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पिछले 10 सालों में सूख चुकी हैं भारत में 4500 नदियां

सूख चुकी नदी की तस्वीर

सूख चुकी नदी की तस्वीर

जल उन प्राकृतिक संसाधनों में से एक है, जो जीवन प्रदान करता है और इसलिए कहा भी जाता है कि जल है, तो जीवन है। जल नहीं तो जीवन नहीं की धारणा प्राचीन समय से चली आ रही है। जिन पांच तत्वों से मिलकर इस सृष्टि की रचना हुई, उनमें जल भी है परन्तु इस प्राकृतिक संसाधन का आज इतना दोहन किया गया कि विश्व के ज़्यादातर देश जल संकट से जूझ रहे हैं।

इसमें भारत, अमेरिका, चीन और थाईलैंड जैसे देश भी शामिल हैं। व्यक्ति बहुमूल्य आभूषण, आलिशान मकान और उपभोग की वस्तुओं के बिना तो जीवित रह सकता है परन्तु यदि जल ही नहीं होगा, तो वह अनाज कैसे उगाएगा और जीवन की अन्य आवश्कताओं की पूर्ति कैसे होगी?

2050 तक देश की जीडीपी को 6 प्रतिशत का नुकसान होगा

जल को साझा सम्पति के रूप में देखा जाता है। एक व्यक्ति अथवा समूह द्वारा किया जाने वाला जल दोहन सभी जीव-जन्तुओं पर एक समान रूप से प्रभाव डालता है। बशर्ते किसी को इसका आभास पहले हो जाता है, तो किसी को बाद में होता है। ओआरएफ की रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि 2050 तक जल संकट की वजह से देश की जीडीपी को 6% का नुकसान होगा।

यह सभी बातें जल के महत्त्व को बखूबी स्पष्ट करता है। आज जब हम किसी ग्रह पर जाने की बात करते हैं, तो सर्वप्रथम वहां पानी के तत्व की ही तलाश करते हैं। पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है, जहां जल पर्याप्त मात्र में उपलब्ध है। पृथ्वी पर यदि कुल जल की बात की जाए तो 75.2% ध्रुवीय प्रदेशों में बर्फ के रूप में विद्यमान है।

कुल पानी का मीठा जल 2.7% है, जिसमें से केवल ०.4% पानी ही भारत प्रयोग करता है। इसके अलावा 22.6% भूगर्भ है। अन्य शेष जल झीलों, नदियों, वायुमंडल, नमी, मृदा और वनस्पतियों में मौजूद है।

केवल जल प्रबंधन ही एक मात्र ऐसा तरीका है, जिससे विश्वभर में उभरते जल संकट की समस्या से निजात पाया जा सकता है। पर्यावरणविदों और अर्थशास्त्रियों का मानना है कि हमें जल प्रबंधन के लिए परम्परागत तकनीक का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि इससे पर्यावरण को किसी प्रकार हानि भी नहीं होगी और जल संरक्षण भी आसानी से हो सकेगा।

रेन वॉटर हार्वेस्टिंग। फोटो साभार: Getty Images

जल प्रबंधन के लिए हमें इज़रायल और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से सबक लेने की ज़रूरत है, जहां का जल स्तर भारत के मुकाबले बहुत कम मापा गया है, फिर भी वहां जल संरक्षण के लिए उन्नत तकनीक का प्रयोग करके जल संकट से बचने का प्रयास किया जा रहा है।

भारतीय परिवेश में ही नहीं, अपितु विदेशों में भी जल संकट को प्रदर्शित करने के लिए कई फिल्में तथा कुछ वेब सीरीज़ बनाई गई हैं, जिसमें जल संकट को चित्रित करने की कोशिश की गई है। इनमें Leila जैसी वेब सीरीज़ भी शामिल हैं।

पानी का मानव जीवन में ही नहीं, अपितु समस्त जीव-जंतु के दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों में विशेष महत्त्व है फिर ऐसा क्या हुआ जो आज पूरा विश्व जल संकट से जूझ रहा है। इन्हीं सभी सवालों के जवाब हम ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे।

जल संकट से क्यों जूझ रही है विश्व की ज़्यादातर आबादी?

सबसे पहले प्रश्न यह उठता है कि जब जल ही जीवन का आधार है और इसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, तो विश्व की ज़्यादातर आबादी आज जल संकट से क्यों जूझ रही है? जल ने ही मानव सभ्यता को शरण दी और मानव की कितनी ही पीढ़ियों का लालन-पालन जल से हुआ।

समाज और राज्य द्वारा जल संरक्षण के लिए विभिन्न प्रकार की नीतियां बनाई गई फिर यह जल संकट कैसे उत्पन्न हो गया? क्या इस जल संकट का ज़िम्मेदार स्वयं मानव है?

