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“कबीर सिंह को गाली से जज करने वालों, गैंग्स ऑफ वासेपुर भूल गए?”

हम पैदा होते हैं प्यार करते हैं और मर जाते हैं, लाइफ का ये ही 10% हिस्सा सबसे ज़रूरी होता है, बाकी 90% तो इन्हीं का रिफ्लेक्शन है।

इन दिनों एक नई चरस मार्केट में आई हुई है, Misogynist टाइप की या यूं कहें कि The f*** patriarchal Society वाली सोच के साथ कबीर सिंह (ऐसा रिव्यू आया है)।

तो कल जब पेपर खत्म हुआ, तो सोचा कि नई चरस है, ट्राई तो करना बनता है, इसलिए पहुंच गया टॉकीज़। हो सकता है अपने मेल इगो के चक्कर में सिमोन द बोउआर (फेमिनिस्ट चाची) का कांसेप्ट भूल जाऊं, इसलिए इस फिल्म को दो बार देखनी चाहिए। पहली बार सोसाइटी के सबसे असभ्य टॉकीज़ (ऐसा दिल्ली वाले कहते हैं) में और दूसरी बार वहां, जहां सामने होता किस देखकर तुम्हारे पड़ोस में लाइव हो जाता है। But we can’t judge anyone because u born with f**** patriarchal mindset.

मूवी कबीर सिंह दक्षिण की अर्जुन रेड्डी की रीमेक है। एक फिल्म के तौर पर किसी को जब देखा जाता है, तो उसके सभी पक्षों को देखना पड़ता है। सबसे खास बात कि अन्य मूवी की तरह गानों को 5 मिनट अलग से नहीं दिया गया है। डायरेक्शन और सिनेमोटोग्राफी भी कमाल की थी। बाकी स्क्रिप्ट थोड़ी ढीली है।

जितना नेगेटिव शेड, उतना बंदे में दम-

फिल्म कबीर सिंह का दृश्य। फोटो सोर्स- Youtube

शाहिद अपने हर रोल के साथ बेहतर होते जा रहे हैं। ‘हैदर’, ‘उड़ता पंजाब’ और अब ‘कबीर सिंह’ जितना नेगेटिव शेड, उतना बंदे में दम। कियारा को सबसे कमज़ोर कड़ी भी कह सकते हैं, क्योंकि शुरुआत में ऐसा कौन होता है वह भी मेडिकल में। लास्ट में जब वह रोती है तो शायद वह एक्टिंग का सबसे गन्दा पार्ट था।

शिव (सोहम मजूमदार) पूरी फिल्म में एक अच्छे दोस्त की तरह पीछे ही रहा। यह रांझणा के मुरारी, संजू के कमली से बिल्कुल भी कम नहीं है और एक्टिंग के मामले में उसको जज कर सकूं, इतनी औकात ही नहीं है (क्योंकि वह थियेटर वाला आदमी है)। बाकी लोग जिया (निकिता दत्ता), सुरेश ओबरॉय, दादी सब अपने छोटे-छोटे स्लॉट में कभी बोझिल नहीं लगे।

स्क्रिप्ट पर इतना हंगामा क्यों भाई?

फिल्म कबीर सिंह का दृश्य। फोटो सोर्स- Youtube

अब आते हैं स्क्रिप्ट पर, जिस पर हंगामा तो ऐसा मच रहा है, जैसे कबीर सिंह देखने के बाद हर बंदा अपनी गर्लफ्रेंड को ऐसे ही ट्रीट करेगा। भाई वह बंदी है तुम्हारी जो कभी भी तुमको छोड़ सकती है इसलिए लड़के ‘बाबू तुमने थाना थाया’ ऐसा ही बोल पाएंगे, उससे ज़्यादा तो दिल्ली का मातृ शब्द भे*** भी नहीं।

कोई भी मूवी समयकाल, परिस्थिति को देखकर ही बनती है। गाली देना कोई अपराध तो नहीं है और अगर इसको देखकर ही जज करते हो तो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के बाद मूवी बनना ही बंद हो चुकी होती। पद्मावती के जौहर के बाद ही ‘पद्मावत’ बनी थी या ‘तेरे नाम’ का राधे कोई मूवी देखने के बाद नहीं हुआ था।

हमें यह समझाना होगा खुद को कि ऐसा समाज में होता है। कबीर सिर्फ प्रीति के साथ ऐसा नहीं कर रहा था, उसने अपने आस-पास रहने वाले हर इंसान से वैसा ही व्यवहार किया था। यहां तक कि भाई को भी मॉं की गाली दी। क्या तुम्हारी गर्लफ्रेंड को कोई छेड़ेगा तो तुम हाइपर नहीं होगे। क्यों जलन है, उस व्यक्ति से तुम्हें? वह उनका आपसी कनसेंट है, दोनों ने बराबर थप्पड़ मारे हैं। जो लड़का अपनी गर्लफ्रेंड को कंधे पर बैग इसलिए नहीं रखने देता कि उसके कंधे पर निशान पड़ जाएगा, तो उसका गुस्सा होना जायज़ भी है।

फोटो सोर्स- फेसबुक

और हां, सारी चीज़ें रियलिस्टिक है, दिल्ली में कौन नहीं पीता? यहां तक कि जिन्होंने इस फिल्म पर रिव्यू लिखे हैं ना वे भी हो सकता है कि शराब के नशे में लिखे हो। तो क्यों दर्द हो रहा है मूवी देखकर?

कोई नहीं बिगड़ता और हां बंद ही करवाना है ना तो पहले क्राइम पेट्रोल जैसा हद बकलोल कांसेप्ट बंद करवाओ, जिससे ज़्यादातर लोगों को मारने का आइडिया मिलता है।

अरे हां, एक बात कहना भूल गया कि मैं पितृसत्तामक व्यवस्था का सबसे बड़ा समर्थक हूं, क्योंकि मेरे घर का राशन कार्ड भी माँ के नाम पर है। वैसे सभ्य टॉकीज़ में सबसे ज़्यादा तालियां सेक्स सीन पर बजी थीं।

वैसे सोफे पर बैठने वाले सरस शराबी लोग कबीर सिंह का कहीं सिर्फ इसलिए तो विरोध नहीं कर रहे हैं कि बॉलीवुड धीरे-धीरे मोदी के समर्थन में आ रहा है और शाहिद भी मोदी को पसंद करते हैं। ऐसा ‘अर्जुन रेड्डी’ और ‘कबीर सिंह’ के रिव्यू को देखकर भी लग सकता है।

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