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“निराश समय में अमृता प्रीतम को पढ़ना सूरज की रौशनी को छूने जैसा था”

कभी-कभी जब जीवन बेहद निराश लगने लगती है, तब आप अपनी छवि किसी-ना-किसी व्यक्तित्व में ढूंढने लगते हैं और उनसे जुड़ाव महसूस करने लगते हैं। कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ, जब मैंने अमृता प्रीतम को पढ़ा।

मेरे जीवन में अनेक परेशानियां थीं, तब मेरे एक करीबी दोस्त ने मुझे अमृता की कुछ कविताएं भेजीं। उनमें से एक कविता का शीर्षक था “सिगरेट” और दूसरा “मैं तुझे फिर मिलूंगी”।

अमृता प्रीतम। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

इन दोनों कविताओं को पढ़ने के बाद अमृता से मेरा लगाव बढ़ता गया। चूंकि मुझे भी लिखना और पढ़ना पसंद है इसलिए यह लगाव बढ़ता ही गया और इसी क्रम में मैंने उनकी आत्मकथा “रसीदी टिकट” पढ़ी। मेरे लिए अमृता के लिए लिखने का मतलब है, हवा को मुट्ठी में कैद करना और सूर्य की रौशनी को छूना।

माँ की मौत ने तोड़ दिया था

सदियों से अमृता हर साहित्य प्रेमी के दिलों पर राज करती रही हैं। उनका जन्म 31 अगस्त 1919 को पाकिस्तान के गुजरांवाला में हुआ था लेकिन उनका बचपन लाहौर में बिता था। उनकी माँ का नाम राज तथा पिता का नाम नन्दसाधू था। वह अपने माँ-बाप की अकेली संतान थीं। बचपन में ही उनकी माँ का देहांत हो गया था। जिसके बाद उनके पिता विरक्त हो गए और उनके पिता का भगवान पर से भरोसा ही उठ गया। जिसके बाद उनका लालन-पालन उनकी नानी ने किया।

अमृता भी कहीं-ना-कहीं यह मानने लगी थीं कि भगवान नहीं होते हैं। जब उनकी माँ मृत्यु के निकट थीं तब उन्होंने भगवान से कहा था “माँ को ठीक कर दो”, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि ऊपर वाला बच्चों की हर बात सुनता है लेकिन उनकी माँ की मृत्यु हो गई और अमृता को लगने लगा कि ईश्वर बच्चों की भी नहीं सुनता।

बचपन से ही गलत के खिलाफ उठाई आवाज़

अमृता बचपन से ही गलत के खिलाफ बोला करती थीं। एक बार जब उन्हें पता चला कि उनकी नानी मुस्लिम या अन्य जातियों के लिए अलग-अलग बर्तन रखा करती हैं, तो उन्होंने भी ज़िद पकड़ ली थी कि वह भी इन्हीं बर्तनों में खाना खाएंगी और चाय पिएंगी।

इसके बाद उनकी नानी ने बर्तनों को अलग रखना बंद कर दिया था और उनकी इस लड़ाई में अमृता के पिता ने भी उनका साथ दिया था। अमृता उस वक्त के बारे में लिखती हैं,

बड़े होकर ज़िंदगी के कई बरस जिससे इश्क करूंगी वह उसी मज़हब का होगा, जिस मज़हब के लोगों के लिए घर के बर्तन भी अलग रख दिए जाते थे। होनी का मुंह अभी देखा नहीं था पर सोचती हूं, उस पल कौन जाने उसकी ही परछाई थी, जो बचपन में देखी थी।

बंटवारे का दर्द और कविताओं की शुरुआत

वर्ष 1947 के भारत-पाक बंटवारे को उन्होंने बहुत करीब से देखा और महसूस किया था। अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में उन्होंने लिखा है कि उनके शब्दों में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मूल्य कांच की तरह टूट गए थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में बिछ गई थीं। उस समय ही उन्होंने अपने दर्द को बयां करते हुए “आज आखां वारिस शाह नु” कविता लिखी थी। उस समय वह अपने जीवन के सोलहवें साल में थीं और उनके युवा मन में इन रिश्तों की तपिश इतनी अधिक महसूस हुई कि उन्होंने कविताएं लिखना शुरू कर किया।

