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“मैं अमानवीय कृत्यों को उचित ठहराने वाले राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं करता”

लोकतांत्रिक देशों में दक्षिणपंथी विचारधारा के पनपने और महामारी की तरह फैलने में Whataboutery एक बहुत पुराना एवं सशक्त हथियार रह चुका है। इसके ज़रिए अभिव्यक्ति की सारी आवाज़ें यह कह कर बंद कर दी जाती हैं,

साहब आज आपको कश्मीरी मुसलमानों का बड़ा दर्द दिखाई दे रहा है, आप तब कहां थे, जब पंडितों को कश्मीर से बाहर खदेड़ा जा रहा था?

यहां गौर करने वाली बात यह है कि किस तरह इस बात का गलत प्रचार-प्रसार करके आम हिंदुस्तानी अवाम के दिमाग मे यह धारणा भर दी गई कि 1990 में कश्मीरी पंडितों के ethnic cleansing में समस्त कश्मीरी मुसलमानों की संलिप्ता रही है।

यह बात बिल्कुल वैसी ही हुई जैसे 2002 के दंगों में गुजरात के समस्त हिंदुओं की संलिप्ता हो या फिर 1984 के सिख विरोधी दंगों में समस्त हिंदुस्तान के हिंदुओं की संलिप्ता रही हो।

आपको यह बात एक मज़ाक लग सकती है, तो फिर इस बात को आपका दिमाग क्यों नहीं समझ पाता कि कश्मीरी पंडितों के Ethnic cleansing में घाटी के समस्त मुसलमानों की नहीं बल्कि कट्टरपंथी उग्रवादी संगठनों की सहभागिता थी। ठीक वैसे ही जैसे 2002 के दंगों को संचालित एवं क्रियान्वित करने वाला समस्त गुजराती हिन्दू समुदाय नहीं बल्कि हिंदुत्वादी कट्टारपंथी संगठन ही अग्रणी थे।

 लोकतंत्र नहीं, तानाशाही है

अब सवाल उठता है कि जब दक्षिण वाले इस बात पर घेरने का प्रयास करते हैं तो फिर घाटी के मुसलमानों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया?लेकिन गुजरात के हिंदुओं ने भी तो 2002 के दंगों के खिलाफ कोई विरोध प्रदर्शन नहीं निकाला। इसके उलट इस पाप का महिमामंडन करते हुए गौरव यात्राएं निकाली गई।

इसी गौरव यात्राओं के ज़ोर पर ध्रुवीकरण को सहज एवं सामान्य बना कर एक सुलभ राजनीति का रास्ता बनाया गया था लेकिन क्या किसी ने आज तक इस बात की जवाब-तलब करने की आवश्यकता महसूस की कि गुजरात का हिन्दू चुप क्यों था?

यह बात भी गौर करने की है कि संविधान जब हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी मयस्सर करवाता है, तो वह हमें अपनी अभिव्यक्ति चुनने की स्वतंत्रता भी देता है। इसका मतलब कोई डंडे की ज़ोर पर हमसे जवाब तलब नहीं हो सकता कि तुमने इस बात पर अपनी आवाज़ क्यों नहीं उठाई।

मैं आपको यह बतला दूं,

जिस व्यवस्था में आपकी निजी राय को लेकर सवाल जवाब किए जाए, वह व्यवस्था लोकतंत्र नहीं, तानाशाही है। तानाशाही में सत्ता के शीर्ष पर बैठने वाले की जवाबदेही खत्म कर सारी जवाबदेही का बोझ राजनीतिक विपक्ष एवं विरोधियो पर डालते हुए उनका दमन किया जाता है।

तो जिस बात को दक्षिणपंथ Selective Outrage कह कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का प्रयास कर रहा है, वह अधिकार संविधान ही हमें मयस्सर करवाता है। इसलिए हमें 2002 दंगों के उपरांत गुजरात के हिंदुओं की चुप्पी पर सवाल खड़े करने का कोई हक नहीं।

