Site icon Youth Ki Awaaz

“लोग मेरा मज़ाक उड़ाते और कहते कि BA तो रिक्शा वाले भी किए हुए हैं”

उत्तर प्रदेश और बिहार अपने ग्रामीण परिदृश्य के लिए जाने जाते हैं। किसी भी शहर के लोग, इन राज्यों से आए लोगों को भाषा, वेश-भूषा और रहन-सहन से पहचान लेते हैं।

इन राज्यों को बीमारू प्रदेश के नाम से भी जाना जाता है। पढ़ने-लिखने वाले लोग यह कहते हैं कि सबसे ज्यादा आईएएस अधिकारी बिहार से ही होते हैं। यह बात कुछ हद तक सही भी है लेकिन दिल्ली, मुम्बई जैसे कई अन्य शहरों में मज़दूरी के काम में भी यही सबसे ज़्यादा देखे जाते हैं।

दिल्ली के सीलमपुर का मज़दूर हो या मुंबई में सड़क किनारे गोलगप्पे का ठेला लगाने वाला, अगर आप उस आदमी से पूछेंगे तो वह बता देगा कि वह बिहार से है या वो यूपी से है।

यूपी-बिहार के मेहनती लोग

बिहार के लोग बहुत मेहनती होते हैं, जिस काम में लग जाएंगे उसे पूरी मेहनत से करते हैं। दिल्ली के सदर बाजार में बोझा उठाने से लेकर ठेला लगाने तक,बिल्डिंग में मज़दूरी करने से लेकर स्टेशन पर कूली बनने तक, सारे कामों में सबसे ज़्यादा बिहार के लोग मिल जाते हैं।

बिहार का आदमी या तो अमीर है या फिर एक दम गरीब। बीच वाला कोई कॉन्सेप्ट नहीं है क्योंकि जो पढ़-लिख लेते हैं वे अधिकारी बन जाते हैं, बाकी दिल्ली निकल लेते हैं।

फोटो क्रेडिट- Getty images

यही मेहनत का जज़्बा पढ़ाई में भी है। वहां का पढ़ने वाला युवा बहुत मेहनती है (बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में साथ रहे दोस्तों के हिसाब से) मैंने व्यक्तिगत तौर पर उन्हें पढ़ते हुए देखा है। मैंने बिहार के अपने दोस्तों को देखा है कि उन्हें लूसेन्ट की पूरी किताब रटी होती है। यह अगर मात खाते हैं तो वह है इंग्लिश में।

यह माना जाता है कि उत्तर  प्रदेश में लोगों के पास ज़मीन बहुत ज़्यादा होती है। यूपी से मेरे दोस्त बताते हैं कि यहां लड़के की शादी ज़मीन देख कर ही होती है, कुछ को छोड़ कर देखें तो लोग बहुत ज़्यादा मेहनत वाला काम नहीं करना चाहते हैं।

मेरे दोस्त बताते हैं कि वहां के लोगों के पास कुछ ज़मीन खाली पड़े-पड़े बंजर हो जाती है, तो कुछ लोग ज़मीन और खेती-बाड़ी देख नहीं पाते और कुछ तो ऐसे हैं जिनपर मुकदमा ही चलता रहता है।

उत्तर प्रदेश और बिहार में एक बात समान है। वह यह कि ज़्यादातर परिवार और बच्चोंं का एक ही ख्वाब होता है और वह ख्वाब होता है सिविल सर्विसेज में जाने का ।

जो माँ बाप सब्र रख पाते हैं वे अपने बच्चे को तैयारी करने का समय देते हैं। उनकी योजना स्पष्ट रहती है कि किसी यूनिवर्सिटी के कॉलेज से कोई डिग्री भी करते रहो और साथ में तैयारी भी करो।

