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“इतिहास से खिलवाड़ करती एक साज़िश है अक्षय कुमार की फिल्म केसरी”

अक्षय कुमार

अक्षय कुमार

श्रीमान अक्षय कुमार,

लगभग एक महीने पहले आपकी केसरी फिल्म देखने का मौका मिला। यह तो कह ही सकता हूं कि फिल्म पर अच्छी मेहनत की गई है। लोकेशन और ड्रेसिंग भी ज़बरदस्त है। आपकी कलाकारी ने तो फिल्म में चार चांद ही लगा दिए हैं। शायद इसी फिल्म के लिए आपने यह कला सीखी थी।

मैंने आपकी दर्ज़नों फिल्में देखी है लेकिन आपकी सबसे बेहतरीन कला इस फिल्म में देखने को मिली। कलाकार के नाम पर आपको पांच स्टार मिलने ही चाहिए। जब केसरी का ट्रेलर लॉन्च हुआ था, तब बड़ी उत्सुकता थी कि फिल्म के माध्यम से जनता को क्या संदेश दिया जाएगा।ऐसी अपेक्षा का कारण यह था कि फिल्म एक ऐतिहासिक घटना पर बन रही थी।

इतिहास के साथ खिलवाड़

फिल्में दो तरह की होती हैं, कहानी पर आधारित और इतिहास की सच्ची घटनाओं पर आधारित। कहानी पर आधारित फिल्मों में अपनी मर्ज़ी के मुताबिक कुछ भी दिखाया जा सकता है। कल्पनाओं के घोड़े जितने दौड़ाना चाहो, उतने दौड़ाए जा सकते हैं। उसमें किसी कम्युनिटी को हीरो और किसी कम्युनिटी को विलेन बना सकते हैं, जैसे ‘गदर’ फिल्म में भारत का हीरो ‘तारा सिंह’ अकेले पूरी पाकिस्तानी फौज को खदेड़ देता है। फौज हार जाती है, तारा सिंह जीत जाता है और फिल्म सुपरहिट हो जाती है।

ऐसी अनेक फिल्में नफरत के कारोबार को बढ़ाने के लिए बनाई गई हैं। फिल्मकार बड़े ही शातिर दिमाग से पड़ोसी मुल्क को नीचा दिखाकर अपने लोगों को अंधराष्ट्रवाद की तरफ ले जाते हैं। फिल्मकार द्वारा एक खास विचार से प्रेरित होकर एक खास मकसद के लिए यह सब किया जाता है।

फोटो साभार: Twitter

वहीं, दूसरी तरफ ऐसे भी कई फिल्मकार हैं जो अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ बिगुल बजाते हैं। वीर ज़ारा जैसी बेहतरीन फिल्में भी बनती हैं, जो नफरत के कारोबार से ऊपर उठकर नफरत को हराने की बात करती है। अगर इतिहास से खिलवाड़ करके उसके विपरीत फिल्म बनाई जाए, तो यह एक भयंकर साज़िश भी है।

ऐसी ही साज़िश मुझे केसरी फिल्म देखकर महसूस हुई। इसलिए बड़े ही गुस्से से आपको यह खुला पत्र लिख रहा हूं। इतिहास से खिलवाड़ करने के लिए आने वाली नस्लें आपको कभी माफ नहीं करेगी। वह आपसे सवाल करेगी कि कैसे देश के लिए लड़ने वाले योद्धाओं को आपने विलेन बना दिया।

बड़ी चतुराई और शातिराना दिमाग से इस ऐतिहासिक घटना को आपने धर्म का चोला पहनाकर धार्मिक रंग दे दिया। इस पूरी लड़ाई को क्रांतिकारी बनाम अंग्रेज़ी सत्ता की जगह आपकी फिल्म ने मुस्लिम बनाम सिख दिखाया है। मुझे लगता है कि अगर ऐसे ही इतिहास के साथ खिलवाड़ चलती रही, तो वह दिन दूर नहीं जब जलियांवाला बाग नरसंहार को अच्छा दिखाया जाएगा, सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों को मारने वाले ब्रिटिश आर्मी में तैनात भारतीय जवानों को हीरो दिखाया जाएगा।

मध्य भारत के आदिवासियों का नेतृत्व करने वाले बिरसा मुंडा, चटगाँव के विद्रोहियों और अपनी जान की कुर्बानी देने वाले लाखों क्रांतिकारियों को विलेन और इनकी हत्या करने वाले ब्रिटिश सैनिकों को हीरो दिखाया जाएगा।

सारागढ़ी का इतिहास और केसरी फिल्म

सारागढ़ी अंग्रेज़ सरकार की एक महत्वपूर्ण पोस्ट थी, जिस पर सिख रेजिमेन्ट के 21 जवानों की तैनाती थी। यह ऐतिहासिक युद्ध सन् 1897 में हुई थी। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि भारतीय जनता द्वारा अंग्रेज़ों के खिलाफ 1857 का महान विद्रोह हो चुका था। सारागढ़ी के युद्ध में 21 सिख सैनिक, अंग्रेज़ सरकार की तरफ से लड़ते हुए भारतीय क्रांतिकारी ताकतों के हाथों मारे गए।

