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अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाली फूलन देवी

फूलन देवी का जन्म 10 अगस्त 1963 को उत्तर प्रदेश के जालौन ज़िले के एक छोटे से गाँव, गोरहा का पूर्वा में एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ था। यह मल्लाह परिवार से थी जिसे भारतीय हिंदू धर्म व समाज की दृष्टि से शुद्र-अतिशूद्र जाति में गिना जाता था। आजकल राजनीतिक दृष्टि व परिभाषा में इन्हें पिछड़ी व अति पिछड़ी जातियों (SC/ST/OBC) में गिना जाता है।

फूलन अपनी माता ‘मूला’ व पिता ‘देवीदीन मल्लाह’ की चौथी संतान थीं। कहा जाता है कि फूलन बचपन से दिलेर व न्यायप्रिय थी।

दंड के रूप में हुआ बाल विवाह

फूलन का परिवार एक संयुक्त परिवार था जिसके पास ले-देकर खेती के लिए लगभग 1 एकड़ जमीन का टुकड़ा था। परिवार की आजीविका का मुख्य साधन खेती और मज़दूरी ही था। जब फूलन 10-11 वर्ष की थी तब इनके पिता व चाचा के बीच ज़मीन को लेकर कुछ विवाद हो गया। उस वक्त फूलन ने आगे बढ़कर अपने चाचा का विरोध किया। इस विरोध का दण्ड तो फूलन को मिलना ही था। भारतीय समाज में बच्चों का बड़ो की सामान्य बातें सुनने तक को अच्छा नहीं माना जाता है, तो वही समाज बच्चे का हस्तक्षेप कैसे बर्दाश्त कर सकता था और यदि वह बच्चा एक लड़की हो तो कहना की क्या है।

जहां महिलाओं को दोयम दर्जे़ का समझा जाता है तथा लड़कियों को इन्सान की बजाय पराया धन समझा जाता है, वह समाज लड़की का बात करना कैसे स्वीकारेगा? बहरहाल, फूलन को इसका दण्ड मिला। फूलन का विवाह 100 मील दूर एक अधेड़ विधुर से करा दिया गया। यह विवाह फूलन के लिए एक दंड से भी ज़्यादा था क्योंकि शादी की पहली ही रात उस 11 वर्ष की बच्ची से शारीरिक सम्बन्ध बनाए गए और यह सिलसिला इच्छा-अनिच्छा लगातार जारी रहा। खैर, इच्छा की बात कैसे की जा सकती है? 11 वर्ष की बच्ची की कोई शारीरिक इच्छा हो भी कैसे सकती है?

ससुराल से भाग कर मायके आई

फूलन को कोठरी में बंद रखा जाता था। इसने फूलन को शारीरिक रूप से बीमार व कमज़ोर बना दिया था। एक दिन मौका पाकर वह ससुराल से भागकर अपनी माँ के पास पहुंच गई मगर माँ के घर भी उसे कोई राहत नहीं मिली। परन्तु माँ के घर भी उसे कोई राहत नहीं मिली। माँ-बाप और सम्बन्धियों ने डांट-फटकार कर व ससुराल वालों के लिए कीमती तोहफे देकर, उसे वापस भेज दिया।

राहत का एकमात्र ठिकाना ‘माँ का घर’ भी फूलन के लिए बंद हो गया था जैसा कि भारत में हरेक ब्याहता लड़की के लिए हो जाता है। निर्दयी पति को अब कोई डर नहीं रहा। उसने प्रताड़ना और बढ़ा दी जिससे तंग आकर फूलन फिर ससुराल से भाग गई। इस बार फूलन के ससुराल वालों ने उसे रखना अस्वीकार कर दिया, जिसके बाद उसके के पति ने तीसरी शादी कर ली।

इससे भी भारतीय समाज में व्याप्त महिलाओं की दुर्दशा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। फूलन ने मज़दूरी करके अपना गुज़ारा करना शुरू कर दिया लेकिन गाँव वाले उसे हेय दृष्टि से देखते और उससे दुर्व्यवहार करते जैसे कि इन सब के लिए वह ही दोषी थी। किसी ने इस वास्तविकता को नहीं समझा कि फूलन ने सिर्फ अपने पिता के घर में तथा अपने पति के घर में हो रहे अन्याय का प्रतिकार किया था। उसने अन्याय नहीं सहा और यही उसकी गलती थी।