यहां के लोगों का मानना है कि आईएएस की तैयारी करोगे तो क्लर्क बन ही जाओगे लेकिन किसी का इस बात पर ध्यान कभी नहीं जाता कि क्लर्क, ज़िला नहीं संभाल सकता और डीएम क्लर्क का काम नहीं कर सकता है। लोगों को समझना होगा कि सिलेबस नाम की भी एक चीज़ होती है उसके हिसाब से किसी एक चीज़ की तैयारी करना बेहतर होता है।

इसी दौरान जो मिडिल क्लास परिवार से तालुक्क रखते हैं, उन्हें आस पास वालों को बताने के लिए कुछ ना कुछ खबर भी चाहिए होती है। फिर चाहें वे खबरें सच्ची हो या झूठी जैसे कि कई लोगों को यह कहते हुए आपने भी सुना होगा,

मेरे बेटे का बैंक में हो रहा था लेकिन हमने मना कर दिया कि IAS ही करो।

ऐसा बोलने वालों के मन में दरअसल होता तो यह है कि जल्दी से जल्दी बेटे की कोई भी सरकारी नौकरी लगे ताकि वे लोगों को बता पाएं की बेटा सरकारी नौकर हो गया है। कुछ लोग तो बेटे की शादी इस बात पर तय कर देते हैं कि बेटा IAS का कोर्स कर रहा है, दो साल बाद सीधे भर्ती हो जाएगा ।

बच्चों के निर्णायक गण

वैसे तो भारत के अमूमन परवार में यही रीत है लेकिन यूपी-बिहार के मेरे दोस्त बताते हैं कि उनके यहां बच्चों की शादी के लिए लड़का-लड़की देखना हो या उनके विषय का निर्धारण, हर एक निर्णय लेने का जन्मसिद्ध अधिकार परिवार वाले अपने पास उसी तरह सुरक्षित रखते हैं, जैसे मृत्यु का फैसला यमराज ही सुनाते हैं और उसे मानना भी होता है ।

यहां यह पहले से ही निर्धारित होता है कि बारहवीं में लड़का विज्ञान ही पढ़ेगा और लड़की गृह विज्ञान तथा कला का विषय। बारहवीं में अपेक्षा होती है कि बच्चा 80% अंक तो लाए ही वरना पढ़ने का कोई मतलब नहीं है। इसके बाद यह भी निश्चित ही है कि बारहवीं के बाद लड़का ज़्यादातर आईआईटी/जेईई की परीक्षा में बैठेगा या मेडिकल के लिए नीट में (यह उन घरों में होता जिनके माता पिता थोड़ा सा पढ़े होते है)।

परिवार वालों की प्लानिंग फुल प्रूफ रहती है कि हुआ तो ठीक वरना पैसा है तो कोचिंग कर लेंगे। जिसके पास ज़्यादा ही पैसा होता है वह प्राइवेट कॉलेज से पढ़ाई कर लेता है बाकी का यह है कि लड़के-लड़कियां कुछ विश्वविद्यालयों से मान्यता प्राप्त कॉलेजों में एडमिशन ले लेते है, जहां बस परीक्षा देने जाना होता है।

फोटो क्रेडिट- Getty images

कुछ कॉलेज में तो ऐसा है कि पैसे दे दो तो डिग्री ही घर आ जाएगी कहीं जाने की ज़रूरत ही नहीं है। हर तरह की सुविधा पैसे के अनुसार उपलब्ध रहती है। आजकल उत्तर प्रदेश में एक डिप्लोमा बहुत ज़्यादा चल रहा है वह है डिप्लोमा इन एलीमेंट्री एजुकेशन जिसे पहले बीटीसी के नाम से जाना जाता था।

आजकल हर पिता चाह रहा है कि उसका बेटा या बहू यह डिप्लोमा कर ले क्योंकि इसके बाद सिर्फ एक टीईटी देकर प्राइमरी स्कूल में मास्टर बनने की गुंजाईश बनी रहती है। इससे यह होगा कि प्राइमरी स्कूल मे रोज़ जाने का झंझट नहीं, पढ़ाना तो है ही नहीं और सबसे बड़ी बात बच्चा घर के आस-पास रहेगा।

