जामिया में मीडिया की पढ़ाई के दौरान हमारा क्लासरूम थियेटर हॉल जैसा था। जब भी खाली टाइम मिलता, मैं सामने स्टेज पर चढ़ जाता और शोले के मशहूर डायलॉग भोजपुरी में अभिनय करके दोस्तों को सुनाया करता। ऐसा करके एक अजीब सा सुख मिलता। यूं तो मेरी अंग्रेज़ी भी ठीक है, फिर भी दिल्ली में नया-नया आया मैं डीयू और दिल्ली के दोस्तों के सामने भोजपुरी बोलकर एक अजीब-सी दूरी तय करने की कोशिश करता, जो कहीं ना कहीं थी।
फिल्म ‘सुपर-30’ ऐसे ही एक सीन से शुरू होती है। बिहार के किसी गाँव से निकला ‘फुक्का कुमार’ विदेशियों से भरे एक हॉल में विज्ञान के क्षेत्र में बड़ा अवार्ड ले रहा है और सबको सहजता से समझा रहा है कि फुक्का का मतलब ‘बलून’। इस फिल्म में ऐसे एक नहीं कई सीन हैं।
एक्सीलेंस एकेडमी में आईआईटी की तैयारी कर रहे अमीर बच्चों और आनंद कुमार की बैच में आईआईटी के लिए तैयार हो रहे 30 गरीब बच्चों के बीच सबसे बड़ा फर्क अंग्रेज़ी बोलने का डर है। आनंद कुमार (ऋतिक रौशन) उन बच्चों से कहते हैं कि कल एक्सीलेंस एकेडमी के सामने तुम 20 मिनट का एक नुक्कड़ नाटक करोगे, जिसमें एक शब्द भी हिंदी का नहीं होना चाहिए।
ये गरीब बच्चे शोले के गब्बर सिंह वाले सीन को उन अमीर बच्चों के बीच टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में सुनाते हैं। पब्लिक उन पर हंसती है मगर सीन जहां खत्म होता है, वहां यह मज़ाकिया नाटक एक आक्रोश जैसा बन जाता है। इस एक सीन के लिए भी फिल्म सुपर-30 बार-बार देखी जा सकती है।
स्क्रीन पर वर्ग संघर्ष की शानदार पेशकश
सुपर-30 के रिलीज़ से एक हफ्ते आई फिल्म आर्टिकल-15। दोनों फिल्में जाति और वर्ग (क्लास) पर हमारे दौर की शानदार झांकी है। आर्टिकल-15 जहां अपनी कहानी में इस मुद्दे को गंभीरता से पकड़ती है, वहीं सुपर-30 अपने ट्रीटमेंट में। आर्टिकल-15 में शानदार डॉयलॉग्स तो हैं मगर बहुत ज़्यादा हैं। जातियों के नाम कई-कई बार सुनने को मिलते हैं जो इस मुद्दे से लड़ने का सबसे आसान और लाउड तरीका हो सकता था।
सुपर-30 में कहीं किसी जाति का ज़िक्र नहीं है। फिल्म की कहानी भी आर्टिकल-15 के आगे कहीं नहीं ठहरती फिर भी जब वर्ग संघर्ष (क्लास-स्ट्रगल) को स्क्रीन पर दिखाया जाता है, कमाल की बारीकी है।
कहानी बहुत छोटी और प्रेडिक्टेबल है। पटना के आनंद कुमार संघर्षों में पढ़कर गणित के जीनियस बने हैं। पारिवारिक संघर्षों में आगे की पढ़ाई के लिए कैंब्रिज नहीं जा पाते। फिर पटना में ही आईआईटी की तैयारी करा रहे एक कोचिंग में पढ़ाने लगते हैं। एक रोज़ उनके भीतर का इंसान जगता है और वह तय कर लेते हैं कि अब सिर्फ गरीब बच्चों को पढ़ाएंगे, वह भी एकदम मुफ्त। कहानी का अंत अच्छा ही होना था, सो है मगर इस बीच में फिल्म बहुत शानदार तरीके से बुनी गई है।
गरीब बच्चों के सपनों की झलक
बिहार के किसी सुदूर गाँव में एक गरीब बच्चा जिस दिन यह सुनता है कि अब वह फ्री में पढ़ सकेगा, अपने मालिक से कहता है कि कल से काम पर नहीं आएगा। मालिक पूछता है, “कहां जाएगा?” बच्चा कहता है, ‘नासा जाएंगे, दूसरा ग्रह का खोज करने।” इस तरह के बयान सुनने में वास्तविकता से दूर लगते हों मगर एक फिल्म अपनी इमानदार कोशिश में इससे ज़्यादा और क्या कर सकती है?
आनंद कुमार या आईआईटी में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रही है। इसके बावजूद मैं कहूंगा कि सुपर-30 ज़रूर देखें। इसलिए देखें कि कैसे हमारी या आने वाली पीढ़ियों को कोचिंग संस्थान अपना गुलाम बनाते जा रहे हैं। इसलिए भी देखें कि कैसे आज के दौर की प्रेम कहानियां भी बिना अश्लीलता से दिखाई जा सकती हैं।
जिस किसी एडिटर ने इस फिल्म का ट्रेलर बनाया, उसे ज़रूर प्रोड्यूसर ने पैसे नहीं दिए होंगे। तभी उसने एक बुरा ट्रेलर बनाया होगा, जिसे देखकर लोग फिल्म देखने ना जाएं। फिल्म की लंबाई, कुछ बेवजह के सीक्वेंस और ऋतिक रोशन की खराब बिहारी बोली खटकती ज़रूर है, मगर फिल्म में उनसे बेहतर कई कलाकार हैं। सबसे बेहतर है वह विचार जो इस फिल्म की जड़ में है- अब राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा, वही बनेगा जो इसका हकदार होगा।
यह जानकारी कितनी दिलचस्प है कि ‘आर्टिकल 15’ लिखने वाले गौरव सोलंकी एक आईआईटी के ही प्रोडक्ट हैं। जिस आईआईटी का सपना साधनहीन छात्रों को दिखाने वाले आनंद कुमार पर बनी है सुपर 30।
गौरव सोलंकी का एक और सपना हुआ करता था, आईआईटी के लिए हिंदी में किताबें लिखना। फिलहाल वह फिल्में लिख रहे हैं।
नोट: यह मूवी रिव्यू निखिल आनंद गिरि द्वारा उनके ब्लॉग ‘बुरा-भला’ पर प्रकाशित किया जा चुका है।