प्राय: व्यक्ति सामाजिक दबाव में इसे स्वीकार कर लिया करते हैं और समाज उन्हें व्यावहारिक कह कर उनकी क्षणिक प्रशंसा भी करता है परन्तु इतिहास गवाह है कि जो व्यक्ति न्याय के लिए समाज से अलग हटकर संघर्ष करते हैं, वे ही एक नए समाज की रचना करके उसे उत्तम  व सभ्य बनाते हैं।

यही वे इंसान होते हैं जो वक्त आने पर समाज में अपना उपयुक्त स्थान भी प्राप्त करते हैं। फूलन देवी आज के दौर में एक ऐसा ही चमकता नाम है जो दबे-कुचले समाज की महिलाओं को अन्याय के प्रति अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए प्रेरित व आंदोलित करती है।

प्रताड़नाओं के बाद भी नहीं कम हुआ न्याय का जज़्बा

ससुराल छोड़कर अपने मायके आ चुकी फूलन ने मज़दूरी करके अपना जीवन निर्वाह करना शुरू कर दिया। बचपन से ही ज़ुल्मों को सहने वाली फूलन को, ज़ुल्म कमज़ोर नहीं कर पाए थे। ज़ुल्मी ज़ुल्म का कोई भी मौका गवांना नहीं चाहता था और फूलन कभी भी प्रतिकार किए बिना नहीं रहती थी।

कहा जाता है कि एक बार एक व्यक्ति ने फूलन से मज़दूरी तो कराई परन्तु मज़दूरी देने से इंकार कर दिया। फूलन ने बहुत मिन्नते की लेकिन जब वह व्यक्ति नहीं माना तब  फूलन ने रात को उसका घर तोड़-फोड़ दिया।

चाचा से पारिवारिक ज़मीन को लेकर विवाह से पहले ही अनबन हो गई थी। इसलिए फूलन से दुश्मनी निकालते हुए चाचा ने पुलिस में चोरी की शिकायत दर्ज़ कर दी। पुलिस ने तीन-चार दिन तक फूलन को अपने पास रखा। जब फूलन घर वापस आई तब उसने अपने चाचा व उसके परिवार को खूब खरी-खोटी सुनाई।

जब फूलन महज़ 15 वर्ष की थी तब ठाकुरों ने घर में आकर परिवार के सामने ही फूलन के साथ शारीरिक दुर्व्यवहार किया था। फूलन न्याय के लिए दर-दर भटकीं  लेकिन हमेशा की तरह उसे इंसाफ नहीं मिला। इस बात ने फूलन को कहीं ना कहीं तोड़ दिया था और अब उसके दिमाग में सिर्फ प्रतिशोध था।

कैसे पहुंची फूलन बीहड़ों में?

उनके क्षेत्र में खुद को ऊंची जाति से ताल्लुक रखने वाले ठाकुरों का एक डाकुओं का गुट था। ये सामाजिक- धार्मिक रूप से नीची समझी जाने वाली जातियों एवं अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करते थे। शासन-प्रशासन का उन्हें संरक्षण प्राप्त रहता था क्योंकि कहा जाता है कि वे चुनावों में धांधली के काम में  सत्ता का सहयोग करते  थे।

इनसे स्वयं की रक्षा के लिए मुसलमानों, गुर्जरों, मल्लाहों आदि के गुट उभरने लगे थे। फूलन की मित्रता इन गुटों के सदस्यों से होने लगी थी। उसने उनसे बन्दूक चलाना सीखा। शायद वह और अधिक ज़ुल्मों से बचने की तैयारी कर रही थी। अब फूलन का अधिक वक्त बीहड़ों में ही बीतने लगा था।

मल्लाहों का एक गिरोह था जिसका सरगना बाबू गुज्जर था। इस गिरोह का एक सदस्य विक्रम मल्लाह भी था। दोनों ही फूलन को पसंद करने लगे थे। कहा जाता है,

एक बार बाबू गुज्जर ने फूलन के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करने का प्रयास किया तो विक्रम व बाबू गुज्जर में तनातनी हो गई और विक्रम मल्लाह ने बाबू गुज्जर को गोली मारकर ठंडा कर दिया और स्वयं गिरोह का सरदार बन गया।

