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“प्रधानमंत्री को खत लिखने वाला बुद्धिजीवियों का समूह मुझे सेलेक्टिव लगा”

देशभर में “राम के नाम पर”, “गाय के नाम पर”, “बच्चा चोरी” और अन्य किसी बात पर नागरिक समाज राष्ट्र-राज्य के लोकतांत्रिक अवधारणा को धता बताकर खुद ही फैसला सुनाने लगा है। ये भीड़ के रूप में अनियंत्रित होकर स्वयं अपने हाथों फैसला करने सड़कों पर ही नहीं, बल्कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर इकट्ठा होकर अपना फैसला सुनाने लगा है। कानून-व्यवस्था कुछ भी करने में असमर्थ है।

सभ्य नागरिक समाज अचानक से तालिबान सरीखा व्यवहार क्यों करने लगा है? इसकी समाजशास्त्रीय अध्ययन की आवश्यकता मौजूदा दौर में सबसे अधिक है।

असभ्य हो रही नागरिक संस्कृति पर अंकुश लगाने के ख्याल से समाज के बुद्धिजीवियों के एक समूह ने प्रधानमंत्री को भीड़ की हिंसा के विरुद्ध पत्र देकर एक कानून बनाने की मांग की, जिसमें उनका कहना है,

यह मध्य युग नहीं है। भारत के बहुसंख्यक समुदाय में राम का नाम कई लोगों के लिए पवित्र है। इस देश की सर्वोच्च कार्यपालिका के रूप में आपको राम के नाम को इस तरीके से बदनाम करने से रोकना होगा। केवल संसद में इन घटनाओं की आलोचना करना पर्याप्त नहीं है।

मॉब लिंचिंग की घटनाओं से आहत बुद्धिजीवियों के एक समूह का सामने आना और प्रधानमंत्री से पत्र के माध्यम से दखल देने का अनुरोध करना बिल्कुल गैर वाज़िब नहीं है। सर्वोच्च अदालत बहुत पहले ही इसकी गंभीरता को देखते हुए सरकार को कानून बनाने का निर्देश दे चुका है। हैरानी इस बात को लेकर ज़रूर है कि लोगों का विरोध मॉब लिंचिंग पर नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री को लिखे पत्र को लेकर है।

अगर कुछ गैर वाज़िब है तो वह यह कि बुद्धिजीवियों का समूह इस गंभीर विषय पर इतना सेलेक्टिव क्यों है? वह केवल “राम के नाम पर” की जा रही हिंसा के विरुद्ध लामबंद क्यों हुए है? उन्होंने अपने पत्र में तमाम तरह की मॉब लिंचिंग पर कठोर आपत्ति क्यों नहीं दर्ज की है, उन्होंने जो तथ्य पत्र में शामिल किए हैं, उसमें इस तरह की घटनाओं में राजनीतिक पार्टियों की भागीदारी की बात नहीं है। जबकि मॉब लिंचिंग के तमाम मामलों में किसी-ना-किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति झुकाव स्पष्ट तरीके से दिखता है, यह कमोबेश “जिसकी लाठी, उसकी भैंस” सरीखा व्यवहार है।

महिलाओं के विरुद्ध तो मॉब की हिंसा का इतिहास सभ्यता की शुरुआत से ही रहा है। रामायण में सीता के चरित्र पर एक समुदाय विशेष का आरोप और महाभारत में द्रौपद्री के खिलाफ कुरु कुमारों के चीरहरण को मॉब की हिंसा नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? पराजित राज्य की महिलाओं को हरम के नर्क में झोंक देना या पति की मृत्यु होने पर सती होने के लिए विवश करना या डायन कहकर महिलाओं को समाज के सामने अपमानित करना, अजन्मी बच्चियों को मॉं के गर्भ में ही मार देना, क्या मॉब की हिंसा की श्रेणियां नहीं है?

बहरहाल, प्रधानमंत्री को दिया गया पत्र सामने आया और राजनीतिक पारा गर्म हो गया है। इसके समर्थन और विरोध में तमाम तरह की बातें लिखी और बोली जाने लगी हैं। सबसे अधिक गैर-वाज़िब प्रतिक्रिया “जो ना बोले जय श्री राम” धमकी वाला वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। इस विवादित गाने पर सोशल मीडिया पर तमाम लोग अपना विरोध दर्ज कर रहे हैं और कुछ लोग समर्थन भी कर रहे हैं।

इस बारे में कोई दो राय रखने की ज़रूरत नहीं है कि यह सामाजिक-राजनीतिक प्रतिक्रिया नई सरीखी है। वास्तव में जाति, धर्म, वर्ग और लैंगिक विभाजन में बंटा हुआ समाज अपना वर्चस्व सिद्ध करने के लिए हमेशा एक मौके की बाट जोहता रहता है कि कब किसी एक खास वर्चस्व को पुर्नजीवित करने के लिए माचिस की तीली सुलगाकर बारूद की ढेर में आग लगा दी जाए।

भारत के लोकतांत्रिक देश बनने के बाद इस तरह की घटनाओं का अंबार सा है, जब अनियंत्रित भीड़ के रूप में पूर्वाग्रही वर्चस्वशाली मानसिकता ने उन्माद में विभत्स से विभत्स घटनाओं को अंजाम दिया है। चूंकि आज तक भीड़ के विरुद्ध कोई अनुशासत्मक कार्रवाई नहीं हो सकी है, इसलिए अनियंत्रित सामाजिक-राजनीतिक भीड़ के हौसले बुलंद हैं।

वास्तव में हमको यह समझना होगा कि किसी भी भीड़ पर नियंत्रण केवल कानूनी दायरे में संभव नहीं है, इसके विरुद्ध सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक घेराबंदी भी करनी होगी, जिससे कोई भी समूह सामाजिक-राजनीतिक मान्यताओं का सहारा लेकर वर्चस्वशाली मानसिकता को लोकतांत्रिक दायरे में पुर्नजीवित नहीं कर सके।

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