सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा, ‘हम नहीं चंगे बुरा न कोय’ उनके लेखकीय जीवन के सबसे हलचल वाले दिनों की कथा है।
पढ़िए इस आत्मकथा से यह अंश,
सितम्बर 1970 के ‘लोकप्रिय लेखक’ में मेरा सुनील सीरीज़ का उपन्यास ‘पाकिस्तान की हसीना’ छपा था, जिसका नाम मैंने ‘ऑपरेशन पाकिस्तान’ रखा था लेकिन प्रकाशक महेन्द्र शर्मा की सनक थी कि उसने मुझे बिना बताए उपन्यास का नाम बदलकर ‘पाकिस्तान की हसीना’ रख दिया था, जबकि नाम को सार्थक करने वाली कोई हसीना उपन्यास में थी ही नहीं।
सन् 1970 में जेम्स बॉन्ड का नया, पांचवां-उपन्यास ‘ऑपरेशन बैंकॉक’ भी छपा था, जो मैंने मेरठ के एक प्रकाशक कल्पना पॉकेट बुक्स के लिए लिखा था और एक तरह से एक स्क्रिप्ट ही खराब की थी। उसके बाद उस प्रकाशक से मेरा कभी वास्ता नहीं पड़ा था। आज मुझे यह तक याद नहीं वह कौन था, उसका नाम क्या था या उसका मेरठ में ऑफिस कहां था।
जैसा कि मैंने पीछे अर्ज़ किया, सन् 1970 में, अक्टूबर के महीने में, मेरे पिता को तीसरी बार दिल का दौरा पड़ा। तत्काल उन्हें आईटीओ पर स्थित डॉक्टर सेन के नर्सिंग होम में पहुंचाया गया।
ऐसी दुश्वारियों के उन दिनों आज सरीखे एंजियोप्लास्टी, बाईपास सर्जरी, ओपन हार्ट सर्जरी जैसे फैन्सी इलाज नहीं थे। एंजियोग्राफी का भी चलन अभी नहीं हुआ था। तब खाली ईसीजी ही एक टेस्ट था, (आज जिसके बारे में हार्ट स्पेशलिस्ट कहते हैं कि खास कुछ भी नहीं बताता) और इलाज यही था कि खून पतला करने की गोली खाओ, खान-पान में परहेज लाओ, पैथाडीन का इंजेक्शन लो और रेस्ट करो।
यानी तब किसी को हार्ट अटैक होता था तो उसका आइन्दा अंजाम उसकी तकदीर के ही हवाले होता था जो कि अच्छा-बुरा कैसा भी नतीजा निकाल सकती थी।
तेईस अक्टूबर की शाम को मेरे पिता नर्सिंग होम के अपने कमरे में मेरी माँ से बातें कर रहे थे कि बल्ब की तरह फ्यूज़ हो गए। बात का आधा फिकरा उचरा था और आधा अभी मुंह में ही था कि परलोक सिधार गए थे। बाद में मालूम पड़ा कि जो उनपर बीती थी, उसको हार्ट अटैक नहीं कहते थे, हार्ट फेलियोर कहते थे, मेडीकल साइंस की ज़ुबान में मायोकॉर्डियल इनफार्क्शन कहते थे।
घर का मालिक चला गया, कुछ पोशाकें और दो जोड़ी जूते पीछे छोड़कर।
‘चार रोटियां एक लंगोटी’ वाला मिजाज़ तो उनका नहीं था, फिर इतने मैटीरियल भी नहीं थे कि घर में जिधर निगाह उठती, उनका अक्स उजागर करती, कोई शय दिखाई दे जाती। उनकी पोशाकों, जूतों का दर्जा तो बकौल गालिब जैसे ‘चन्द तसवीरेबुतां चन्द हसीनों के खतूत’ जैसा था।
उपरोक्त के विपरीत जब फरजन्द-ए-पन्नालाल उस अंजाम को पहुंचेगा तो घरवालों को पीछे छोड़ा उसका तामझाम संभालना दूभर हो जाएगा।
बहरहाल मौत से वह मेरी पहली रूबरू मुलाकात थी।
