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“घृणा से भरे समाज में आज भी प्रासंगिक है अंबेडकर की सोच”

अंबेडकर

अंबेडकर

भारत रत्न, बोधिसत्व, बाबा साहब और ऐसे ही कई संबोधनों से पुकारे जाने वाले एक असाधारण प्रतिभा के साधारण व्यक्ति, जो सदियों से अपने और अपने समाज के पैरों में बंधी बेड़ियों को तोड़कर आगे बढ़े, अपने समाज के मसीहा बने और वर्तमान भारत के राष्ट्र निर्माता भी कहलाए।

यह सोचने वाली बात है कि कैसे डॉ. भीमराव अंबेडकर एक राष्ट्रीय महापुरुष से शुरू होकर वर्तमान परिदृश्य में सत्ता लोलुपों के लिए वोट पॉलिटिक्स का एक हथियार, एक मुद्दा बनकर रह जाते हैं। हर राजनीतिक दल उनको मौके-बेमौके अपने-अपने ढंग से अपनाकर एक समूह विशेष के समक्ष स्वयं को उनका पक्षकार बताने की होड़ में लगे रहते हैं।

कभी उनकी ‘दलित छवि’ को प्रोजेक्ट करके जनाधार को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया गया, तो कभी उनकी ‘अन्तर्राष्ट्रीय छवि’ को सामने रखकर पड़ोसियों से अपने सम्बन्ध प्रगाढ़ किए गए लेकिन अम्बेडकर सिर्फ यही नहीं हैं।

सामाजिक बुराइयों, स्तरीकृत समाज और उच्च वर्ग के खुद पर करने वाली झूठी भावना, उनके दंभ को तोड़ते हुए अम्बेडकर अपने समकालीन विचारकों से कहीं आगे निकल जाते हैं।

उन्हें एक इतिहासकार के रूप में रखकर हम उनके द्वारा लिखित पुस्तकों के माध्यम से उनकी सामाजिक बुराइयों और उच्चता के झूठे गर्व पर किए गए प्रहार को आज के सन्दर्भ में भी समझ सकते हैं। डॉ. अम्बेडकर की गणना अपने समय के सबसे अधिक पढ़े-लिखे मनीषियों में की जाती है। उन्होंने विपरीत सामाजिक परिस्थितियों में भी काम करके यह साबित किया कि मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं है।

सामाजिक ताने-बाने की सच्चाई बयां करती उनकी किताबें

उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों में ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति का उन्मूलन), ‘बुद्धा एंड हिज़ धम्मा’ (बुद्ध और उनका धम्म), ‘हू वर द शूद्राज़?’ (शूद्र कौन थे) और रिडल्स इन हिन्दुइज़्म (हिन्दुत्व के रहस्य) ऐसी कृतियां हैं, जो कि भारत के सामाजिक ताने-बाने की सच्चाई बयां करने वाली पुस्तकों में मील का पत्थर साबित होती हैं।

फोटो साभार: Getty Images

अम्बेडकर के सामाजिक और ऐतिहासिक विचारों को इन पुस्तकों के समीक्षात्मक वर्णन से समझा जा सकता है। पहले बात करते हैं एनीहिलेशन ऑफ कास्ट की। असल में सन् 1936 में डॉ. अम्बेडकर को लाहौर में आयोजित होने वाले जात-पात तोड़क मंडल के वार्षिक सम्मेलन में व्याख्यान के लिए बुलाया गया था मगर व्याख्यान में जाति व्यवस्था का विरोध करने वाले अत्यन्त तीखे शब्द मौजूद होने के कारण उन्हें इसमें कुछ परिवर्तन करने को कहा गया।

डॉ. अम्बेडकर इससे सहमत ना थे और उन्होंने व्याख्यान नहीं दिया। यही व्याख्यान आगे चलकर ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ यानि जाति का उन्मूलन नाम से प्रकाशित हुआ, जिसने लोगों के विचारों में एक नई क्रांति ला दी।