अकेलेपन में कलम का साथ

वर्ष 1936 में उनका विवाह हुआ था परन्तु उन्हें वैवाहिक सुख कम मिला। उन्हें लगता था कि वह एकदम अकेली हैं और उसी अकेलेपन में उन्होंने कलम को थाम लिया। उन्होंने एक कवि और लेखक के रूप में पंजाबी भाषा में गद्य और पद्य दोनों में रचनाएं लिखी हैं। उनके प्रिय विषय हैं कविता, उपन्यास और कहानी। उन्हें पंजाबी भाषा की पहली कवियत्री माना जाता है। उन्होंने 100 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं और उनकी कृतियों का अनुवाद कई भाषाओं में हुआ है।

रसीदी टिकट में दर्ज़ हैं कई दास्तां

अमृता प्रीतम और इमरोज़। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

अमृता ने अपनी आत्मकथा में साहिर लुधियानवी से इश्क पर लिखा है, जब साहिर अमृता के घर आते थे, तब वह सिगरेट पीया करते थे और उसकी महक पूरे घर में फैल जाया करती थी। साहिर उन अधजले सिगरेट को वहीं पर छोड़कर चले जाया करते थे, तब अमृता उन सिगरेट को उठाकर अपनी अलमारी में रख लिया करती थीं और वह उन अधजले सिगरेट को उसी तरह पकड़ने की कोशिश किया करती थीं, जिस तरह साहिर उसे पकड़ा करते थे।

इसे बेइंतहां मोहब्बत ही तो कहेंगे लेकिन अमृता का दिल उस वक्त टूट गया, जब एक अखबार में उन्होंने यह खबर पढ़ी कि साहिर की ज़िंदगी में नई मोहब्बत आ गई है। साहिर ने कभी भी अमृता के प्यार को नहीं कबूला लेकिन वह अक्सर अमृता को यह जताते थे कि वह उनसे प्यार करते हैं।

जब मिला इमरोज़ का साथ

अमृता जब साहिर से प्रत्यक्ष रूप से अलग हो गईं तो वह मानसिक रूप से थोड़ी बैचेन हो गई थीं। जिस कारण उन्हें एक मनोचिकित्सक से मिलना पड़ा था। एक रोज़ जब वह अपने किताब के कवर के लिए ऑफिस गई थीं तो वहीं उनकी मुलाकात इमरोज़ से हुई। इमरोज़ ने अमृता के माथे पर लाल रंग से एक बिंदी बना दी थी और कहा था, “आप बिंदी में बेहद खुबसूरत लगती हैं”। जिसके बाद धीरे-धीरे दोनों के बीच नज़दीकियां बढ़ती गईं। अमृता की ज़िंदगी में खुदा का नायाब तोहफा थे इमरोज़, जिसके साथ अमृता ने अपने कई वर्ष बिताए थे।

इमरोज़ की वह एक प्याली चाय रखकर जाना

इमरोज़ के लिए अमृता अपनी आत्मकथा में लिखती हैं, तुम मुझे ज़िंदगी की दोपहर में क्यों नहीं मिले? इमरोज़ यह जानते थे कि अमृता के लिए साहिर को भुलाना नामुमकिन है लेकिन वह फिर भी अमृता को चाहते थे। अमृता और इमरोज़ एक ही छत के नीचे कई सालों तक रहें। अमृता जब रात को उठकर लिखा करती थीं, तो इमरोज़ उनके लिए चाय की प्याली रखकर चुप-चाप चले जाया करते थे। उनके बीच में एक खामोश मोहब्बत थी। अमृता और इमरोज़ के एक-दूसरे को लिखे खत “दस्तावेज़” नाम की किताब में दर्ज़ हैं।

इमरोज़ के लिए इश्क इबादत जैसी थी। उनके लिए अमृता ने लिखा है-

मैं तुझे फिर मिलूंगी 

कहां, कैसे पता नहीं 

शायद तेरी कल्पनाओं की प्रेरणा बनकर 

तेरे कैनवास पर उतरूंगी 

मैं तुझे फिर मिलूंगी।

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नोट- लेख में प्रस्तुत बातें अमृता प्रीतम की आत्मकथा “रसीदी टिकट” से ली गई हैं।

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