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“दादाजी के अकाउंट से पैसों की अवैध निकासी हुई मगर पुलिस ने एक्शन के बदले पैसा मांगा”

एफआईआर की कॉपी

एफआईआर की कॉपी

वेतन के रूप में दादा जी को मोटी रकम मिलती थी, जिन्हें वह या तो यात्रा करने में या हम भाइयों को पढ़ाने में लगा देते। देशभर के भूगोल से लेकर जीवन तक की उन्हें अच्छी समझ थी, जिस कारण हमेशा ही जिन गाँवों में भी वह शिक्षक बनकर पढ़ाने गए, सबके चहेते बने रहे।

अपनी मोटी रकम से उन्होंने जो एक और काम किया, वह थी ज़मीन की खरीदारी। बाबा दो भाई थे, एक भाई मेहनती ना होकर यूं ही आराम पसंद थे, जबकि बाबा शुरू से क्लियर रहे कि जब तक कुछ ना कुछ कर रहे हैं, तभी तक ज़िंदा हैं। वह जब तक शिक्षक रहे, या तो पैदल या साइकिल से स्कूल जाते रहे।

हम शुरू से ही गाँव में रहे। बाबा, मम्मीपापा और भाई सबको गाँव का जीवन ही पसंद था मगर गाँव से दूर सीतामढ़ी (सीता माईया की जन्मभूमि) में 90 के दशक में ही बाबा ने एक प्लॉट खरीदा था। यह शहर में अपने कमाई से खरीदी गई पूरे गाँव भर से पहली ज़मीन थी। इसलिए बाबा को इस प्लॉट से बहुत लगाव था।

उनकी बड़ी तमन्ना थी कि इस ज़मीन पर ही घर बनाया जाए। आसपास सारे ज़मीन पर निर्माण हो चुके थे और हमारी ज़मीन खाली पड़ी थी।बाबा की उम्र लगभग 80 हो चुकी थी मगर वह स्वस्थ थे। मैंने उस रोज़ सोचा कि क्यों ना हमलोगों की ज़मीन पर निर्माण कार्य शुरू कर दी जाए।

मैंने फैसला किया कि अगले कुछ महीनों में जब तक शहर में घर तैयार ना हो जाए, तब तक मैं घर पर ही रहूंगा। बाबा की जो सेविंग्स थी, उसके बल पर इतना बड़ा निर्माण सम्भव नहीं था। हम बैंक गए और कुछ भाग-दौड़ के बाद हमें बाबा के नाम पर पेंशन लोन मिल गया।

निर्माण कार्य ज़ोर-शोर से आरम्भ हो गया रोज़रोज़ बाबा को शहर ना दौड़ना पड़े इसलिए एक बड़ा सा अमाउंट वह मुझे दे दिया करते थे। मैं पैसा बैग में रखता और लेबर से लेकर मिस्त्री तक सबको बिंदास पैसे देता।

खैर, मैं रोज़ मोटरसाइकिल से शहर आता और शाम को वापस घर लौट जाता। शहर में रुकने के हज़ार अवसर होने के बावजूद भी मुझे घर लौट जाना सबसे सही लगता था। मैं अकेले ही सब कुछ देख रहा था। बालू, ईंट यह सब जीवन के अलगअलग कैरेक्टर बन गए थे।

पुलिस ने मांगे पैसे

उन्हीं दिनों की बात है जब निर्माण कार्य देखने मम्मी और छोटी बहन भी मेरे साथ शहर आईं इस बीच सामने वाले अंकल के यहां मोटरसाइकिल रखकर हमलोग घूमने निकल गए। निर्माण के सारे सामान भी उन्हीं के कैंपस में रखे जाते थे। वह अंकल बाबा के दोस्त ही थे। यानि हमारे हिसाब से वह एक सुरक्षित जगह थी।

देर शाम को हम घूमफिरकर लगभग साढ़े आठ बजे लौटे। मम्मी तब तक घर देखने मोबाइल टॉर्च जलाकर अंदर चली गई, इधर मैं यूं ही बाहर टहलता रहा। उस रात शहर में ही एक रिश्तेदार के यहां ठहरने का प्लान बन चुका था। मम्मी जब बाहर आईं, तब मैं अंकल के कैंपस में गेट खोलकर मोटरसाइकिल लाने गया।

