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विकलांग स्टूडेंट्स की शिक्षा और भविष्य पर बात करना इस समाज में मुश्किल क्यों है?

उत्तराखंड की रहने वाली साक्षी एक स्टूडेंट हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर की बास्केटबॉल प्लेयर भी। भारत की टॉप 17 लड़कियों में इनका चयन हुआ है और अब टॉप 10 में चयन का सपना है। यह कई बार देश का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। साक्षी एक मैरेथॉन रनर भी हैं और एक खूबसूरत कवियित्री भी। उन्होंने हाल ही में सोशल मीडिया पर लिखा,

जिस्म में कमियां, आ गई हैं बेशक

माना  मैं मुकम्मल सारी नहीं हूं।

बेहद टूट चुके हैं सपने

लेकिन मैं अभी हारी नहीं हूं।

जी हां, साक्षी ने 12 साल की उम्र में अपना एक पैर खो दिया था। वो हमारे समाज के उस हिस्से से आती हैं जिन्हें हम Person with Disability कहते हैं।  उन्हें हर चीज़ के लिए संघर्ष करना पड़ता है। फिर चाहे वह शिक्षा हो, खेल हो, समाज में अपना हिस्सा हो या कोई अधिकार हो।

तो चलिए इस लेख में यही कोशिश की जाए कि शब्दों में ना उलझ कर, हमारे देश के विकलांग स्टूडेंट्स की समस्याओं पर बात हो।

फोटो क्रेडिट- getty images

सरकार की निशुल्क शिक्षा योजना एक मज़ाक

सरकार ने Disabled बच्चों के लिए 6 साल से 18 साल तक की शिक्षा निशुल्क कराई है लेकिन हाल ही में आई यूनेस्को की एक रिपोर्ट यह साफ बताती है कि देश में 19 वर्ष से कम उम्र के करीब 78 लाख Disabled बच्चे हैं। इसमें से 5 वर्ष के बच्चे किसी भी स्कूल में नहीं जाते हैं।

5 वर्ष से 19 वर्ष के बच्चों में से एक चौथाई बच्चे किसी भी शैक्षणिक संस्थान में पढ़ने नहीं जाते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि स्कूल में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या बढ़ता कक्षा के साथ काफ़ी कम हो जाती है अर्थात यह सारे बच्चे प्राईमरी से सेकेंडरी स्कूल तक नहीं जा पाते। इनका ड्रॉप आउट दर बहुत ज़्यादा है और लड़कों की तुलना में लड़कियां काफी कम स्कूल जाती हैं।

यह रिपोर्ट सरकार की निशुल्क शिक्षा योजना को जीभ चिढ़ाती हुई नज़र आती है। दरअसल, स्कूल में इन बच्चों के लिए उचित संसाधन ही नहीं है। सेरेबल पाल्सी से जूझ रही एक नन्हीं सी आद्या की मां दीपिका, अक्सर इन मूलभूत संसाधनों का ज़िक्र करती रहती हैं।  दीपिका लंबे समय से लोगों को सेरेबल पाल्सी और ऑटिज़म जैसी स्थितियों के बारे में जागरूक कर रहीं हैं। उनसे जब Disabled स्टूडेंट्स की शिक्षा पर बात की गई तो उन्होंने बताया,

बच्चा स्कूल तक जाएगा कैसे? क्या इन बच्चों के लिए यातायात को कोई साधन है। सामान्य बसों में या वैन में इन बच्चों को चढ़ने में दिक्कत होती है। चलिए, शहरों में तो ठीक है गाड़ी की व्यवस्था है जो घर के दरवाज़े पर आ जाएगी और ड्राईवर या कंडक्टर खुद बच्चे को बिठा देगा लेकिन गांव देहात या पहाड़ों में क्या?

दीपिका अपनी बेटी आद्या के साथ, फोटो- दीपिका की फेसबुक प्रोफाइल

इनके प्रति संवेदनशीलता की कमी

जहां स्कूल तक पहुंच पाना ही एक महाभारत हो रहा है वहां स्कूल पहुंच जाने के बाद भी मुश्किलें कम नहीं होती। स्कूल में रैंप की व्यवस्था नहीं है, शौचालय इन बच्चों के हिसाब से नहीं बनें, कुछ फर्श भी इन बच्चों के लिए मुसीबत का सबब बनते हैं और सबसे ज़्यादा मुश्किल होती है शिक्षकों के साथ।

कई शिक्षक हैं जो इन बच्चों की मनोस्थिति नहीं समझ पाते और इनके प्रति दया ज़्यादा रखते हैं बजाए संवेदनशीलता के। जब शिक्षकों के यह हाल हैं तो साथ पढ़ने वाले बच्चों से क्या उम्मीद की जा सकती है?