तथाकथित देशद्रोही

पर यह बात हम इतनी मजबूती के साथ कश्मीरियों के लिए क्यों नहीं कह पाते? क्यों हर कश्मीरी मुसलमान को संशय की नज़र से देखा जाता है ? और जो लोग कश्मीरी आवाम के संवैधानिक अधिकारों की बात दृढ़तापूर्वक रखते हैं, उन्हें ही कटघरे में खड़ा कर के देशद्रोही जैसे विशेषणों से नवाज़ा जाता है ।

आइए आज के मौजूदा हालात को टटोलते हुए उन बातों की पुनः तफ्तीश की जाए जिसने वक्त दर वक्त अल्पसंख्यकों और उनके अधिकारों के प्रहरी माने जाने वाले नागरिक समाज को बहुसंख्यक आबादी के नज़रों में खलनायक के तौर पर पेश करने में अहम भूमिका निभाई है।

भारत मे हिंदू राष्ट्र एवं टू नेशन थ्योरी के जनक और अंग्रेजो को दया याचिका लिखने वाले वीर सावरकर ने अपनी किताब “भारतीय इतिहास के छह वैभवशाली युग” के पैरा 449 में लिखा है,

मुस्लिम औरतों को कभी यह डर लगा ही नहीं कि उनके अपराध के लिए कोई हिन्दू उनको उतनी ही कड़ी सज़ा दे सकता है। उनके मन में औरतों के प्रति सम्मान का विकृत सदाचार भाव था।

सावरकर औरतों के प्रति हिंदू पुरुषों के इस कृत्य को आत्महत्या के समान मानते थे। उनका मानना था कि हिंदूओं को भी मुस्लिम औरतों के साथ बुरा बर्ताव करना चाहिए जैसा कि उनकी नज़र में मुस्लिम आक्रमणकारी करते थे। गौर करने वाली बात यहां यह है कि सावरकर हिंदुत्व विचारधारा के लिए वही दर्ज़ा रखते हैं जो साम्यवाद के लिए कार्ल मार्क्स का है।

दिलचस्प बात यह है कि हिन्दुवाद और हिंदुत्व के फर्क को पहचाने बिना,अलग-अलग कट्टरपंथी संस्थानों में हिंदुत्व के अनुयायी के लिए आज भी सावरकर के विचार वेद वाक्य हैं। तब आप समझ सकते हैं कि क्यों हिंदुत्ववादी संगठनों के लिए धारा 370 का हटाया जाना सिर्फ ज़मीन एवं औरतों के दोहन का मसला है और कश्मीरियत, जम्हूरियत, इंसानियत का नारा महज़ एक ढकोसला भर है।

इस बात की तसदीक ना सिर्फ भाजपा के छुटवइए नेता कर रहे हैं बल्कि हरियाणा के मुख्यमंत्री भी सार्वजनिक मंच से ऐसे ही शर्मनाक बयान दे चुके हैं। खैर मैं यह आशा रखता हूं कि प्रधानमंत्री जी, फिर मनोहरलाल खट्टर को उसी तरह दिल से कभी माफ नहीं कर पाएंगे, जैसे उन्होंने प्रज्ञा सिंह ठाकुर के गोडसे वाले बयान पर आज तक उन्हें दिल से माफी नहीं दी ।

कुछ और किताबों के पन्ने खंगालें तो संघ के पूर्व प्रमुख माधवराव सदाशिवराव गोलवरकर ने अपनी किताब बंच ऑफ थॉट्स में लिखा है,

हिंदुओं अपनी ऊर्जा अंग्रेजों से लड़ने में व्यर्थ ना करो, अपनी ऊर्जा संजो के रखो हमारे आंतरिक शत्रुओं के लिए जो मुसलमान, ईसाई और वामपंथी हैं।

