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फुटपाथ पर झंडा बेचता वह बूढ़ा क्या कभी आज़ाद हुआ है?

राजधानी (जयपुर) से घर की ओर निकलते हुए महसूस हुआ कि स्वतंत्रता दिवस आ गया है। एक बड़े फर्नीचर के शो-रूम की सुंदर रौशनी को छोटे-बड़े तिरंगे शाम में अद्भुत बना रहे थे। सोचा तो लगा कि सेक्युलर बनने की कोशिश हो रही है।

बड़ा शहर है, हर तरह के लोग होते हैं, वरना हमारे शहर की दुकानों में तो भगवानों के कैलेंडर मिलते हैं। खैर, एकबारगी ऐसा लगा, वे तिरंगे सुंदर थे, अच्छा काम कर रहे थे, शायद जोड़ ही रहे होंगे किसी को किसी से, गौरवान्वित ही करेंगे और इससे ज़्यादा नहीं सोचा।

भागकर बस मिली और बस में सीट भी मिल गई है। बस चलती रही, इयरफोन में चल रहे गाने की तरह। लालबत्ती आई बस रुकी। इसी बीच बस में एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति चढ़ा, जो अधेड़ उम्र में भी काफी बूढ़ा लग रहा था, शायद गरीबी की वजह से। सिर पर तिरंगे सी हैट पहने हाथ में 4-5 तरह के तिरंगे लिए उदास थका सा, बस से उतरकर वह फुटपाथ की ओर खुद को घसीटता जा रहा था।

लाल बत्ती थी तो, एक बाइक रुकी और उसपर सवार औरत ने उसे आवाज़ दी, बाइक सवार आदमी ने बात की, पैसे दिए और दो छोटे झंडे औरत को थमा दिए। झंडे बेचने वाले व्यक्ति की निराशा पलभर में ही खुशी में तब्दील हो गई।

सबसे बेफिक्र, उसमें मानो हिम्मत आ गई और उचक-उचककर वह और ग्राहकों को खोजने लगा। रेड लाइट पर खड़ी लोगों की भीड़ उसे अब भी देख रही थी। वहां खड़े लोगों में शायद वह एक ही खुश आदमी था।

एक और बाइक रुकी, इस बार बाइक सवार को उसका भाव पसंद ना आया, वह बार-बार उसे मनाने की कोशिश करता रहा। मुझे नहीं पता गिड़गिड़ाना और किसे कहते हैं। लोगों ने यह भी देखा। लाइट्स बदली, बाइक पहले निकल गई, वह ‌ढुलकता शरीर जिसमें दिनभर या यूं कहें कि सालों की थकान के बाद जान सी आई लगी थी। फिर से निराशा में चूर होती नज़र आई।

बस चल दी, मेरी नज़रों ने उसका पीछा किया, उसने किसी और गाड़ी सवार का। मैंने इयरफोन हटा दिया, नहीं सुना गाना पूरे रास्ते। मेरे ना सोचने का प्रण टूट गया, शो-रूम का ताकतवर तिरंगा अब बेबस हो गया। मैं हरी बत्ती पर चलने को मजबूर था, वह मजबूर था एक और लाल बत्ती के इंतज़ार को।

 

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