इस बात पर दीपिका अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं,

मैंने देहरादून के लगभग सारे प्राइवेट और सरकारी स्कूल देखे हैं। किसी में भी व्हीलचेयर के लिए रैंप नहीं था। बड़े से बड़े होटल के वाशरूम्स में चेंजिंग टेबल नहीं होती और यह उन बहुत सारे कारणों में से एक है कि आपको पार्कों और अन्य सार्वजानिक जगहों पर स्पेशल बच्चे बहुत कम दिखते हैं। और इसका सबसे बड़ा कारण यह कि जब हम जैसे माता पिता हिम्मत करके अपने बच्चों के साथ बाहर निकलें भी तो आप सबकी दया भरी, प्रश्नवाचक नज़रें हमें असहज कर देती हैं।

साक्षी चौहान मैरेथॉन में भागते हुए और बास्केटबॉल की ट्रॉफी जीतने बाद जश्न मनाते हुए, फोटो- साक्षी चौहान के फेसबुक प्रोफाइल से

माना तमाम संघर्षों के बावजूद बच्चा स्कूल पहुंच जाता है तो वहां उसे भेद-भाव सहना पड़ता है। साथ के बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते हैं, बुली करते हैं। ऐसे में एक Disabled बच्चे से शिक्षा में बेहतरी की उम्मीद करना छलावा है। अपने बचपन को याद करते हुए साक्षी बताती हैं,

मैं सरकारी स्कूल में थी, वहां बेंच नहीं होती थी तो हम नीचे दरी में बैठते थे। एक्सीडेंट के बाद जब मैंने अपना पैर खोया तो मेरे लिए स्कूल में नीचे बैठना मुश्किल था इसलिए मेरे लिए चेयर मंगाई गई। जब मैं अकेले चेयर में बैठती थी तो सारे बच्चे मेरा मज़ाक उड़ाते, मुझे घूरते कुछ लोग आकर मेरी स्कर्ट हटा कर देखते की मेरा पैर है कि नहीं। यह सब बहुत बुरा लगता था।

इन बातों के ज़िम्मेदार वे बच्चे नहीं होते बल्कि उनके घर का माहौल होता है जो उन्हें बड़े होने तक इसी तरह असंवेदनशील बनाए रखता है। उनकी इसी असंवेदनशीलता का खामियाज़ा यह स्टूडेंट्स झेलेते हैं।

रॉबिन, फोटो – फेसबुक

शिक्षा पा लेंगे लेकिन रोज़गार का क्या?

इसी तरह रॉबिन की कहानी भी सामने आई उनके हाथों और पैरों के साथ दिक्कत है। रॉबिन बहुत जुझारू हैं और हमेशा से मेहनत करने पर विश्वास रखते हैं। उनके इस संघर्ष में उनके ताऊ जी का हमेशा साथ रहा।

तमाम लचर व्यवस्था के बावजूद उन्होंने स्कूल खत्म किया, कॉलेज गए फिर एमबीए किया और रोज़गार की तलाश में लग गए। उनके जुझारू रवैये ने उन्हें नौकरी भी दी लेकिन कुछ समय बाद उनकी शीरीरिक अक्षमता के कारण उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।

नाम ना बताने की शर्त पर एक विकलांग स्टूडेंट के पिता ने हमें बताया कि

मेरा बेटा विकलांग है और उसके लिए एक ढंग का स्कूल जहां उसके लिए रैंप हो ढूंढना एक असंभव टास्क बन गया है। अभी तक तो उसे गोद में उठा कर लाते ले जाते हैं लेकिन मैं हमेशा ना तो इतना बलवान रहने वाला हूं और ना वो गोद लायक। स्कूल में वो बाकी बच्चों की तरह समावेशी शिक्षा नहीं ले पाता और अक्सर इस बात से परेशान हो जाता है।

भविष्य की चिंता करते हुए वो आगे कहते हैं,

मुझे बतौर पिता अक्सर बड़ी बेचैनी हो जाती है कि जिस देश में मेरे बेचे जैसे बच्चों के लिए ना स्कूल हैं ना एजूकेटर वहां उनका भविष्य क्या होगा?