बेहमई गाँव की दरिंदगी

बाबू गुज्जर के ठाकुरों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध थे। ठाकुर डकैतों ने बाबू गुज्जर की मौत का बदला लेने के लिए योजनाएं बनाकर मल्लाह गिरोह पर लगातार आक्रमण किए। अपनी राजनैतिक पैठ के बल पर पुलिस को भी पीछे लगा दिया। लड़ते-लड़ाते, छिपते-छिपाते विक्रम और फूलन ने अपनी पहचान के एक घर में शरण ली। दोनों रात को एक साथ सोए किन्तु सुबह जब आंखें खुली, तो फूलन ने स्वयं को ठाकुरों की कैद में पाया।  निश्चित ही शाम को खाने के साथ कोई नशीला पदार्थ खिला दिया गया था।

फूलन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है,

कुसुम ने उसके सारे गहने उतार लिए और कपड़े फाड़कर निर्वस्त्र कर दिया। ठाकुर उसे निर्वस्त्र ही रस्सियों से बांधकर नदी के रास्ते बेहमई गाँव ले गए। उसे पूरे गाँव में नंगा घुमाया और एक कमरे में बंद कर दिया। फिर शारीरिक दरिंदगी की शुरुआत श्रीराम ठाकुर ने की। उसके बाद लाला ठाकुर और ना जाने किस-किस ने बेहोश होने तक व बेहोश होने के बाद भी वही सिलसिला जारी रखा।

इस समय फूलन की आयु लगभग 18 वर्ष की थी। यह सिलसिला लगभग दो सप्ताह तक रोज़ चलता रहा। गाँव के हर एक जन को इस त्रासदी की खबर थी लेकिन किसी ने शासन-प्रशासन को इसकी जानकारी नहीं दी।

यदि शासन-प्रशासन को इसकी भनक नहीं लगी थी तो वह कैसा शासन-प्रशासन था? कैसी हैं वे कथित माताएं, बहनें जिन्होंने इतने दिनों तक ऐसा घिनौना कुकर्म चलते रहने दिया और कोई विरोध नहीं किया? क्या उसे समाज का दर्ज़ा दिया जा सकता है जो ऐसी भयावह दरिंदगी बर्दाश्त कर लेता है? फूलन पर कलम चलाने वाला कोई भी लेखक इस प्रकार के कोई भी प्रश्न क्यों नहीं उठाता है?

फूलन ने बनाया अपना गिरोह

फूलन देवी की हिम्मत, प्रज्ञा व विवेकशीलता की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। इतना सब कुछ होने के बाद भी फूलन देवी पूरी हिम्मत और आत्मविश्वास के साथ अपने अन्याय का मुकाबला करने के लिए तत्पर खड़ी हो गई। फूलन ने अपने बचे-खुचे साथियों से संपर्क किया व मानसिंह मल्लाह के साथ मिलकर मल्लाह गिरोह का पुनर्गठन किया।

हिन्दू धर्म के कुछ शास्त्रों में शूद्रों के साथ किए दुर्व्यवहार व निर्लज्ज कर्म को पाप नहीं माना जाता है। ठाकुर एक कमज़ोर अबला पर की गई अपनी दरिंदगी की डींगे हांककर मल्लाहों को अपमानित करते रहते थे। इससे मल्लाहों व अन्य कमज़ोर वर्गों में स्वाभिमान के लिए त्याग, बलिदान और प्रतिशोध की उर्जा का निर्माण हुआ और मल्लाह गुट कुछ ही समय में एक मज़बूत गिरोह बनकर समाज के दुःख-दर्द दूर करने वाला और उन्हें सुरक्षा देने वाला बन गया।

यह गिरोह ठाकुरों के गिरोह जैसा नहीं था जो सरकार के लिए कार्य करता था और जिसे सरकारी शासन-प्रशासन से किसी भी प्रकार का संरक्षण ही प्राप्त था। यह गिरोह सामाजिक जन-कल्याण के लिए दुर्जन सेठ-साहूकारों को लूटता था और गरीबों-पीड़ितों की मदद करता था। पिछड़े वर्गों में मल्लाह गिरोह का नाम गर्व से लिया जाने लगा था।

