ज़िन्दगी के इस सफर में हम अपनी खुशी के मौके तलाशते रहते हैं और जब त्यौहार नज़दीक आते हैं, तब हम इस अवसर पर अपने परिवार के साथ खुशियां मनाते हैं लेकिन अपनी खुशियां मनाते-मनाते कहीं ऐसा तो नहीं कि हम मतलबी होते जा रहे हैं? हमें फर्क ही नहीं पड़ता कि किसी और की जान के साथ हम क्या कर रहे हैं।
बात ना तो केवल ईद और दशहरे की है और ना ही किसी खास धर्म को टारगेट करने की है। यहां पर धर्म के नाम पर बेज़ुबान पशुओं की बलि देने का मसला है। एक खास धर्म तक इसे सीमित किया जा सकता है लेकिन जिस तरह हम बेदर्द होकर किसी की बलि चढ़ाकर खून पी रहे हैं, क्या यह सही है? क्या ऐसा करने से इंसान ज़्यादा हिंसक तो नहीं हो रहा? खैर, बलि देने वालों को इंसान कहना गलत होगा क्योंकि उनमें अगर इंसानियत होती तो वे ऐसा नहीं करते।
सवाल यह नहीं है कि आप खा रहे हैं या नहीं, बल्कि मसला यह है कि सिर्फ खाने के लिए आप ऐसी वजहें तलाश रहे हैं जहां जानवरों की बलि दी जाती है। कभी धर्म के नाम पर तो कभी देवी-देवताओं के नाम पर हम हमेशा किसी की जान लेने में क्यों लगे होते हैं? क्यों किसी बेज़ुबान की हत्या कर हम खुद को खुश करने में लगे होते हैं?
कभी हमने यह सोचने की ज़हमत उठाई है कि जब बकरे की बलि चढ़ रही होगी, तब उसकी माँ कितनी रो रही होगी। हमें तो खून के प्यास में उसकी आवाज़ भी नहीं सुनाई देती। क्या हम बकरे की हत्या इसलिए करते हैं क्योंकि हमें पता होता है कि इसकी सज़ा हमें नहीं मिलने वाली है?
सबसे दुखद तो यह है कि हम धर्म के नाम पर बेज़ुबान जानवरों की हत्या कर देते हैं। चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, धर्म के नाम पर बेज़ुबान जानवरों की हत्या कतई नहीं करनी चाहिए। हिन्दुओं में भी दशहरे के मौके पर बलि दी जाती है। किसी और का खून पीकर अपना शरीर बनाना अगर सही लगता है, तो खाते रहिए लेकिन तर्क मत दीजिए कि आप धर्म की वजह से उसकी हत्या कर रहे हैं।
आप किसी को मार केवल इसलिए रहे हैं क्योंकि आप यह जानते हैं कि इसकी सज़ा आपको कोई नहीं देने वाला है। मुझे उम्मीद है जब लोग किसी के जीवन की अहमियत समझेंगे, तब वे बेज़ुबान पशुओं की जान नहीं लेंगे। त्यौहार किसी भी धर्म का हो, खुश होने का अधिकार सबका है। चलिए आप सभी को ईद मुबारक।
हर बेज़ुबान पशुओं के लिए खुदा से दुआ कि वह उसकी मदद करें।