माँ-बाप की ऐसी चिंता होना लाज़मी है। अगर एजूकेटर या शिक्षकों की बात की जाए तो हमारे देश में B.Ed जैसे कोर्स में स्पेशल एजुकेशन नाम का Specialisation भी है लेकिन कई स्कूलों में ऐसे एजूकेटर्स को रखा ही नहीं जाता। कई जगह तो यह डिग्री मान्य भी नहीं है।

दिव्यांग शब्द पर नहीं समस्याओं पर हो बात

शिक्षा नीति या फिर शिक्षा व्यवस्था के लिए लिखना ज़्यादा मुश्किल काम नहीं होता। भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हर कोई एक विशेषज्ञ की तरह अपनी राय दे सकता है क्योंकि हम सब इस शिक्षा व्यवस्था के लूप होल्स से गुज़र चुके हैं और इसे भली-भांति जानते हैं।

तो मुश्किल कहां है? दरअसल, मुश्किल आती है विकलांग स्टूडेंट्स की शिक्षा और भविष्य के मुद्दे पर बात करने पर। इस लेख को लिखते वक्त बार-बार ज़ेहन में एक सवाल आता है कि इन स्टूडेंट्स को Disabled बोला जाए, Differently abled बोला जाए या दिव्यांग  बोला जाए?

अपने कई Disabled दोस्तों से जब मैंने इस मुद्दे पर बात की तो उन्होंने कहा कि हमें कुछ भी बोल दो शब्द बदलने से हमारी समस्या नहीं बदल जाएगी। कुछ लोग दिव्यांग कह कर भी बुरा महसूस करा देते हैं, तो कुछ विकलांग कह कर भी हमें समान दर्जा देते हैं।

विकलांग और दिव्यांग शब्द पर दीपिका का भी अपना मत है। वह कहती हैं,

विकलांग शब्द से कोई दिक्कत नहीं है। हिन्दी में कोई और शब्द है भी नहीं। यह सब कहने के तरीके पर निर्भर करता है। अगर बुरा लगने की बात की जाए तो विकलांग से ज़्यादा बुरा दिव्यांग लगता है।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह कहती हैं,

खुद सोचिए आपकी एक आंख नहीं है और आपको कहा जा रहा है कि आपके पास दिव्य अंग है। यह तो सीधे-सीधे आपका मज़ाक उड़ाना हुआ। ठीक वैसे ही जैसे आप गरीब हैं लेकिन आपसे मुंबई के पॉश इलाके में घर खरीदने की बात की जाए।

सवाल यह उठता है कि हम किस शिक्षा की बात कर रहें हैं? पहले तो किसी Disabled बच्चे का स्कूल तक पहुंचना मुश्किल है फिर उस बच्चे के लिए स्कूल में रहना मुश्किल है। जैसे-तैसे अगर बच्चा स्कूल पूरा कर भी दे तो कॉलेज में उसका एक नया संघर्ष शुरू हो जाता है और वहां से निकलने के बाद उसके पास रोज़गार का कोई ज़रिया नहीं बच जाता।

भले ही आज कई पदों के लिए Person with disability के लिए आरक्षण हैं लेकिन जब कोई Disabled उस पद की योग्यता के स्तर को ही नहीं प्राप्त कर पा रहा तो उसे आरक्षण का लाभ कैसे मिलेगा।

आज साक्षी जैसी लड़कियां अपनी लड़ाई तो लड़ ही रही हैं लेकिन साथ में देश का नाम रोशन करने की भी ज़द्दोजहद कर रही हैं। सरकार की तरफ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली लेकिन कुछ प्राईवेट संस्थान हैं जो उनके व्हीलचेयर और बाकी ज़रूरतों के लिए फंड मुहैया करा रही हैं।

रॉबिन जैसे युवा भी अपने हौसले के दम पर अपना रिज़्यूम हर जगह भेज रहे हैं लेकिन अच्छे अंकों और डिग्री के बावजूद उनके पास नौकरी नहीं है।

दीपिका जैसी माँ सालों से लड़ रही हैं कि उन्हें दया नहीं चाहिए। अपनी बेटी के हक के लिए वो हर रोज़ संघर्ष कर रही हैं लेकिन जिस देश में महज़  एक छोटे से कमरे में बिना असेसमेंट और परीक्षण डॉक्टर बस एक नज़र देख कर विकलांगता का प्रतिशत लिख देते हैं, वहां क्या सच में Person with disability का कोई भविष्य है?

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