अपनी इस कृति में उन्होंने भारत में दलितों और अस्पृश्यों की दशा का वर्णन करते हुए कई उदाहरण प्रस्तुत किए। जैसे- पेशवाओं की राजधानी पुणे में अस्पृश्यों को कमर में झाड़ू बांधकर और अपने पीछे झाड़ू लगाते हुए चलना, गले में मटका लटकाकर चलना और उसी में थूकना, ताकि उच्च वर्गीय हिन्दू अपवित्र ना हो जाएं।

उच्च वर्गीय हिन्दुओं द्वारा दलितों पर प्रतिबंध

मध्य भारत के एक अस्पृश्य समुदाय पर उच्च वर्गीय हिन्दुओं द्वारा कई प्रतिबंध लगा दिए गए थे। आभूषण पहनने की मनाही, सार्वजनिक कुओं से पानी लेने और अपने पशुओं को चराने की मनाही इत्यादि। यह वह दौर था, जब घी तक को अमीरी का पर्याय बना दिया गया था। यदि कोई अस्पृश्य समर्थ हो, तो भी वह घी खाने और अपने बच्चों को स्कूल भेजने का अधिकारी नहीं हो सकता था।

डॉ. अम्बेडकर जाति व्यवस्था के विषय में कहते हैं,

यह एक बिना खिड़की-दरवाज़े वाले बंद कमरों की बहुमंज़िला इमारत है जिसमें जिसका जन्म जहां हुआ है, वह वहीं रहेगा।

इस जाति व्यवस्था का आधार उन्होंने धार्मिक स्तरीकरण को माना। अम्बेडकर की मूल भावना यह व्यक्त करने की थी कि आप जातिगत आधार पर किसी भी मज़बूत राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते और कुछ भी अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता। जाति समाज की जड़ों को खोखला बनाने का मुख्य कारण है।

अम्बेडकर के मुताबिक इस बात में कोई शक नहीं है कि जातिगत स्तरीकरण हिन्दुत्व का श्वास तत्व है। इसके बिना हिन्दुत्व जीवित ही नहीं रह सकता। जाति व्यवस्था के उनमूलन के लिए वह तीन मार्ग भी बताते हैं, “उपजातियों का उन्मूलन, अन्तर्जातीय भोज और अन्तर्जातीय विवाह।”

अम्बेडकर और बौद्ध धर्म

डॉ. अम्बेडकर ने किसी भावनात्मक आवेश में आकर नहीं, बल्कि भली-भांति जांच परख कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। वह अपनी पुस्तक ‘बुद्धा एंड हिज़ धम्मा’ में बुद्ध के जीवन की घटनाओं, उनके उपदेशों व उनसे सम्बंधित समस्याओं पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं। वह बुद्ध के जीवन की प्रथम घटना ‘प्रवज्या’ के विषय में कहते हैं, “यह कैसे सम्भव है कि 29 वर्ष की आयु तक (जब सिद्धार्थ ने प्रवज्या ग्रहण की) किसी बूढ़े, रोगी और किसी मृत व्यक्ति को ना देखा हो?”

डॉ. अम्बेडकर के अनुसार बौद्ध धर्म में आत्मा के अस्तित्व से इंकार और पुनर्जन्म में विश्वास आपस में विरोधाभासी बातें हैं। एक अन्य प्रश्न भिक्षु संघ की स्थापना को लेकर भी उठा कि बुद्ध ने किन उद्देश्यों के साथ इसकी स्थापना की थी? क्या इसका उद्देश्य आदर्श मनुष्य का निर्माण मात्र था?

डॉ. अम्बेडकर ने इन प्रश्नों को सामने रखकर, आमूल-चूल परिवर्तन के साथ जिस बौद्ध धर्म को ग्रहण किया, वह ‘नव बौद्ध धर्म’ था जो कि कुछ मायनों में महात्मा बुद्ध के बौद्ध धर्म से भिन्न था।

अपनी पुस्तक रिडल्स इन हिन्दुइज़्म में हिन्दु धर्म शास्त्रों और महाकाव्यों की कथाओं पर करारा प्रहार किया। राम के जन्म की अप्राकृतता को लेकर प्रश्न किया। ‘बौद्ध रामायण’ व ‘वाल्मीकि रामायण’ दोनों में अलग प्रकार से वर्णित राम व सीता के सम्बन्धों पर सवाल किया। राम के व्यक्तिगत गुणों मे बालि को धोखे से मारना, अपनी पत्नी को वन में भेज देना, एक राजा के रूप में शम्भुक नामक शुद्र के वध इत्यादि को अनुचित ठहराया।