मेरा पूरा एक साल दीवानगी की हालत में गुज़रा। हर घड़ी मेरे को लगता था कि मैं अभी मरा, अभी मेरा पिता सरीखा अंजाम हुआ। भूख-प्यास उड़ गई, रात को नींद आना बन्द हो गया। तब-तक घूंट का मैं बाकायदा रसिया बन गया था, फिर भी ह्विस्की के करीब फटकने की हिम्मत नहीं होती थी।
जैसे-तैसे ऑफिस जाता था तो लगता था कि बस में ही मर जाऊंगा। कई बार ऐसी बद हालत हुई कि बीच रास्ते उतर गया, फुटपाथ पर ही बैठ गया, किसी काबिल खुद को महसूस किया तो घर वापस लौटकर डॉक्टर के पास गया, जो मेरी अलामत से वाकिफ था, क्योंकि पहले भी मैं उसके पास जाता था।
वो मेरे को कोई गोली-वोली दे देता था और समझाता था कि सब साइकॉलाजिकल था, मुझे कुछ नहीं हुआ था। मैं समझता था, ऑफिस जाता था, जैसे-तैसे काम करता था लेकिन शाम को घर लौटता था तो फिर दहशत सताने लगती थी, डॉक्टर का समझाया सब मिथ्या लगने लगता था।
घरवाले, खासतौर से मेरी माँ, मेरी बाबत बहुत फिक्रमन्द थीं। डॉक्टर पिता का वाकिफ था, वो मेरी बाबत उससे दरयाफ्त करने जाती थी, तो वो उसे भी वही जवाब देता था कि सब साइकॉलाजिकल था, अपने आप ठीक हो जाएगा।
लेकिन ठीक तो नहीं हुआ। कई बार रात को दो बजे मैंने ऐसी घबराहट और तड़पन महसूस की जैसे कि अगली सांस नहीं आने वाली थी। डॉक्टर करीब ही, दो ब्लॉक परे रहता था। बड़ी मुश्किल से वो सोते से उठता था और भुनभुनाता हुआ, पिता की दोस्ती के मुलाहज़े में घर आता था और मोर्फीन का इंजेक्शन देकर चला जाता था। साथ ही सख्त हिदायत करके जाता था कि मैं सिर्फ वहम का शिकार था, आइन्दा कभी रात को उसे नहीं बुलाया जाए।
उस डॉक्टर के उस मिजाज़ का एक तज़ुर्बा मुझे पहले भी हो चुका था।
हमारे किराएदार की चार बच्चों की मां-बीवी को कोई माइग्रेन जैसी सिरदर्द की अलामत थी, जिसकी वजह से वह कभी भी एकाएक तड़पने लगती थी। वह डॉक्टर किराएदार का वाकिफ था, क्योंकि उसके लिए एकाउंट्स लिखता था और उसकी इनकम टैक्स रिटर्न भरता था। इस मुलाहजे में वह बीवी को देखने आता था और कोई इमरजेन्सी उपचार करके जाता था।
ऐसा दौरा एक बार बीवी को शाम आठ बजे के करीब पड़ा। किराएदार ने अपने बड़े लड़के को डॉक्टर के पास दौड़ाया, जिसने उसको यह आश्वासन देकर लौटा दिया कि थोड़ी देर में आता हूं लेकिन आया नहीं।
फिर किराएदार खुद दौड़ा गया। उसने उसको भी वही जवाब देकर लौटाया कि थोड़ी देर में आता हूं। सारे इलाके का इकलौता एमबीबीएस डॉक्टर था, इसलिए किराएदार किसी दूसरे, लैसर डॉक्टर के पास नहीं जाना चाहता था।
आखिर जब डॉक्टर आया, बीवी ब्रेन हेमरेज से मर चुकी थी। पांच महीने की दुधमुंही-चौथी औलाद-बच्ची को छोड़कर।
किराएदार का मैंने यह हाल देखा कि लगता था कि बीवी के साथ ही मर जाएगा। दहाड़ें मारकर रोता था, दीवार को टक्करें मारता विलाप करता था, ”हाय, मैं लुट्टया गया, लोको!”
