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कई क्रांतियों की नींव बन सकता है अंतरजातीय विवाह

यह लेख मैं अपने अनुभवों और अपने कुछ मित्रों के साथ हुई चर्चा के आधार पर लिख रहा हूं। मेरे लिए यह परेशान करने वाली बात है कि आज के दौर में जहां आधुनिकता जीवन के हर पहलू पर असर डाल चुकी है, वहीं विवाह में धर्म और जाति का बंधन अभी भी कट्टरता के साथ बरकरार है। शोधकर्ता गौरव चिपलूनकर द्वारा ट्विटर पर दिए गए अपने लेख के संक्षिप्त विवरण से पता चलता कि शहर और गाँव के भेद से परे भारत में 90% से अधिक शादियां माता-पिता द्वारा तय की जाती हैं और समान जाति में होती हैं।

लोगों को बदलनी होगी अपनी मानसिकता

सबसे पहला कारण तो यह है कि जिन व्यक्तियों को विवाह करना है, वे स्वयं ही अपनी मानसिकता को नहीं बदल पाए हैं। निश्चित ही यह आसान तो नहीं है मगर जब वे स्वयं ही किसी आंतरिक परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं, तो परिवार और समाज की रूढ़ियों को तोड़ने का साहस उनमें कैसे आ पाएगा? यहां तक कि शिक्षित युवतियां और युवक भी विवाह को लेकर रूढ़िवादी विचार रखते हैं। संभवतः इसके कारण परिवार और समाज से मिले पूर्वाग्रह होते हैं। यह उनकी प्राप्त की हुई शिक्षा की असफलता भी है।

संतानों को अपना प्रबंधन खुद करने की आज़ादी होनी चाहिए

फोटो प्रतीकात्मक है।

दूसरा कारण होता है माता-पिता का अपनी संतानों के जीवन को किसी प्रबंधन कार्य की तरह देखना, इसमें उनकी कोई दुर्भावना नहीं छिपी होती है पर किसी वयस्क व्यक्ति के जीवन का प्रबंधन करना भी है तो उन्हें स्वयं करना चाहिए। माता-पिता की भूमिका सलाहकार की तो हो सकती है पर यदि वे अपनी संतानों के जीवन के कार्यकारी निदेशक बनना चाहें तो यह अन्याय होगा।

संभवतः माता-पिता के विचार में समान जाति और परिचित परिवार में अपनी संतानों का विवाह करने से उनके जीवन पर कुछ हद तक नियंत्रण बरकरार रखा जा सकता है। इसमें पितृसत्ता का बहुत बड़ा प्रभाव रहता है। यही तीसरा और सबसे बड़ा कारण है, जो अंतरजातीय विवाहों की राह में अड़चन बनता है। स्त्रियों के मामले में स्थिति और भी खराब है, उनकी पहचान, सामाजिक स्तर, लैंगिकता, यहां तक कि उनका व्यक्तित्व भी मानो पिता या होने वाले पति के पास गिरवी रखा हो।

पुरुषों के मामले में भी पितृसत्ता ही आड़े आता है। जब दो व्यक्तियों का विवाह होता है, तो दोनों के समान अधिकार होने चाहिए और दोनों को अपने जीवन के विषय में निर्णय लेने की स्वतंत्रता होनी चाहिए मगर सामान्य विवाहों में तो स्त्रियों की सोच और उनकी भावनाओं की कोई महत्ता नहीं होती है। ऐसा माना जाता है कि वे ब्याह कर अपने पिता के घर से पति के घर जा रही होती हैं। उनके अपने घर की कोई संकल्पना ही नहीं होती है। अंतरजातीय विवाह में पितृसत्ता की जड़ पर चोट करने की क्षमता है। यही कारण है कि ऐसे विवाहों का इतना पुरज़ोर विरोध होता है।

सामाजिक डर आज भी बना हुआ है

चौथा कारण है सामाजिक डर। इसे दुर्भाग्य कहना चाहिए कि हमारी सामाजिकता पाखंड पर आधारित है, जहां लोगों में जन्म से ही भेद किया जाता हो, वहां न्याय और सौहार्द का वास हो सकता है भला? कहने के लिए तो वसुधैव कुटुम्बकम का नारा है लेकिन हकीकत में जातियों में भी उप जातियां हैं। यह स्पष्ट है कि हमारे समाज में सामाजिकता तो नहीं है और यही कारण है कि समाजिक डर है।

डर है बहिष्कार का, हिंसा का और छद्म सम्मान के खो जाने का। यदि पुत्र ने अंतरजातीय विवाह किया तो पुत्री के विवाह में अड़चन पैदा होने का डर है। लोगों की तर्कसंगत सोच और उनके चुनाव का रूढ़ियों के आधार पर अनादर करना कैसी सामाजिकता है?

अंतरजातीय विवाहों से लगता है सांस्कृतिक धक्का

पांचवा और आखिरी कारण है सांस्कृतिक धक्का लगना, क्योंकि हमारी सामाजिकता संप्रदाय और जाति से सीमित है इसलिए बहुतायत समाज ना तो अपने संप्रदाय और ना ही अपनी जाति के बाहर ज़्यादा परिचय बढ़ाता है। ऐसे में यदि परिवार में कोई अंतरजातीय विवाह कर ले तो सांस्कृतिक संवेदनाएं आहत होने लगती हैं। फिर वह चाहे नव-विवाहित स्त्री या पुरुष का पहनावा हो, बोल-चाल का तरीका हो, खान-पान हो सबकुछ खटकता है। यह दंश भी स्त्री को ही अधिक झेलना पड़ता है।

अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि अंतरजातीय विवाह का प्रश्न हमारी आंतरिक, सामाजिक, और राजनीतिक चेतना के परिवर्तन से जुड़ा हुआ है। एक स्तर पर यह प्रश्न दो व्यक्तियों के एक साथ जीवन जीने के चुनाव का साधारण प्रश्न है मगर गहरे उतरने पर पता चलता है कि इसमें बहुत-सी क्रांतियों के अंकुर भी छिपे हुए हैं।

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