जब दर्द ज़ुबान की भाषा से बयान करना असंभव हो जाए तब ज़रूरी है कि इसे लिखा जाए। दर्द के मायने होते हैं और ये जीवन में अद्भुत बदलाव लाने में सक्षम हैं। मैं भी 1984 के सिख कत्लेआम का पीड़ित रहा हूं, शायद यही दर्द है जो समाज के कई पहलुओं से एक सहानुभूति रखता है, इसके बावजूद कि मेरा उस दर्द से कोई भी सरोकार नहीं है। इसी कारण से मैं उन चुनिंदा फिल्मों को देखने की ज़हमत करता हूं, जो मुख्यधारा से अलग होकर कुछ कहने की समर्थता रखती हो।
इसी सिलसिले में कुछ दिनों के भीतर तीन फिल्में देखी हैं, ‘रम डायरी’, ‘कबीर सिंह’ और ‘आर्टिकल 15’। तीनों ही फिल्में किसी-ना-किसी मुद्दे से जुड़ी हुई हैं। हम इन मुद्दों से सहमत और असहमत हो सकते हैं लेकिन इन्हें नकार नहीं सकते हैं। हालांकि कुछ चीज़ों को फिल्म में नज़रअंदाज़ किया गया है।
कबीर सिंह
कबीर सिंह फिल्म का नायक अपनी प्रेमिका से इस कदर मोहब्बत करता है कि बिना जाने कि फिल्म की नायिका के गर्भ में मौजूद बच्चा किसका है, उसे बेझिझक और बिना वक्त गंवाए अपनाने को तैयार है। फिल्म के इस पहलू की तारीफ होनी ही चाहिए लेकिन यही नायक फिल्म की नायिका को उसकी मर्ज़ी जाने बिना चूमने का साहस भी करता है और उसे यह भी बताता है कि किसी ने नहीं देखा। अब यहां एक पुरुष प्रधान समाज की हकीकत से फिल्म सहमत है।
वहीं फिल्म का नायक इस बात से शिकायत करता रहता है कि जाति की वजह से उसकी और फिल्म की नायिका की शादी नहीं हो सकी। फिल्म का नायक अपने नाम के साथ मौजूद सिंह को हटाने की कोई ज़रूरत नहीं समझता है और आखिर में फिल्म की नायिका जो सिख दिखाई गई है, उसका धर्मान्तर करके साड़ी और मांग में सिंदूर लगाकर उसे हिंदू दिखाने में फिल्म ने बहुत चतुराई दिखाई है।
फिल्म में जातिवादी एंगल को इग्नोर किया गया है
यहां सवाल यह है कि अगर फिल्म का नायक सवर्ण ना होता, फिल्म के नाम में मौजूद सिंह ना होता, फिल्म की नायिका एक स्वर्ण हिंदू होती और फिल्म का नायक किसी निम्न वर्ग का होता तो क्या तब भी फिल्म को इतने दर्शक मिलते? शायद नहीं, यहां समझने की ज़रूरत है कि फिल्म का नायक सवर्ण है, तो उसके पागल की हद्द तक के गुस्से को दर्शक का समर्थन मिलता है लेकिन यही नायक कोई गैर सवर्ण होता तब शायद नायक के गुस्से को इतना समर्थन नहीं मिलता।
आर्टिकल 15
वहीं फिल्म आर्टिकल 15, समाज में मौजूद जातिगत व्यवस्था के मुद्दे पर बहुत ही बेबाकी से अपनी आवाज़ रखती है। मुझे याद नहीं कि कभी इस तरह की कोई फिल्म बनी हो। फिल्म का एक दृश्य बहुत से सवालों का जवाब देने में सक्षम है, जहां एक गटर में मौजूद मैला पानी शांत है और कुछ पल के भीतर वहां हलचल होती है और इसी मैले पानी से सफाई कर्मचारी निकलता है और वापस से उसमें ही अंदर चला जाता है, मैला पानी, फिर शांत हो जाता है। शायद इसी तरह फिल्म के सवाल फिल्म के साथ ही दब जाएंगे।
फिल्म से मुझे शिकायत रही कि फिल्म का नायक जातिगत व्यवस्था से परेशान तो है लेकिन वह भी अपनी जाति को त्यागने का कोई प्रयत्न नहीं करता है। फिल्म में कई जगह समाज की जातिगत व्यवस्था से सहमति दिखती है।
द रम डायरी
फिल्म रम डायरी, 1960 के दशक को दिखाती है, जहां समाज का मुख्य अमीर वर्ग, अखबार की कलम के सहारे किस तरह समाज के नागरिकों का वैचारिक दृष्टिकोण बदल रहा है, फिल्म इसका एक पुख्ता उदाहरण देता है। मसलन सरकार को अगर 5% टैक्स बढ़ाना है, तो वह मीडिया के संदर्भ से 10% टैक्स बढ़वाने की एक सोची समझी अफवाह का फैलाव करता है, जहां नागरिकों के गुस्से की वजह से सरकार 5% टैक्स बढ़ोतरी को मान्य करती है, वहीं समाज के नागरिकों को यह लगता है कि जीत उसकी हुई है। जबकि वास्तव में जीत सरकार की होती है।
इन तीनों फिल्मों ने कुछ कमियों के बावजूद अलग-अलग मुद्दे को उठाया है, इसलिए ये फिल्में देखे जाने की ज़रूरत है।