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“मैं चल नहीं पाता लेकिन उड़ता हूं”: पैरा एथलीट शम्स आलम

खुले समुद्र में तैरने का विश्व रिकॉर्ड बनाने वाले शम्स आलम का कहना है कि भले ही उनके दोनों पैर नहीं हैं लेकिन वह उड़ते हैं। अंतरराष्ट्रीय पैरा स्विमर शम्स आलम ने 2018 में इंडोनेशिया (जकार्ता) में हुए एशियन पैरा गेम्स में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया था।

2010 में एशियन गेम्स में कराटे के मज़बूत दावेदार होने के बावजूद उन्हें अपने स्पाइनल कॉर्ड में ट्यूमर की वजह से एक बड़ा मौका खोना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और आज अंतरराष्ट्रीय पैरा स्विमर के रूप में अपनी एक अलग पहचान बनाई है।

राष्ट्रीय खेल दिवस के मौके पर शम्स आलम ने अपने करियर और पैरा खिलाड़ियों को आने वाली दिक्कतों पर YKA से बात की।

प्रियंका: आज आपकी पहचान एक अंतरराष्ट्रीय पैरा स्विमर के रूप में है लेकिन हम जानना चाहेंगे कि तैराकी का यह गुण आपके अंदर कैसे आया?

शम्स आलम: प्रियंका, मैं बिहार के मधुबनी ज़िले के रथौस गॉंव से हूं। यह सैलाबी इलाका है और अक्सर वहां सैलाब आते हैं। कितने सालों से मैं देख रहा हूं कि बाढ़ से हमारी फसलें खराब हो जाती हैं, गॉंव के गॉंव डूब जाते हैं लेकिन फिर भी आज तक उन इलाकों के लिए कोई खास कदम नहीं उठे हैं।

शम्स आलम

शायद यही वजह है कि बचपन से ही पानी हमारे लिए कभी डर का विषय नहीं रहा और हमारा खेलना-कूदना सब पानी के ही बीच रहा और हम नैचुरली तैराक बन गए। आप समझ ही सकती हैं कि बाढ़ आ जाए तो इससे बचने के लिए इंसान क्या करेगा? बेशक वह तैरेगा और इस तरह तैराकी मेरे जीवन का एक हिस्सा थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि गॉंव में आती आपदाओं ने मुझे तैराक बनाया।

इस विषय में मेरी मॉं बताती हैं कि जब मैं 2 साल का था, तब हमारे गॉंव के पास एक तालाब हुआ करता था, जो कि करीब 7-800 मीटर तक फैला था। मैं उस वक्त उस तालाब को तैरकर पार कर लिया करता था। लोग मुझे देखते और तालियां बजाकर अचरज करते कि इतना छोटा बच्चा यह तालाब कैसे पार कर गया। इन सब चीज़ों का मुझपर बहुत प्रभाव पड़ा और तैराकी से मेरा एक कुदरती रिश्ता बन गया।

प्रियंका: आप छोटी सी उम्र में ही पढ़ाई के लिए मुंबई आ गए थे। तब आपने स्विमिंग से कैसे नाता जोड़े रखा?

शम्स आलम: जी बिल्कुल, मैं घर में सबसे छोटा था तो मुझे अच्छी शिक्षा देने के लिए मेरे मॉं-बाप ने मुंबई भेज दिया था। मैं महज़ 6 साल का था जब मैं बिहार से मुंबई आया। यहां पर मेरे भाई थे और मुझे अच्छे से याद है कि संडे का दिन था जब मेरे भाई मुझे हाजी अली ले गए। मेरे भाई ने मुझे कंधों पर बैठा रखा था और रोड से समंदर दिखाते हुए उन्होंने कहा,

शम्स तुम गॉंव के पोखर में तो तैर लेते हो लेकिन क्या तुम इसको पार कर लोगे?

समंदर की गहराई और लंबाई से अंजान मैं बोल पड़ा,

हां, इस पोखर को भी तैर लूंगा।

यह बात आज भी मुझे बहुत याद आती है। खैर, मुंबई में मुझे स्विमिंग पूल का कोई आइडिया नहीं था, इसलिए मेरा इंटरेस्ट कहीं ना कहीं स्विमिंग से कम हो गया और मैं कराटे में दिलचस्पी लेने लगा। ऐसा होना संभव भी था, क्योंकि मेरे नाना और भाई लोगों का नाता भी कुश्ती से था। इस तरह से खेल रग-रग में था। कराटे में मेरा करियर बहुत सुनहरा रहा। डिस्ट्रिक्ट से लेकर इंटरनैशनल लेवल तक मैंने कराटे में करीब 50 मेडल जीते।

शम्स आलम

प्रियंका: कहते हैं कि पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब। आप तो खिलाड़ी थे फिर पढ़ाई कैसे मैनेज की?