दारुण दृश्य था, देखकर दिल हिलता था। पत्नी की चिता की राख ठंडी नहीं हुई थी कि साली ब्याह लाया था, वो भी चुपचाप नहीं, बाकायदा सेहरे बांधकर, कमर में तलवार बांधकर गया था।
कितना क्षणभंगुर था चार बच्चों की माँ पत्नी से बिछुड़ने का दुख, अवसाद, मातम, गम।
आज की तरह उन दिनों प्राइवेट नर्सिंग होम्स की भरमार नहीं होती थी इसलिए रात को कोई मेडिकल इमरजेन्सी आन खड़ी हो तो उसे अटेंड करने के लिए डॉक्टर तलाश करना निहायत मुश्किल होता था। करीबी सरकारी अस्पताल इर्विन था जो कि दिल्ली गेट पर था लेकिन आधी रात को मरीज़ को वहां पहुंचाए जाने का कोई ज़रिया हासिल नहीं होता था। लिहाज़ा सुबह होने का इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं होता था।
मैं सारी रात जागता था और घर के तमाम मेम्बरान को भी जगाता था।
दिन में माँ वाकिफ डॉक्टर के पास जाती थीं तो डॉक्टर उसे समझाता था कि वो रात के दो बजे सोते से उठकर होम विज़िट के लिए बार-बार नहीं आ सकता था। फिर उसने करना क्या होता था? खाली एक इंजेक्शन ही तो देना होता था। घर का कोई जना इंजेक्शन लगाना सीख ले, उसे बुलाने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी।
उन्हीं दिनों एक बार शाम को चार बजे, छुट्टी होने से एक घंटा पहले मुझे ऑफिस में ही ऐसा महसूस होने लगा कि मुझे दिल का दौरा पड़ने लगा था। मेरे होश उड़े देखकर मेरा एक मकैनिक अपने स्कूटर पर बिठाकर मुझे इर्विन अस्पताल ले गया। वहां मेरा वह हाल देखा गया तो मुझे आब्जर्वेशन के लिए भर्ती कर लिया गया। मैंने मकैनिक को कहा कि वो मेरे घर खबर कर दे कि मैं रात को घर नहीं आऊंगा लेकिन यह हरगिज़ ना बताए कि मैं अस्पताल में भर्ती था।
“पाठक साहब”, मकैनिक ने जोश से मुझे आश्वासन दिया, “आप घबराना नहीं। आपको यहां जितने खून की ज़रूरत होगी, मैं दूंगा”।
”थैंक्यू। अभी जा, फोन कर”।
वो निगाहों से अभी भी मुझे आश्वासन देता चला गया।
वो अनपढ़ था, मैं उसे समझाता भी तो वो नहीं समझने वाला था कि मेरा केस अगर वो केस निकला, खून देने की ज़रूरत वाला नहीं था।
उसने पता नहीं कैसे वो खबर फोन पर दोहराई कि घर में किसी को उसकी बात का यकीन नहीं आया। उससे ज़िद करके पूछा गया तो उसने बोल दिया कि मैं इर्विन अस्पताल में भर्ती था।
रात को मेरा एक साला अस्पताल पहुंच गया। वो डॉक्टर से मिला तो मालूम पड़ा कि ईसीजी किया गया था जो कि बिलकुल ठीक पाया गया था, मोटे तौर पर नहीं लगता था कि मुझे कोई अलामत थी।
रात मैं अस्पताल के वॉर्ड में सोया और सवेरे छुट्टी पाकर घर लौटा।
मेरी माँ और बहनें मेरे से ऐसे मिलीं जैसे मैं जंग के मुहाम से ज़िन्दा वापस लौट आया था। माँ रोती थी। पति की मौत का गम तो अभी कम हुआ नहीं था, मैंने एक नई दुश्वारी खड़ी कर दी थी। बीवी गर्भवती थी, अभी दो बहनें गैर-शादीशुदा थीं, ऐसे में मुझे कुछ हो जाता तो पीछे क्या बीतती।
बहरहाल, सदमे से मैं तो सता हुआ था ही, घरवाले भी खूब सताए गए। फिर जैसे एकाएक वो विपत्ति मेरे पर टूटी थी, वैसे ही एकाएक पीछा छोड़ गई। क्या हुआ, कैसे हुआ, चमत्कार से कम नहीं था। बस, कर्ता की करनी हुई, ‘मिटी धुन्ध जग चानन होया’, पहले जैसे एकाएक मुझे लगने लगा था, मैं मर जाने वाला था, वैसे ही एकाएक अब लगने लगा कि मुझे कुछ नहीं हुआ था, मैं पूर्णतया स्वस्थ था।
उस दौर की एक बात मुझे बड़ा हैरान करती है। उस बुरे हाल में मैं नॉवल कैसे लिखता रह सका?