महाभारत में कृष्ण की भूमिका व उनके छल-कपट पूर्ण व्यवहार पर प्रश्न उठाया। उन्होंने स्पष्ट किया कि ऋग्वेद और गीता, जो कि हिन्दू धर्म के प्रधान ग्रन्थ हैं, आपस में विरोधाभासी हैं क्योंकि एक ओर ऋग्वेद का पुरुषसूक्त, वर्ण व्यवस्था को पुष्ट करता है। वहीं, इसके उलट गीता सभी मनुष्यों की एक समान उत्पत्ति का उल्लेख करती है। डॉ. अम्बेडकर, ब्राह्मणवादी वर्चस्व वाले लोगों को अपनी सोच बदलने को मजबूर कर देते हैं।

भीमराव अंबेडकर

अपनी एक अन्य महत्वपूर्ण कृति ‘हू वर द शूद्राज’ में डॉ. अम्बेडकर एक लंबे दौर के विश्लेषण के बाद दो प्रश्नों का मूल रूप से उत्तर देते हैं, “शूद्र कौन थे? और इंडो-आर्य समाज के वे चौथे वर्ण कैसे बन गए?” वह कहते हैं कि शूद्र पृथक वर्ण ना होकर इंडो-आर्य समाज के क्षत्रिय वर्ण के एक भाग थे।

शूद्र राजाओं व ब्राह्मणों के मध्य लगातार युद्ध में शूद्रों द्वारा ब्राह्मणों का अपमान होता था। ब्राह्मणों ने शुद्रों के प्रति घृणावश उन्हें उपनयन से वंचित कर दिया, जिससे उनका सामाजिक स्तर नीचा होता चला गया और वे चौथे वर्ण बन गए। अम्बेडकर अपनी पुस्तकों में स्पष्ट करते हैं कि सभी हिन्दू धर्म शास्त्र व पुराण जाति के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं तथा इसे समाज का एक व्यवस्थित हिस्सा मानते हैं।

अस्पृश्यता, हिन्दू जाति व्यवस्था का ही परिणाम है। ये बातें उन्होंने हवा में नहीं, बल्कि अपने वर्षों के अध्ययन व स्वयं के अनुभवों के उपरान्त कहीं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ हिन्दू धर्म पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया हो, बल्कि स्वयं दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व बौद्ध धर्म का भी बारीकी से विश्लेषण किया था।

डॉ. अम्बेडकर अस्पृश्यों की बेहतरी के लिए चाहते थे कि वे सामाजिक-आर्थिक रूप से उठें। वे उन्हें सदियों से उनके पैरों में बंधी जाति की बेड़ियों से आज़ाद कर देश के अन्य नागरिकों के बराबर खड़े देखना चाहते थे। वह मूल रूप से एक अर्थशास्त्री के रूप में प्रशिक्षित थे और इस विषय पर उनका गहरा अध्ययन था।

आर्थिक सोच के मामले में सच में उनका कोई सानी नहीं है मगर उनकी सामाजिक-राजनीतिक चैतन्यता व सक्रियता ने उन्हें इतिहास के प्रति जुनूनी बना दिया। उनके वर्णन ऐतिहासिक रूप से ज़्यादा याद रखे जाते हैं। उन्होंने अपने लेखन से ऊंच-नीच भरे समाज के दंभ को तोड़ा। भारत का कोई भी इतिहास डॉ. अम्बेडकर को स्थान दिए बिना अधूरा है। घृणा से भरे समाज में उनकी सोच और सीख आज भी प्रासंगिक है।

नोट- लेख में प्रयोग किए गए तथ्य अंबेडकर की किताब ‘ऐनिहिलेशन ऑफ कास्ट‘, ‘रिडल्स इन हिन्दुइज़्म‘, ‘हू वर द शूद्राज‘ और ‘बुद्धा एंड हिज़ धम्मा‘ से लिए गए हैं।

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