मैंने देखा वहां मोटरसाइकिल नहीं थी, मुझे लगा यहीं कहीं होगी मगर कुछ वक्त बाद हमें अंदाज़ा हो गया कि बाइक चोरी हो गई है।इस बीच इधर-उधर अपनी बाइक तलाशने के क्रम में देखा कि थाना प्रभारी की गाड़ी जा रही है। मैंने उनसे कहा, “आपके पुलिस स्टेशन के इलाके से मेरी मोटरसाइकिल चोरी हो गई है।

मैंने देखा कि उनलोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने मुझे ही कहा दिया कि जाओ कल सुबह एफआईआर हो जाएगा। मैंने कहा, “चोरी आज हुई है।जवाब में थनाध्यक्ष बोले, “आज के ही डेट में कल एफआईआर हो जाएगा। जाओ!”

मैं चला आया मगर रातभर नींद नहीं आई। कुछ दोस्तों ने कॉल पर कहा कि भाई इंडिया में यह सब आम बात है। यहां चोरी हुई चीज़ नहीं मिलती।

मैं सुबह पुलिस स्टेशन पहुंचा। थनाध्यक्ष के कमरे में प्रधान सेवक और पटेल की तस्वीर लगी थी। मैं कुछ देर तक उनसे बात करते हुए उनके कमरे को ऑब्जर्व करता रहा। लगभग पांच दफा उनसे कहने के बाद उन्होंने आवेदन ले लिया और बोले कि बाद में आकर एफआईआर की एक कॉपी ले जाना।

थाने में दर्ज़ की गई कंप्लेंट की कॉपी।

अगले दो दिन तक पुलिस स्टेशन दौड़ने के बाद एक कर्मचारी ने कहा, “पांच सौ रुपये दो तो सनहा की एक कॉपी मिल जाएगी।” मैंने थानाध्यक्ष से कहा, “बाइक तो मिल नहीं रही और ऊपर से मैं आपको पांच सौ रुपया दूं!”

उन्होंने कहा, यह तो कम है। हज़ार रुपये तक लेते हैं।मैंने उन्हें जवाब देते हुए कहा, “ठीक है, लेते होंगे मगर मैं नहीं दूंगा।मैं थाना से वापस चला आया। सोचा, कोई और वरीय पदाधिकारी आएंगे तो उनसे बात करूंगा मगर जब भी जाता, वे नहीं मिलते। अंततः कुछ रुपये देकर मुझे एफआईएर की एक कॉपी मिल गई।

बैंक अकाउंट से पैसों की अवैध निकासी पर भी पुलिस की चुप्पी

इसी बीच एक और घटना हो गई। निर्माणाधीन मकान अब ढलाई की स्थिति में थी और मुझे बड़ी मात्रा में छड़, गिट्टी, बालू और सीमेंट लेने थे। बाबूजी के हस्तक्षेप से मैंने उनके एक परिचित दुकानदार से ये सामान लेना तय किया और दुकानदार को 47 हज़ार रुपये कैश के रूप में 53 हज़ार रुपये चेक के रूपडवांस दे दिया। यानि दुकानदार को मैंने एक लाख रुपएडवांस दिए मगर जिस दिन दुकानदार ने तय किया था कि वह सामान गिराएगा, उस दिन उसने सामान दरसल गिराया नहीं।

मैंने उस दुकानदार से चेक वापस लेकर अपने बैग में रख लिया और जितना कैश दिया उतने का ही सामान लिया। अंततःजनवरी को छत की ढलाई हो गई। ढलाई के बाद मैं बहुत ही रिलैक्स हुआ, लगा एक जर्नी समाप्त हुई है।

17 जनवरी को हम फिर से सीतामढ़ी काम शुरू करवाने के उद्देश्य से पहुंचे। मैंने बाबा को यह कहकर बैंक पहुंचा दिया कि आप पैसे निकाल लीजिए, मैं किसी और काम के लिए जा रहा हूं आधे घंटे बाद बाबा ने बताया कि अकाउंट से पैसे गायब हैं। मैंने कहा, “यह कैसे हो सकता है। आप पासबुक अपडेट करवा लीजिए और प्लॉट पर लौट आइए।

