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क्या कश्मीर को मुख्यधारा से जोड़ने के मकसद में कश्मीरियों का हित है?

प्रदर्शन

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कश्मीर को दिया गया विशेष हक तत्काल प्रभाव से खत्म कर दिया गया है और देश में जश्न का माहौल है। सरकार की पीठ थपथपाने से लेकर असहमत लोगों पर तंज कसने और उनका मज़ाक बनाने तक सब कुछ हो रहा है, ऐसे में इस नाज़ुक विषय पर ठहर कर गौर करने की ज़रूरत है, मुद्दा महज़ जम्मू कश्मीर का नहीं है।

इस कदम के समर्थन में सबसे बड़ा तर्क यह है कि कश्मीर को मुख्यधारा में लाना है। इसका अर्थ यह है कि 370 का हटाया जाना कश्मीर को देश के बाकी राज्यों के साथ लाने की कवायद है।

यहां सोचने-समझने की ज़रूरत है कि उस मुख्यधारा का मतलब कश्मीर और कश्मीरियों के लिए क्या है? क्या वे इस मुख्यधारा में स्वयं को विलेय पत्र में दिए गए वायदों की कीमत चुकाकर आने के लिए तैयार हैं? क्या मुख्यधारा में लाने के नाम पर किसी के भी राजनीतिक हक भी हैक किए जा सकते हैं? क्या मुख्यधारा में लाने के नाम पर संवैधानिक प्रावधानों की मनचाही तौहीन की जा सकती है?

अमित शाह। फोटो साभार: Getty Images

इन सवालों से इतर कुछ और सवाल भी हैं, जम्मू कश्मीर पुनर्गठन बिल जो संसद में पारित हुआ, उसके लिए कोई पूर्वसूचना नहीं थी। इतना महत्वपूर्ण बिल अचानक लाया जाता है और महज़ कुछ घंटो में थोड़ी सी चर्चा के बाद पारित हो जाता है। लोकतंत्र का कुछ अंकों में सिमट जाने का इस संसद सत्र से अच्छा उदाहरण शायद ही कोई और मिले।

हल्के तर्कों से सुसज्जित है गृहमंत्री का वक्तव्य

इसके बावजूद आज संसद में कपिल सिब्बल के छोटे से वक्तव्य को सुना जाना चाहिए। इसके अलावा गृहमंत्री का बिल के समर्थन में वक्तव्य बेहद हल्के तर्कों से सुसज्जित है, जो तर्क उन्होंने दिए वो देश में कहीं भी लागू हो सकते हैं। एक जगह वह कहते हैं कि सभी घर जाकर टीवी देख लें कि पूरा देश इस निर्णय का स्वागत कर रहा है।

हम जानते हैं लेकिन वह यह नहीं बता रहे कि जिन्हें इस निर्णय का स्वागत या विरोध करने का सबसे ज़्यादा हक है, उनके पास सरकार ने फिलहाल कोई माध्यम नहीं छोड़ा है।

देश के साथ-साथ हमें देश के लोकतंत्र के लिए भी इस फैसले की समीक्षा करनी होगी। आज मौजूदा सरकार ने “मज़बूत सरकार” की ताकतों को पुनः रेखांकित किया है और दिखाया है कि इच्छा शक्ति हो तो कुछ भी मुमकिन है, कुछ भी! सिर्फ लोकतंत्र-पसंद लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि जो लोग जश्न में डूबे हैं, यह उनके लिए भी वॉर्निंग बेल होनी चाहिए।

आपको दिए गए हक एक झटके में आपसे छीने भी जा सकते हैं और वह भी बिना आपको इसका विरोध करने का मौका दिए। इस फैसले के दीर्घकालिक परिणाम क्या होंगे, यह कहना अभी जल्दबाज़ी है लेकिन इस फैसले को लेने की प्रक्रिया बेहद अलोकतांत्रिक है, जिसकी आलोचना करने का हक कम-से-कम अभी हमारे पास है।

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