सरकारी नौकरी से ही है सम्मान

मतलब नौकरी भी होगी और वह भी घर के घर में। दूसरा सैलरी 35000 से ज़्यादा है, इससे एक सबसे बड़ा फायदा यह हो जाता है कि लड़के की शादी का वक्त जब करीब आने लगता है तो बिना मांगे ही लड़की वाले खुद चार पहिया दे ही देते हैं। जिसकी सब उम्मीद लगाए बैठे रहते हैं।

उत्तर प्रदेश या बिहार में हर परिवार चाहता है कि उनका लड़का (लड़की का कुछ नहीं, बस पढ़ ले उतना बहुत है) सरकारी नौकरी करे। यहां यह है कि सरकारी नौकरी भले ही कॉन्स्टेबल की हो लेकिन प्राइवेट नौकरी अगर बैंक मैनेजर की भी है, तो लोग सम्मान नहीं देते हैं। इसलिए कुछ लोग लाखों की रिश्वत देकर भी नौकरी करने को तैयार हो जाते हैं।

इन राज्यों से अगर लड़की या लड़का घर से दूर जाकर नए ज़िले या राज्य में पढ़ने के लिए पहुंच जाए तो वे किसी क्रांतिकारी से कम नहीं है। बाहर पढ़ने ना देने का कारण एक ही होता है कि बच्चा घर वालों को भूल जाएगा या अपनी पसंद की शादी करके वहीं रह जाएगा। अखबारों की उलजुलूल खबरों को पढ़कर वे भयभीत हो जाते हैं।

मेरी कहानी

मैने जब इंटरमीडिएट में विज्ञान विषय पढ़ा तो उसके बाद मैंने और मेरे एक दोस्त ने आगे बीए करने की ठानी। मेरा बीएचयू में सेलेक्शन हुआ जहां जाने का फैसला बहुत मुश्किलों के बाद फाइनल हुआ। वह भी इस बात पर की कुछ और भी करते रहना है साथ में।

मैं लोगों को जब बताता था कि बनारस से बीए कर रहा हूं तो लोग हंसते थे, मजाक उड़ाते थे कि क्या ही तीर मार दिया है, बी ए की डिग्री तो यहां रिक्शा वाले भी किए हुए हैं।

उसके बाद जब मेरा सलेक्शन टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस में हुआ और मैंने वहां जाना तय किया तब तो सबने ऐसा व्यवहार किया जैसे कि मैंने उसकी परीक्षा पास करके कोई अपराध ही कर दिया है।

फोटो क्रेडिट- getty images

उस वक़्त मैं बनारस में था। मैंने घर पर फोन करके बताया कि TISS का  इंटरव्यू भी निकल गया है और मेरा फाइनल सेलेक्शन हो गया है।सामने से घरवालों का जवाब आता है,

क्या ही कर लिया? चुपचाप घर आओ पहले।

मैं सोचने लगा कि क्या सच में कुछ गलत तो नही कर दिया। यहां समस्या यह थी कि मैं दूसरे राज्य जा रहा था। दूसरा एलएलबी, एमबीबीएस या इंजीनियरिंग कोर्स की जगह ऐसा कोर्स चुना था जिसके बारे में घर वाले जानते ही नहीं थे। घर वालों के लिए समस्या यह थी कि जब इतनी दूर पढ़ने जाऊंगा तो आखिर लोगों को क्या बताएंगे?