शाम को जब हम घर पहुंचे, तब बाबा ने मुझसे कहा कि देखो राहुल कुमार ने पैसा निकाल लिया है। उनका सीधा निशाना जिस तरफ था, एक पल के लिए मेरा ध्यान भी उधर नहीं गया। मैंने देखा कि राहुल कुमार ने 15 जनवरी को ही 53,000 रुपये चेक से  निकाल लिया था।

अखबार में प्रकाशित खबर।

मैंने अपना बैग चेक किया तो पाया कि मेरे बैग से 53,000 का वह चेक गायब हो चुका था। मैंने देखा कि बैग से वह साइन किया हुआ चेक और डायरी भी गायब है, जिसपर मैं ठिकेदार को दिए पैसों का हिसाब लिखा करता था। यानि अब तक ठिकेदार को दिए लगभग 65 हज़ार रुपये का भी कोई सबूत नहीं बचा।

बाबा बारबार कहने लगे कि तुम्हें वह चेक तभी फाड़ देने थे मुझे कुछ समझ नहीं रहा था, सिवाय इसके कि चेक वापस लेने पर उसे फाड़ दिया जाता है। मैं पूरी रात रोता रहा और सुबह उठकर तय किया कि अब तो सिस्टम से लड़ना है।

सबसे पहले बैंक पहुंचा। मैनेजर छुट्टी पर थे फिर सारा केस अकाउंटेंट को बताया और उनसे पूछा कि आप मुझे उस व्यक्ति की कोई पहचान पत्र दीजिए जो उससे लिया गया हो, क्योंकि 50 हज़ार से ऊपर की निकासी हुई है। वह बोले, “आपका चेक था, आपका साइन था, हमने पैसा दे दिया। अब हम कुछ नहीं कर सकते।

अगले दस दिन तक मैं बैंक दौड़ता रहा मगर मैनेजर से मुलाकात नहीं हुई। मैंने कई जगहों पर आरटीआई डाला, जिसका अभी तक कोई जवाब नहीं आया है।

मैं मानता हूं कि मेरा चेक था, मेरे साइन थे फिर भी इतनी बड़ी रकम बिना कोई आईडी लिए कैसे दी जा सकती थी? मेरे दिमाग में बार-बार यही रहा था जबकि खुद मैं उस बैंक में कई दफा गया था और मुझसे चेक के पीछे पैन नंबर लिखवाए गए थे। फिर?

एसपी से नहीं मिलने दिया गया

एक पल के लिए लग रहा था पैसे मिल जाएंगे फिर लगता पता नहीं क्या होगा। बाबा को जब भी देखता, सिस्टम से लड़ने की ताकत बढ़ जाती। जब पुलिस स्टेशन जाता तो कभी थानाध्यक्ष मिलते ही नहीं थे, तो कभी यह कहते थे कि शाम को आइए। एक रोज़ जब एसपी से मिलने गया, तब उनके गार्ड ने रोक दिया।

थाने में दर्ज़ की गई कंप्लेंट की कॉपी।

उन्होंने कहा कि ऐसे एसपी से नहीं मिल सकते। मैंने उन्हें सारी बात बताई फिर उन्होंने मुझे अंदर जाने दिया। अंदर एसपी तो नहीं मिले मगर एक व्यक्ति ज़रूर मिला जिसने थानाध्यक्ष को फोन करते हुए यह जानकारी दे दी कि एक लड़का शिकायत लेकर आया है। थनाध्यक्ष ने कहा, “उसे यहां भेज दो।”

उसने मुझे कहा कि मैं पुलिस स्टेशन जाऊंगा तो वहां मेरा काम हो जाएगा। इसके बाद भी दौड़ता रहा मगर कोई फायदा नहीं हुआ। सीतामढ़ी नाम से फेसबुक पेज है, मैंने उन्हें लिखा मगर उन्होंने भी कोई जवाब नहीं दिया।

खैर, अंततः थनाध्यक्ष ने मेरी बात सुनी और मुझसे ही बोले कि आप बताइए किस पर केस दर्ज करें। मैं समझ गया कि यहां कैसे लोग भरे पड़े है। उन्होंने मेरी बात तो ज़रूर सुनी मगर कोई फायदा नहीं हुआ। मेरी तमाम परेशानियों के संदर्भ में कोई भी हल नहीं निकला।

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