कल शाम को मैं अपने काम से वापस अपने घर जा रहा था। मेरी नज़र सड़क के किनारे लगी हुई एक बड़ी से होर्डिंग पर गई। मुझे आज घर पहुंचने की जल्दी नहीं थी, तो मैं रुककर उसे पढ़ने लगा। पूरी होर्डिंग पर सिर्फ 2 फोटो और 4 शब्द लिखे हुए थे। यह पिछले साल सरकार द्वारा बड़े ही ज़ोर-शोर से शुरू की गई एक योजना की पंचलाइन थी।
मुझे थोड़ा सा अजीब लगा। मेरा दिमाग भूतकाल में दौड़ने लगा। मुझे पिछले महीने की मेरी दिल्ली यात्रा याद आ गई। वहां भी कुछ इसी तरह के बैनर मैट्रो ट्रेन के अंदर और स्टेशन पर लगे हुए थे। वहां भी कहानी कुछ अलग नहीं थी। इसी तरह की कुछ लाइनें और उपलब्धियां गिनाई और दिखाई गई थीं।
अब मेरा दिमाग अतीत में थोड़ा सा और पीछे गया, 2014 चुनाव। ऐसे ही बड़े-बड़े बैनर्स मैंने उस समय भी देखे थे। वहां बस उपलब्धियों की संख्या थोड़ी सी ज़्यादा थी, बाकि कहानी बिल्कुल एक समान थी।
यहां पर एक ध्यान देने लायक बात है कि जिन तीन होर्डिंग्स के बारे में मैंने आपको अभी-अभी बताया, ये अलग अलग राजनीतिक दलों/सरकारों के थे। इससे यह बात तो साफ हो जाती है कि कोई दल विशेष या व्यक्ति विशेष ऐसा नहीं कर रहा है। शायद यह आजकल का फैशन है। चलो, मुझे इन राजनीतिक दलों के फैशन से कोई परेशानी नहीं है।
मुझे परेशानी तब हुई जब मैंने कुछ आंकड़ें देखे। वहीं आंकड़े मैं आपके सामने रख रहा हूं-
- “हम हमारी नीतियों से संबंधित विज्ञापनों पर 8 करोड़ रुपया/महीना खर्च कर रहे हैं”, आप (आम आदमी पार्टी) सरकार का दिल्ली हाईकोर्ट को दिया गया एक आधिकारिक बयान।
- पिछली UPA की सरकार ने 3 साल में प्रचार पर लगभग 2048 करोड़ रुपये खर्च किये,- RTI से मिली एक जानकारी के अनुसार।
- NDA सरकार ने एक साल (2014-15) में “स्वच्छ भारत मिशन” के विज्ञापनों पर 94 करोड़ रुपये खर्च किए थे, – पेयजल और स्वछता मंत्रालय द्वारा प्रदान की गयी RTI जानकारी के अनुसार।
यह बड़ी ही साफ सी बात है कि लोगों ने इन नेताओं को वोट दिया और चुना ताकि वे सरकार बनाए और उनके भले के काम करें। तो फिर जिस काम के लिए इन्हें चुना गया है, उसे ये नेता एक बखान/उपलब्धि के तौर पर क्यों पेश कर रहे हैं? क्या वे लोग ऐसा सोचते हैं कि उन्हें सिर्फ सरकारी गाड़ी और कोठी का प्रयोग करने के लिए चुना गया था और जनता की भलाई का काम करके उन्होंने कोई एहसान किया है?
इनके प्रचार के पैसे आते कहां से हैं?
खैर, मुझे इन लोगों की गलतफहमी से भी कोई परेशानी नहीं है। मुझे परेशानी है तो सिर्फ इस उपलधियों के बखान पर खर्च हो रहे पैसों से। ये पैसे आखिर आते कहां से हैं? आप जब तक जवाब सोचिए तब तक बहुत ही सरल शब्दों में आपको दो परिभाषाएं देता हूं।
नेता- “जनता की सेवा करने वाला”
प्रशानिक अधिकारी- “जनता के आधिकारिक सेवक”
मैंने इन आधिकारिक सेवकों को कभी ऐसा प्रचार करते हुए नहीं देखा। अब अगर ये दोनों ही जनता के सेवक हैं, तो प्रशानिक अधिकारियों को अपने किए कामों का प्रचार करने का अधिकार क्यों नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सिर्फ नेता या सरकारें ही प्रचार लायक काम करती हैं?
खैर, यह नापने का तरीका हमें नहीं पता है कि कौन ज़्यादा काम कर रहा है और कौन कम? लेकिन हमें इतना ज़रूर पता है कि जनता का पैसा जो जनता के हित के कामों में प्रयोग हो सकता है, वह इन होर्डिंग्स में बर्बाद हो रहा है।