शम्स आलम: पढ़ाई बहुत अच्छी नहीं चल रही थी। मैं मुंबई आया ही पढ़ने के लिए था लेकिन 6 साल की उम्र से मैं एक बैचलर लाइफ जी रहा था, जहां मुझे खुद ही खाना बनाना था, खुद ही अपना ख्याल रखना था। मेरे साथ ना ही मेरी माँ थीं, ना पिताजी थे, ऐसे में पढ़ाई से ज़्यादा उम्मीदें नहीं बांधी जा सकती थीं। हालांकि फिर भी मैंने सरकारी स्कॉलरशिप की परीक्षाएं क्वालिफाई की।

फिर स्कूल खत्म करने के बाद इंजीनियरिंग की, जहांं मैंने फर्स्ट क्लास में कॉलेज पास किया। तो यह कह सकता हूं कि स्पोर्ट्स को साथ रखते हुए मैंने स्कूल से लेकर कॉलेज तक का सफर फर्स्ट क्लास में पास किया।

प्रियंका: आपकी डिसेबिलिटी जन्म से नहीं थी, फिर यह सब कैसे हुआ?

शम्स आलम: यह 2010 की ही बात है जब मेरे स्पाइनल कॉर्ड में ट्यूमर आ गया था। उस वक्त मैं एशियन गेम्स में कराटे का मज़बूत दावेदार था लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था और मैं पैरेलाइज़्ड हो गया।

प्रियंका: आपने इस ट्यूमर के साथ कैसे डील किया?

शम्स आलम: दरअसल, मैंने अपनी इंजीनियरिंग के बाद जॉब ज्वाइन की। जब मुझे एक जगह से दूसरी जगह चलना होता था तो मुझे काफी तकलीफ होती थी। मुंबई में ट्रेन से सफर करना बेहद मुश्किल हो जाता था। तब मैं सोचता था कि मैं इतना कराटे करता हूं, इतना फिट हूं फिर मुझे चलने में इतनी परेशानी क्यों हो रही है? तब जाकर मैंने न्यूरोसर्जन से कॉन्टैक्ट किया, जिन्होंने मुझे MRI कराने की सलाह दी। MRI कराया तो पता चला कि एक ट्यूमर है, जो मेरे Nervous System को कॉम्प्लेक्स कर रहा है।

डॉक्टर्स ने उस वक्त मुझसे कहा कि ऑपरेशन से यह ठीक हो जाएगा और अगर ऑपरेशन नहीं कराया तो मेरी जान भी जा सकती है। उनके हिसाब से ऑपरेशन के 10-15 दिन बाद मैं ठीक हो जाता। मैंने उन्हें बताया भी कि मैं एशियन गेम्स के लिए सेलेक्ट होने वाला हूंं। इसपर उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि जान रहेगी तो मैं सबकुछ कर सकता हूं और ऐसा कहते हुए उन्होंने मेरा विश्वास भी जीत लिया।

दरअसल, हम पढ़े-लिखे लोगों की गलती भी यही होती है कि हम डॉक्टर्स पर जल्दी ही यकीन कर लेते हैं। वह कहीं-ना-कहीं एक अजीब सा फैसला था मेरी लाइफ में। यह मेरी ज़िन्दगी की एक बड़ी गलती थी कि मैंने इसके लिए किसी से मशवरा भी नहीं लिया। नतीजतन मेरी पूरी लाइफ बदल गई।

आज मैं सोचता हूं कि जो हुआ सो हुआ लेकिन अगर मेरी लाइफ चली जाती तो? भले ही मैं एशियन गेम्स में भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाया लेकिन वह सपना 8 साल बाद एशियन पैरा गेम्स में पूरा हुआ।

आज मेरे दोनों पैर नहीं हैं लेकिन मैं उड़ता हूं। 2010 से पहले मैं कभी फ्लाइट में नहीं बैठा था लेकिन आज मैं फ्लाइट में ही जाता हूं। तो हां कह सकता हूं कि मेरे लिए ऊपर वाले का कुछ और ही प्लान था और जो भी था वह बेहतर था।

शम्स आलम, फोटो- फेसबुक अकाउंट

प्रियंका: इतने बड़े हादसे का आपने सामना कैसे किया?