इसी किताब में गोलवरकर लोकतंत्र की व्यवहारिकता को ही काल्पनिक कथा कह कर ठुकराते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि आज जो सरकार सत्ता पर काबिज़ है उसकी जड़ें इसी संगठन में मौजूद है।

तो यह बात लाज़िम है कि सत्ता तक के इस सफर में, अपने विचारों को लोकतंत्र की वेदी पर लागू करवाना, उसके सबसे अहम पहलू में हमेशा से मौजूद रहा है।

ध्रुवीकरण की राजनीति

देश में ध्रुवीकरण की जिस चिंगारी से साम्प्रदायिकता की लपटें उठ रही हैं, जिसमें हमारे देश के भीतर एक नकली शत्रु खड़ा कर मुसलमानों को खलनायक बनाने वाली प्रयोगशाला से समाज में टकराव की स्थिति बार-बार पैदा की जा रही है। उसका सियासी फायदा उसी पार्टी को मयस्सर होगा, जिन्होंने मुसलमानों का भय दिखाकर अपनी सुरक्षा में बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यकों के खिलाफ लामबंद किया है।

इसी सुरक्षा कार्यक्रम के तहत एक भीड़ आती है और बड़े संवैधानिक तरीके से एक मुसलमान की पीट-पीट कर हत्या कर देती है। इस हत्या को फिर धर्म की रक्षा के लिए अति आवश्यक बना कर, बहुसंख्यक समुदाय के भीतर व्याप्त, मानवीय संवेदना की निर्मम हत्या कर दी जाती है।

इसी प्रयोगशाला का इस्तेमाल कश्मीर मसले में भी किया जा रहा है, जहां पंडित बनाम कश्मीरी मुस्लिम की बेकार बहस वॉट्सऐप के माध्यम से आम जन तक पहुंच कर उनकी चेतना को समाप्त कर रही है।

इंतकाम की भावना ही अब राष्ट्रभावना बनती जा रही है और आम कश्मीरियों के लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करना अब देशद्रोह हो चला है। जिस तरह कुत्ते रोटी के हिस्से की खातिर आपस में लड़ते हैं, उसी तरह मीडिया सरकारी विज्ञापनों में मौजूद अपार पूंजी के लिए आपस में नैतिकता की सारी दीवार गिरा कर प्रतिस्पर्धा में संलग्न है।

यही मीडिया सत्ता के अप्रत्यक्ष हाथ बन, हर घर मे संचार माध्यम से पहुंच कर लोगों में अलगाव की धारणा का निर्माण कर रहा है। जिसमें कश्मीरियों के मानवाधिकार की आवाज़ बुलंद करने वाली सारी आवाज़ों को आज देश विरोधी बताया जाना, सरकारी विज्ञापनों में व्याप्त बड़ी पूंजी के अधिशेष को प्राप्त करने की होड़ में शामिल संचार तंत्र के निजी मुनाफे के प्रकाश में ही देखा जाना उचित है।

एक पल को अगर सिर्फ मानवतावादी धरातल पर इन बहसों से उतर कर देखेंं, तो यह प्रश्न स्वभाविक रूप से उठ खड़ा होता है कि क्या वह तमाम चेहरे इंसान कहलाने की काबिलियत रखते हैं, जिन्हें पंडितों के ज़ख्मों से कश्मीरी मुसलमानों के घाव अलग दिखाई देते हैं।

क्या इंसानियत का यही तकाज़ा है कि किसी के ज़ख्मों को भरने के खातिर किसी और के जिस्म पर ज़ख्म उकेरे जाएं? आबादी के अपने ही एक हिस्से पर मजहब की मोहर लगा कर उनके साथ हो रहे हर अमानवीय कृत्यों को अगर उचित ठहराना ही राष्ट्रवाद है, तो फिर मैं इस राष्ट्रवाद में अपनी सहभगिता नहीं ढूंढ पाता, जो आबादी के एक हिस्से पर सत्ता की बर्बरता को उचित ठहरती है।

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के अल्फाज में कहूं तो

देश कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता।

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