मेरी उस एक साल की दिमागी हालत से मेरे उपन्यास लेखन में अवरोध पैदा होना चाहिए था लेकिन मेरा रिकॉर्ड बताता है उस दौरान भी मैंने बदस्तूर लिखा था, अक्टूबर 1970 से अक्टूबर 1971 के बीच के एक साल के वक्फे में मेरे आठ नए उपन्यास छपे थे।
हेल्थ के बारे में वहम का शिकार मैं हमेशा से था, आज भी हूं। हेल्थ संबंधी छोटी-सी बात को मैग्नीफाई करके देखना मेरी आदत बन गई थी। पेट में ज़रा खराबी हो, वो ज़रा दर्द करे, मुझे लगता था अल्सर था, ज़रा खांसी ठीक ना हो, मुझे लगता था तपेदिक थी, जरा सांस उखड़े, मुझे लगता था दमा था, ज़रा वज़न घटे, मैं सोच लेता था कैंसर सिर उठा रहा था।
इन्हीं वहमों का मारा मैं डॉक्टर-दर-डॉक्टर भटकता था, जानबूझकर वाकिफ डॉक्टर के पास नहीं जाता था कि घर पर खबर पहुंच जाएगी। कई नावाकिफ डॉक्टरों ने मेरे बेबुनियाद खौफ को अपने हक में कैश किया, गैर-ज़रूरी टेस्ट कराए, गैर-ज़रूरी दवाइयां खिलाईं। एक डॉक्टर ज़रा भला मानस था, उसने दो टूक कहा,
पाठक साहब, जैसी बीमारियों का शिकार अपने आपको समझते हो उनमें से एक भी सच में आपको होती तो आपकी कब की चल-चल हो चुकी होती। आप सलामत हो, चौकस मेरे सामने बैठे हो, यही सफीशेंट सबूत है कि आपको कोई बीमारी नहीं।
एम्स में आईटीआई का लगाया हज़ार लाइन का इंटर्नल एक्सचेंज था, जिसकी देखभाल के सिलसिले में मैं अक्सर वहां जाता रहता था। एक बार मैं वहां उस सेक्शन में गया, जहां ईसीजी होता था। ऑपरेटर आईटीआई के टेक्नीशियन के तौर पर मुझे जानता-पहचानता था, इसलिए जब मैंने उसे अपना ईसीजी करने को कहा तो बिना हुज्जत उसने ईसीजी कर दिया।
मैंने नतीजे के बारे में पूछा तो वह बोला कि थोड़ा नुक्स था। अक्ल से काम लेता तो डॉक्टर से कंसल्टेशन की फरमाइश करता जो तरीके से, तफसील से मुझे बताता कि क्या नुक्स था और क्या वो मुझे नुकसान पहुंचा सकता था। ऐसा करने की जगह, आईटीआई वापस लौटने की जगह, मैं बारा टूटी चला गया, जहां कि तब मेरी बीवी गई हुई थी। मैंने बीवी को ईसीजी के बारे में बताया और निढाल दीवान पर पड़ गया। बीवी ने माँ से बात की तो माँ ने फौरन एक वाकिफ डॉक्टर को जिसका नाम पन्नालाल था घर बुला लिया।
वो इलाके का मशहूर डॉक्टर था, उम्रदराज़ था, खुद ओमप्रकाश शर्मा कहा करते थे कि अगर उनके आधे बच्चे आज जीवित थे तो डॉक्टर पन्नालाल की वजह से थे, उसने ईसीजी देखा, मेरा मुआयना किया और झिड़ककर बोला,
उठकर बैठ। तुझे कुछ नहीं हुआ।
मैं हड़बड़ाकर उठा।
अरे, पढ़ा-लिखा लड़का है, इतना भी नहीं समझता कि अगर तेरी ईसीजी में कोई गम्भीर नुक्स होता तो इतना बड़ा अस्पताल क्या तुझे घर चला जाने देता?
लेकिन,
मैं दबे स्वर में बोला,
ईसीजी ऑपरेटर कहता था…
कौन कहता था?
ईसीजी ऑपरेटर।
जो डाक्टर से ऊपर होता है, ठीक? हार्ट की बाबत जिसको डॉक्टर से ज़्यादा ज्ञान होता है, ठीक?
मेरे मुंह से बोल ना फूटा।
वो इडियट ऑपरेटर था। उसका काम मशीन ऑपरेट करना था, ईसीजी के रिज़ल्ट की बाबत अपनी राय देना नहीं था। ईसीजी को स्टडी करना डॉक्टर का काम था और अपनी क्वालीफाइड राय देना भी उसका काम था।
ईसीजी में कोई खराबी नहीं? मैं बुदबुदाया।
है मामूली खराबी लेकिन वो विदइन असैप्टिड पैरामीटर्स है, जो कि आइडियल कंडीशंस में ईसीजी ना किया जाए तो किसी के ईसीजी में भी दिखाई दे सकती है। तेरी सास के बुलावे पर मैं दौड़ा-दौड़ा यहां आया हूं,अभी मेरा ईसीजी किया जाए तो तेरे वाले से ज़्यादा खराबी दिखाएगा जबकि मुझे दिल की कोई अलामत नहीं, घोड़े की तरह मज़बूत है दिल। समझा कुछ?
मैंने सहमति में सिर हिलाया।
नाहक सबका दम निकाल दिया। अब उठ और दौड़ फिर।
तब जाकर मेरी जान में जान आई।
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