शम्स आलम: मैं घर का सबसे छोटा बेटा था। जॉब लग चुकी थी, मेरे मॉं-बाप भी मुंबई आ चुके थे। कराटे में सब अच्छा चल रहा था। एकदम से इस हादसे ने सभी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।

उस वक्त मेरी माँ ने मेरा साथ दिया। वह हमेशा मेरा हौसला बढ़ाती और कहतीं,

शम्स एक दिन सब अच्छा हो जाएगा। अल्लाह ताला ने एक दरवाज़ा बंद किया है, तो 100 दरवाज़े खोल भी देगा। तुम ज़रूर ज़िंदगी में कुछ बेहतर करोगे।

उनकी बातों ने बहुत मदद की और आहिस्ता-आहिस्ता मैं जॉब में वापस आया।

प्रियंका: आपके इन हालातों में आपको किसने सबसे ज़्यादा मोटिवेट किया?

शम्स आलम: मेरी माँ और परिवार वालों के अलावा मेरी ज़िंदगी में राजा राम घाग जी का बहुत बड़ा रोल रहा है। वह खुद English channel swimmer हैं। जब मैं उनसे मिला तो उनसे बहुत प्रेरित हुआ और फिर मैंने वापस से स्विमिंग का रास्ता अपनाया। डॉक्टर्स ने भी कहा कि स्विमिंग एक अभ्यास की तरह मेरे लिए बहुत ज़रूरी है। उस वक्त तक मुझे Paralympic के बारे में कुछ नहीं पता था लेकिन जब से पता चला तब से लेकर आज तक मैंने इसे अपनी ज़िंदगी बना लिया। मैंने कहीं-ना-कहीं ठान लिया कि मैं लोगों को जागरूक करूंगा।

प्रियंका: आप पोखर के पोखर तैर जाते थे, ऐसे में अपने पैर खोने के बाद स्विमिंग में आपको किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा?

शम्स आलम: ज़्यादा पुरानी बात नहीं बता रहा, सन् 2012 में मैंने स्विमिंग करना शुरू किया। उस वक्त पूल में जो लाइफ गार्ड्स होते हैं, उन्होंने कहा कि हम आपको यहां इजाज़त नहीं दे सकते हैं। उनका कहना था कि मैं व्हील चेयर पर हूं और हो सकता है कि मैं डूब जाऊं, ऐसे में स्विमिंग पूल भी बंद हो सकता है। तब मैंने उनसे कहा मुझे एक बार मौका दें अगर मुझसे नहीं होगा तो मैं खुद नहीं आऊंगा। बस उन्होंने ट्रायल करने दिया और मैं पल भर में उनके स्विमिंग पूल को तैरकर आ गया। उसके बाद वे बेफिक्र हो गए।

हाल ही में मैं मुंबई से गुड़गांव शिफ्ट हुआ हूं और यहां एक प्रोजेक्ट मैनेजर के रूप में काम कर रहा हूं। आजकल मैं व्हीलचेयर प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूं ताकि पर्सन विथ डिसेबिलिटी को हम लोग सशक्त कर सकें। मुंबई से गुड़गांव आने के बाद भी जब मैं स्विमिंग पूल गया तो उन्होंने मुझे एंट्री ही नहीं दी। उनका भी वही कहना था कि मैं डूब जाऊंगा। मैंने उन्हें ज़ोर दिया और बताया कि मैं खेल कर आया हूं लेकिन वे नहीं माने।

तब मैंने उनसे कहा कि मुझे लिखित में दें कि मैं यहां अलाउड नहीं हूं। फिर उन्होंने कहा कि आप ट्रायल दे दो फिर हम देखेंगे।

प्रियंका: स्विमिंग करने के लिए इतना संघर्ष करने पर आपको गुस्सा नहीं आता था?

शम्स आलम:  गुस्सा नहीं आता क्योंकि हम चेंज मेकर्स हैं और जब हम सब कोशिश करेंगे तो एक दिन सब अच्छा होगा। आज जो लोग मुझे पूल में घुसने नहीं दे रहे थे, वे मुझपर गर्व करते हैं। वहां के कोच वगैरह आते हैं और मुझसे कहते हैं कि उनके बच्चों को भी गाइड करूं, उन्हें बताऊं कि स्विमिंग कैसे होती है। तो ये छोटे-छोटे बदलाव हैं, जो हमारी मेहनत करने से ही आएंगे और अब यही मेरा मकसद है। हालांकि आज भी देश में सिर्फ एक ही खेल को ज़्यादा तवज़्जों दी जाती है लेकिन इन सब बातों में नहीं उलझना चाहिए और चेंजमेकर बने रहना चाहिए।

प्रियंका: जिस शख्स को पूल में जाने नहीं दिया जा रहा था वह समंदर नाप गया। अपने Open sea Word Record के बारे में कुछ बताइए।

शम्स आलम:  2012 में मैं पहली बार मुंबई 5 किमी समुद्र कवर करने गया, जहां मैं असफल हो गया। फिर 2013 में 2 किमी पूरा किया तो थोड़ा कॉन्फिडेंस आया। 2014 में एक अच्छा मौका आया, क्योंकि इंडियन नेवी हर साल ओपन सी का आयोजन करती है। उस वक्त मैंने 6 किमी का ओपन सी कवर किया। मैंने 1 घंटे 40 मिनट में 6 किमी तैराकी की।