इस लड़ाई में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने वाली जनता में वहां के अफरीदी आदिवासी और पठान शामिल थे, जो बड़ी तादाद में शहीद हुए। इन शहीदों की याद में फिल्म बननी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य है कि इसके विपरीत इन शहीदों के खिलाफ फिल्म बनी है और इन शहीदों को विलेन दिखाया गया है।

फोटो साभार: YouTube

पूरी फिल्म में कहीं भी आभास नहीं होने दिया गया कि अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ लड़ने वाले ये क्रांतिकारी हैं, जो जल, जंगल और ज़मीन को बचाने और गुलामी की बेड़ियां तोड़ने के लिए लड़ रहे हैं। इसके विपरीत यह दिखाया गया कि अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ लड़ने वाले लोग वहशी धार्मिक दरिंदे हैं।

ये लोग मुस्लिम धर्म के लिए लड़ रहे हैं, ना कि देश के लिए। इनका नेतृत्व करने वाला धार्मिक तालिबानी नेता है, जो महिलाओं पर अत्याचार करता है। क्रांतिकारियों को वहशी और तालिबानी साबित करने के लिए फिल्मकार ने फिल्म में कई सीन डाले हैं।

एक सीन में दिखाया गया है कि 10 हज़ार क्रांतिकारी अंग्रेज़ी सेना से लड़ने आते हैं। वे सारागढ़ी के मैदान में आकर सरेआम एक महिला की गर्दन कलम कर उसका कत्ल कर देते हैं, क्योंकि उस महिला ने मुस्लिम धर्म के किसी नियम का उल्लघंन किया था। महिला की मौत पर हज़ारों क्रांतिकारी खुशियां मनाते दिखाए गए हैं। फिल्मकार ने ऐसे कई काल्पनिक दृश्यों के माध्यम से इनको दरिंदा और तालिबानी साबित करने की पुरज़ोर कोशिश की है।

फिल्म के संवाद भी बहुत कुछ बोलते हैं

सारागढ़ी का युद्ध सिखों के खिलाफ था या अंग्रेज़ों के खिलाफ?

फिल्मकार द्वारा केसरी फिल्म एक राजनीतिक साज़िश के तहत बनाई गई है। इस साज़िश का अहम हिस्सा आप हैं, क्योंकि एक कलाकार ही अपनी कला के माध्यम से किसी भी कहानी के पात्र को जीवंत करता है। आपने भी अपनी कला के माध्यम से इतिहास के साथ की गई गड़बड़ी में अहम भूमिका निभाई है।

इस पूरी फिल्म में जिन शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, वह एक भयंकर साज़िश की तरफ इशारा करता है। इस फिल्म को सिख धर्म के साथ जोड़कर उनकी भावनाओं को कैश किया गया है। सिख धर्म के झंडे के इस्तेमाल की बात हो या सिख गुरुओं की अनमोल वाणियों की बात हो, उन सबको अपने आर्थिक और साम्प्रदायिक फायदे के लिए इस फिल्म में इस्तेमाल किया गया है। इस बात का व्यापक विरोध होना चाहिए।

एक खास फासीवादी राजनीतिक विचारधारा को फायदा पहुंचाने के लिए इस फिल्म का निर्माण किया गया है। इसी फायदे के लिए इस फिल्म की रिलीज़ की तारीख भी आचार संहिता के वक्त तय की गई।

चाहे वह किसी भी कौम का हो और कितना भी बहादुर हो लेकिन मैं ऐसे किसी भी ईश्वर सिंह को महान योद्धा नहीं मानूंगा जिसने अपनी बहादुरी साम्राज्यवाद की गुलामी की बेड़ियां तोड़ने में ना लगाकर, बेड़ियों को और ज़्यादा मज़बूत करने में लगाई हो।

महान और बहादुर योद्धा

महान योद्धा वे सैनिक नहीं थे, जिन्होंने अंग्रेज़ सरकार की गुलामी की बेड़ियां पहनकर जन विद्रोह को कुचलने में अपनी बहादुरी दिखाई। महान और बहादुर योद्धा 1857 के महान विद्रोह के विद्रोही, गदर पार्टी के हज़ारों सिख योद्धा, सारागढ़ी के आदिवासी और पठान, बिरसा मुंडा, चटगाँव के महान क्रांतिकारी सूर्यसेन, भगत सिंह, आज़ाद, लक्ष्मी बाई और लाखों विद्रोही थे।

इन्होंने विश्व की उस साम्राज्यवादी ताकत के खिलाफ लड़ाई लड़ी जिनका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। ऐसे बहादुर योद्धाओं को सलाम। आप और आपकी साम्प्रदायिक विचारधारा इतिहास को बदलने के लिए चाहे जितना ज़ोर लगा ले लेकिन आप उस खून को मिटाने में कामयाब नहीं होंगे, जो आज़ाद हवा के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए।

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