीस उतनी ही स्कूल की रेपोटेशन।
ऐसे ही मैंने किसी बच्चे की माँ से पूछा, “आप क्या देख रही हैं स्कूल में?” तो कहने लगीं कि हमारी बेटी का एडमिशन कराने गए थे मगर बिल्कुल सरकारी स्कूल जैसे हालात थे। ऐसे में क्या पढ़ाते बच्चों को, जहां की इमारत ही अच्छी नहीं हैं। उनकी बात सुनकर समझ आया कि हमारे देश के सरकारी स्कूल आज इतनी दयनीय स्थिति में क्यों हैं? सरकार खूब रुपया तो लगाती है मगर समझ नहीं आता इमारतें क्यों फीकी हो जाती हैं, जो आज के माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के लिए देख रहे होते हैं।
इतने में एक माँ ने कहा, “अरे! आपको पता है, हमने जिस स्कूल में अपनी बेटी का एडमिशन कराया है, उसकी फीस सबसे ज़्यादा है”। तो समझ आया ज़्यादा रुपए लेने वाले स्कूल अच्छी बिक्री में हैं, इसलिए उच्चवर्ग के लोग सरकारी स्कूल की लाइन में नज़र नहीं आते हैं, क्योंकि मुफ्त का माल तो घटिया ही नज़र आता है।
जब तक इंसान की जेब खाली ना हो उसे किसी बात का एहसास ही नहीं होता। मैंने पूछा, “किस क्लास में एडमिशन कराया है, आपने अपनी बेटी का?” तो कहने लगीं कि अभी तो नर्सरी में है और पूरे 75 हज़ार लगे हैं। जी हां, मैं भी चौंक गई थी। नर्सरी के लिए 75 हज़ार! हां, कोई बड़ा प्रोजेक्ट कराता होगा नर्सरी के बच्चों को जो सीधे उन्हें साइन्टिस्ट बना दे। सही है, जिनके पास पैसा है, उनके लिए ऐसे स्कूल स्पेशल एंट्री की तरह खुले हैं।
अब बात करते हैं, मध्यम वर्ग की जो ना इधर के ना उधर के हैं। बेचारे ऐसी नाव में सवार होते हैं, जो लहरों के बीच गोते खाती हैं, जिसमें अगर सरकारी स्कूल में एडमिशन हो तो बच्चों का भविष्य बिगड़ जाए और दूसरे स्कूल को देने लायक फीस जेब में नहीं होती। वैसे इस वर्ग के लिए भी बहुत से स्कूल उनकी जेब के अनुसार पैकेज बनाकर रखते हैं।
ऊपर से जब आप नर्सरी के टीचर्स से आप मिलेंगे, तो वह उम्मीद रखते हैं कि आपका बच्चा बिल्कुल सीख-पढ़कर आए। उन्हें बोलने के तरीके से लेकर बैठना, उठना, खाना सबकुछ आना चाहिए। बच्चा पेट से सीखकर आता तो, सीधा साइन्टिस्ट बनकर निकलता। पता नहीं कौन सा स्तर पढ़ाई का बना दिया गया है? एक वक्त था, जिसकी अगर आज से तुलना करें तो लगेगा हम तो गंवार ही रहे होंगे क्योंकि ना उस वक्त इमारतों की भरमार थी और ना रुपया। वक्त भी इतना होता था कि खुब खेल सके। आज के बच्चों को देखती हूं तो लगता है, स्कूल नहीं जेल भेज रहे हैं। जहां वक्त की कोई सीमा नहीं होती। शायद रुपयों का वजन वक्त की कीमत लगा रहा है।
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