जल संकट का तात्पर्य जल के स्तर में आई कमी से लगाया जाता है, जिसमें निर्धारित जल की आपूर्ति नहीं हो पाती है और लोग एक-एक बूंद जल के लिए मजबूर हो जाते हैं या आवश्कता के अनुपात में पर्याप्त मात्रा में जल का उपलब्ध ना हो पाना जल संकट कहलाता है।

फोटो साभार: Getty Images

जल संकट के लिए ज़िम्मेदार कारखानों तथा नगरों से निकलने वाले सीवेज अथवा नालों द्वारा लाइव संशोधित जल-मल, घाटों पर
श्रद्धालुओं द्वारा प्रयोग की जाने वाली पूजन सामग्री, जलाई गई चिताओं की राख, संयोजित बस्तियों का अभाव और नियोजित जल निकास के अभाव तथा कूड़ों के प्रबन्ध का अभाव भी शामिल है।

प्लास्टिक के कचरे जिनमें बहुतायत मात्रा में ई-कचरा, रासायनिक पदार्थ, नदी पर बने बांध, जनसंख्या वद्धि, वनों की कटाई, नगरीकरण, औद्योगिकीकरण, लोगों द्वारा स्नान करते समय प्रयोग में लाए जाने वाले डिटरजेंट, साबुन, शवों का नदियों में विसर्जन, मृतक पशुओं को नदियों में फेंकना, औद्योगिक कारखानों से निकलने वाले दूषित जल, खुले में शौच, ड्रिप बोरवेल, ट्यूबवेल से पानी का इस्तेमाल, सबमसिर्बल पम्प का घरेलू कार्यो में प्रयोग, नदियों, तालाबों, झरनों को पाटा जाना, अवैध खनन और जल की फिज़ूल खर्ची जैसी चीज़ें भी जल संकट के लिए ज़िम्मेदार हैं।

आखिर पर्यावरण का दोहन क्यों?

पर्यावरण का हद से अधिक दोहन जिसकी वजह से ग्लोबल वॉर्मिंग, सरकार एवं प्रशासन का निराशाजनक व्यवहार, भारत में सरकार द्वारा पाइप लाइन के मध्यम से लोगों तक भेजी जाने वाली पानी का पाइप लाइन खराब होने के कारण जल का बर्बाद हो जाना और अधिकरण इत्यादि।

फोटो साभार: Getty Images

आज विश्व की 400 करोड़ आबादी जल संकट से जूझ रही है, जिनमें से 100 करोड़ भारतीय हैं। 2018 में दुनियाभर में जल संकट से जूझ रहे शहरों की सूची में शीर्ष पर चेन्नई के अलावा दूसरे स्थान पर कोलकाता तथा तीसरे पर तुर्की का शहर इस्तांबुल है। चौथे नंबर पर चीन का चेदगू, पांचवें पर थाईलैंड का बैंकाक, 6ठे स्थान पर  ईरान का तेहरान, सातंवे पर इंडोनेशिया का जकार्ता, आठवें पर अमेरिका का लॉस एंजेलिस, 9वें पर चीन का तिआंजिन और सबसे अंतिम पायदान पर मिश्र की राजधानी काहिरा।

भारत की बात करें तो चेन्नई, कोलकत्ता, मुम्बई और हैदराबाद शीर्ष पर हैं। भारत में 2030 तक 40% आबादी को भी पीने के लायक साफ पानी नहीं मिल पाएगा।

भारत की 4500 नदियां सूख चुकी हैं। करीब 20 लाख तालाब, कुएं और झील लुप्त हो गए। उत्तर प्रदेश में पिछले सात सालों में 77 हज़ार कुएं सूख गए। बिहार में 4.5 लाख हैडपंप सूख गए। भारत में 70% आबादी प्रदूषित जल पीने के लिए विवश है। भारत में 33 करोड़ लोग प्रत्येक वर्ष सूखे में रहने के लिए मजबूर हैं।

जल संकट से बचने के कुछ ज़रूरी सुझाव-

इस प्रकार हमने देखा और समझा कि जल संकट क्या है और इसके कारक क्या हैं तथा जल संकट क्यों उत्पन्न होता है। हम यह भी जान पाएं कि यह कैसे मानव ही नहीं, बल्कि समस्त जीव जंतुओं को भी प्रभावित करता है।

फोटो साभार: Getty Images

निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि हमें अभी भी जल के महत्व को समझना चाहिए, क्योंकि जल एक साझा सम्पत्ति है, जो पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान देती है। हमें यह भी समझना होगा कि जल, वायु और ज़मीन का आपस में घनिष्ट सम्बन्ध होता है। किसी एक में आई अनियमित्ता दूसरे को प्रभावित करती है।

यदि इनमें असंतुलन बना रहेगा तो इसका खामियाज़ा सबको एक समान रूप से या अधिक भुगतना पड़ सकता है। उदाहरण के तौर पर विभिन्न प्रकार की बीमारियां हो सकती हैं। जलीय जीवों में बदलाव देखा जा सकता है इसलिए यह आवश्यक है कि जल संरक्षण में अपना योगदान देकर जीवन को बचाने में सहयोग प्रदान करें।

अन्यथा देरी मानव ही नहीं, समस्त जीव-जंतुओं के लिए काल बनकर उसे निगल जाएगी। मनुष्य ने अपना विनाश स्वयं चुना है परन्तु उसका खामियाज़ा मनुष्य के साथ-साथ समस्त जीव-जन्तुओं को भी भुगतना पड़ेगा।

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