जाने वह कैसे लोग हैं

मैं हमेशा इस बात को सोचता हूं कि यूपी-बिहार में वो माँ-बाप कैसे सब्र करते होंगें, जिन्होंने अपने बेटे को आसानी से कह दिया कि बन जाओ क्रिकेटर, पहलवान, लेखक, आदि।

हम ऐसी सदी में पहुँच गए हैं जब हमारे देश के प्रधान मंत्री लाल किले की प्राचीर से कह रहे होते हैं कि हम स्टार्ट-अप को बढ़ावा देंगे लेकिन ऐसे माँ बाप का क्या जो सिर्फ सरकारी नौकरी ही कराना चाहते हैं?

यूपी-बिहार में जब भी सुबह कोई पिता अखबार पढ़ते हैं तो देखते हैं कि राज्य की क्रिकेट टीम में ज़िले के एक लड़के का चयन हुआ है। खबर पढ़ते ही वे तुरंत लड़के को बुला के बताते हैं

देख रहे हो, कैसे यह खिलाड़ी बन गया और एक तुम हो।

उस वक़्त हर लड़के को यह बात पिता से बोल देनी चाहिए

जब मैं क्रिकेट खेलने जाता था तब तो आप मैदान में आकर उसी बैट से मेरी पीठ लाल कर देते थे, घर से बाहर निकलने में पाबंदी लगा देते थे,  दोस्तों को मना कर देते थे कि मैं नहीं जाऊंगा खेलने और क्रिकेट का बैट, बैडमिंटन का रैकेट, पतंग, कैरम, चैस सब जला देते थे

पिता जब भी अस्पताल जाते हैं तो डॉक्टर को देखते ही तुरंत बोलते हैं

देखो कैसे भीड़ लगी है, तुम भी ऐसे बनते तो घर वालों का भी इलाज कर दिया करते, कहा था तुमसे कि कर लो एमबीबीएस, पैसे देकर करवा ही देते कहीं से।

मुझे लगता है कि उस वक़्त भी जबाब दे देना चाहिए कि डॉक्टर बनने के लिए रुचि होनी चाहिए लेकिन पिता को लगता है कि डॉक्टर बनने के लिए बस डिग्री चाहिए होती है।

फिल्म 3 इडियट्स का दृश्य, फोटो क्रेडिट- YouTube

डिग्री की दीवानगी

आज कल जुगाड़ से सब होता है, डिग्री बिक रही हैं । पिता के पास खूब पैसा है, चाहते हैं लड़का एक डिग्री पूरी करे और साइड में कोई दूसरी डिग्री करता रहे। अगर आईएएस की डिग्री होती तो वे अपने बच्चों से उसे भी करा चुके होते।

उन्हें लगता है कि पढ़ना ही तो है, हर कोई सब कुछ पढ़ सकता है लेकिन क्या यह वाकई सच है? हाँ पढ़ तो सकता है लेकिन विशेष योग्यता एक ही चीज़ में रख सकता है। तभी तो इतनी सारी डिग्रियां बनी है। विशेष योग्यता रख कर ही कोई आविष्कार कर सकता है, वैज्ञानिक बन सकता है, किताब लिख सकता है, स्टार्ट अप चला सकता है। यह सब करने के लिए क्षमता पहचानने की ज़रूरत होती है।

हर पिता चाहता है उसका बेटा गौरव अग्रवाल, विराट कोहली, बजरंग पुनिया, नवाजु़द्दीन सिद्दीकी, श्रेया घोषाल, हिमा दास, इंदिरा नूई, चेतन भगत, सचिन पायलट जैसे बने लेकिन वे कभी नहीं सोचते कि मैं भी इन लोगों के पिता जैसा बनूं। एक अच्छा पिता जो अपने बेटे, बेटियों को मौका दे, ऐसा वातावरण दें जहां वे अपनी रुचि के हिसाब से अपने भविष्य का चुनाव करते हुए, एक चीज़ पर फोकस कर सकें।

अपने बेटे को किसी कामयाब बेटे की तरह प्रेरित करने में कोई बुराई नहीं है, बुराई तब है जब कोई पिता कामयाब बेटे के पिता जैसा नहीं बन पाता है।

Exit mobile version