भारत जैसे सेक्युलर देश में क्या अब सब कुछ मज़हब के नाम पर तय हो जाएगा? यह सवाल तब और प्रासंगिक हो जाता है, जब देश में जनसंख्या नियंत्रण से लेकर मॉब लिंचिंग तक के मामलों में विशेष समुदाय को निशाना बनाया जाता है। कुछ दिन पहले CSDS द्वारा जारी एक ताज़ा रिपोर्ट में भी कुछ ऐसी ही बातें निकलकर सामने आईं।
रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 50% पुलिसवाले यह मानकर चलते हैं कि मुसलमानों का स्वाभाविक तौर पर अपराध की ओर झुकाव होता है। मैं हैरान हूं यह सोचकर कि किसी पुलिसवाले को ऐसा कैसे लग सकता है?
भारत में मुसलमानों की आबादी महज़ 19.4 प्रतिशत है। ऐसे में 50 प्रतिशत पुलिसवालों के ज़हन में यदि ऐसे पूर्वाग्रह स्थापित होने लग जाएं, फिर तो स्थिति भयावह होगी। ऐसी परिस्थिति में समाज के तौर पर हम किसी भी जांच अधिकारी से निष्पक्ष जांच की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
14% पुलिसवालों का यह भी मानना है कि किसी भी अपराध में मुस्लिम ज़रूर जुड़े होते हैं, जबकि 36% पुलिसवालों का मानना है कि किसी भी अपराध में कहीं ना कहीं मुसलमानों की संलिप्तता होती है। कानूनी व्यवस्था में रहते हुए अगर आप किसी समुदाय के प्रति ऐसी सोच रखते हैं, फिर तो यह कहना गलत नहीं होगा कि आपके पूर्वाग्रह देश के लिए घातक हैं।
CSDS द्वारा देशभर के 12 हज़ार पुलिसकर्मियों से बातचीत के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गई है। इस रिपोर्ट को हम नकार भी नहीं सकते हैं, क्योंकि 12,000 कोई छोटी संख्या नहीं होती है।
इस रिपोर्ट में 72% पुलिसवाले मानते हैं कि किसी भी मामले की जांच में उन्हें राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ता है। इस बात से यह स्पष्ट है कि पुलिस व्यवस्था में स्वतंत्रता नाम की कोई चीज़ ही नहीं है।
इस स्थिति में सामाजिक संगठनों की भी ज़िम्मेदारी है कि पुलिस और मुस्लिम समुदाय के बीच बेहतर संचार कामय करने की कोशिश करें। पुलिसकर्मियों द्वारा बेहतर कार्य करने पर उन्हें प्रोत्साहित किया जाना भी ज़रूरी है। आखिर पुलिसवालों के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत क्यों है?
क्या इसके पीछे की वजह वह समाज तो नहीं, जहां से तमाम पुलिसवाले प्रशासनिक सेवा में आते हैं। हमें इन चीज़ों पर मंथन करने की ज़रूरत है। यदि हम ऐसा करने में सफल नहीं होते हैं, तब वह दिन दूर नहीं जब अल्पसंख्यक समुदाय के पास डर के अलावा कुछ भी नहीं होगा।
पूर्वाग्रहों को तोड़ने के क्रम में हम तमाम तरह की बातें करते हैं मगर प्रशासनिक सेवा में बैठे लोग ही इसकी धज्जियां उड़ाते दिखाई पड़ रहे हैं। मैं देश के तमाम पुलिसवालों से गुज़ारिश करता हूं कि वे सोच के दायरे को सकारात्मक बनाएं।