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कविता: “यहां उलझे पड़े हैं सब, जालों में मकड़ियों के”

फोटो साभार- Flickr

फोटो साभार- Flickr

यहां उलझे पड़े हैं सब

जालों में मकड़ियों के,

छतों को हटाकर ढूंढ रहे शहद

दरवाज़ों में, खिड़कियों में।

 

कैसा यह अदभुत शहर है

पत्थर बंधे हैं और कुत्ते खुले हैं,

नैतिकता की बातें तो

यहां बस पानी के बुलबुले हैं।

 

आकाश है पावों के नीचे

धरा भार माथे पर है धरा,

भाग रही भेड़ें सब आंखें मीचे

खुली आंखों से है कुंआ भरा।

 

सच झूठ है और झूठ है सच

माथे पर चप्पलें हैं और पग में पग,

आंखों से सुना है हमने, कानों से है देखा सच

अणु-अणु कपट विजयी है, बच सके तो बच।

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