उस वक्त मुझे पता नहीं था कि मैंने वर्ल्ड रिकॉर्ड बना लिया है और फिर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में मेरा नाम आया। उसके बाद आया 2017, जब मैं ओपन सी कवर करने के लिए गोवा गया। उस दौरान मैंने अपना ही रिकॉर्ड तोड़ा। यह एक तरह से डिसेबिलिटी के प्रति लोगों को जागरूक करने की कोशिश थी।

जब आप समंदर में होते हैं तो कुछ पता नहीं चलता। पानी के नीचे अंधेरा ही अंधेरा होता है। Against the tide 5 किमी स्विम करना आसान नहीं होता और यही मुश्किल हालात थे जिसे मैंने 4 घंटे 4 मिनट में पूरा किया। पर साथ में मेरे कई लोगों का सपोर्ट था, जिनका मैं शुक्रगुज़ार हूं। इसके बावजूद भी गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भारी फीस के कारण मैं अपना यह रिकॉर्ड दर्ज़ नहीं करा पाया। हालांकि इस कोशिश को बहुत जगह दर्ज ज़रूर किया गया है।

2018 में मुझे खबर सुनने को मिली की गोवा के जिस बीच में मैंने यह रिकॉर्ड बनाया, आज वह बीच पूरी तरह से एक्सेसिबल हो गया है। इस खबर से कहीं ना कहीं मुझे बहुत खुशी मिली कि चलो एक कोशिश ने जागरूकता तो लाई। इसी साल 2018 में यूएस के शिक्षा विभाग ने मुझे World best emerging leader चुना। तो यह खबर कहीं ना कहीं उस बात का भी जवाब है कि मुझे गुस्सा नहीं आता क्या? क्योंकि मैंने देखा है देर से सही लेकिन बदलाव आता है।

शम्स आलम, फोटो- फेसबुक अकाउंट

प्रियंका: आज खेल दिवस है इस मौके पर आप क्या कहना चाहेंगे?

शम्स आलम : सरकार जब भी डिसेबिलिटी के लिए कोई योजना बनाती है तो मैं चाहता हूं कि वह पर्सन विथ डिसेबिलिटी को भी इनवॉल्व करे। उनसे पूछे क्योंकि हम अपनी बात ज़्यादा बेहतर तरीके से बता सकते हैं।

ज़रूरी है कि खेलो इंडिया जैसे प्रोग्राम में Disable बच्चों के लिए भी योजना हो। जब स्कूल स्तर पर बच्चे आगे आएंगे तब जाकर कहीं वे इंटरनैशनल लेवल पर पहुंच पाएंगे। ऐसा भी नहीं है कि हिंदुस्तान इस मामले में पीछे है। आपको बता दूं कि अमेरिका को हम इतना विकसित मानते हैं लेकिन फिर भी उनका Disability Act हमारे बाद आया।

मैं अपने स्तर पर कोशिश कर रहा हूं कि एक्सेसिबिलिटी ला पाऊं। बहुत सारी जगह ऐसी हैं जहां रैंप नहीं होते। ऐसी कई जगह मैं जाता हूं और एक्सेसिबिलिटी के लिए लड़ता हूं। बहुत मुश्किल होता है लेकिन मैं आवाज़ ज़रूर उठाता हूं।

हम खिलाड़ी अपने लिए, अपने खेल के लिए बहुत संघर्ष कर रहे हैं। मैं इस बार कई कारणों से विश्व प्रतियोगिता के लिए नहीं जा पा रहा हूं लेकिन 2022 के एशियन पैरा गेम्स में मैं अपने आपको मेडल पोडियम में देखता हूं।

मेरे लिए खेल सिर्फ मेडल तक सीमित नहीं है, मेरी ख्वाहिश है कि मैं डिसेबल लोगों को सशक्त करूंं।

आज खेल दिवस के मौके पर मैं एक बात कहना चाहता हूं कि पैरा खिलाड़ियों के लिए कोई चैनल हो, डिसेबल लोगों के लिए काउंसलिंग हो, उन्हें बताया जाए कि उन्हें क्या खेलना चाहिए, कैसे खेलना चाहिए। कुछ दिन पहले हमने पैरा बैडमिंटन में 12 मेडल जीते लेकिन फिर भी हमें इतना एक्पोज़र नहीं मिला।

मैं देखता हूं कि डिसेबल लोगों के प्रति जागरूकता की बहुत कमी है और ऐसे में जब आप जैसे और हम जैसे चेंजमेकर सामने आएंगे, तब कहीं बदलाव आएंगे।

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