फूलन देवी अपने गिरोह के साथ अपने पति के घर भी गई थी। वहां उसने अपने पति को अच्छी मार लगाई और पर्चे बंटवाए कि क्षेत्र में जो व्यक्ति बाल विवाह करेगा उसे सज़ा मिलेगी। आज़ादी के लगभग 35 साल बाद तक भी जनहित का जो काम भारत सरकार नहीं कर सकी थी वह जनहित का काम मल्लाह गिरोह ने कुछ महीनों में ही कर दिखाया था।

ठाकुरों के अत्याचार से जो सुरक्षा सरकार नहीं दे पाई थी, वह सुरक्षा मल्लाह गिरोह ने प्रदान की। सब जानते हैं कि शासन-प्रशासन उच्च वर्णीय प्रस्थापित समूह के स्वार्थों के पक्ष में ही काम करता है, चाहे वे स्वार्थ अन्यायी, अत्याचारी ही क्यों ना हों। यदि ऐसा नहीं होता तो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि गैरबराबरी कब की समाप्त हो गई होती।

फोटो क्रेडिट – फेसबुक

कैसे बनी फूलन, फूलन देवी?

ठाकुरों के पक्ष में सरकार ने मल्लाह गिरोह पर नकेल कसनी शुरू कर दी। उधर मल्लाह व पिछड़े अपने अपमान का ऋण चुकाने के लिए तत्पर थे।

14 फरवरी 1981 के दिन का फूलन देवी की आत्म कथा में कुछ इस प्रकार का वर्णन है-

फूलन को खबर मिली कि श्रीराम व उसका गिरोह बेहमई गाँव में छिपा हुआ है। बाबा मुस्ताकिन, बलवान, मानसिंह और फूलन ने आक्रमण की योजना बनाई। श्रीराम का गिरोह काफी बड़ा था (परन्तु फूलन देवी व उसके साथियों के साहस तथा बलिदान का जज़्बा और भी बड़ा था)।वे उसपर अचानक आक्रमण करना चाहते थे किन्तु श्रीराम को किसी ने खबर कर दी और वह गाँव में छत पर चढ़कर बाबा मुस्ताकिन व उसके साथियों को मुसलमान सुअर कहकर अपमानित कर रहा था।

फूलन की आत्मकथा में आगे बताया कहा गया है,

हमने तीन टुकडियां बनाई। एक तरफ बाबा मुस्ताकिन दूसरी तरफ मैं और तीसरी टुकड़ी राम अवतार व बलवान के नेतृत्व में गाँव के मुख्य मार्ग से आगे बढ़ रही थी। श्रीराम गाँव के पीछे की तरफ से अपने कुछ साथियों के साथ भाग निकला।

यह वही गाँव था जिसमें फूलन देवी को निर्वस्त्र घुमाया गया था। फिर पूरे गाँव की जानकारी में दो हफ्ते तक लगातार सामूहिक बलात्कार बिना किसी गिनती के किया गया था। इसके लिए पूरा का पूरा गाँव ही सज़ा का हक़दार था किन्तु गाँव से केवल 30 आदमी पकड़ कर लाए गए। उन्हें एक लाइन में खड़ा करके उनपर गोलियां चला दी गई और 22 ठाकुरों की मौत हो गई।

यह नहीं कहा जा सकता है कि इनमें बलात्कारी शामिल नहीं थे। बलात्कारी नहीं भी हो तो भी दो हफ्तों तक चुप रह कर वह बलात्कार के सहायक तो थे ही। यह मरने वालों के अपने कर्मों का फल था। यदि फूलन देवी को सरकार से न्याय मिल गया होता तो वह डकैत नहीं बनती और 22 व्यक्ति जीवित रहते। इनकी मौत की जिम्मेदार वे स्वयं व सरकार ही है।

इस घटना के बाद ही फूलन, ‘फूलन’ से ‘फूलन देवी’ बन गई थी। फूलन देवी की चहुँ ओर जय जयकार होने लगी। ठाकुरों और उच्च वर्णीय लोगों को इससे चिढ़ होने लगी और सरकार द्वारा बड़ी फ़ोर्स फूलन देवी की तलाश में लगा दी गई।

रची गई फूलन देवी को अकेला करने की साज़िशें

विक्रम मल्लाह की मृत्यु के बाद मानसिंह मल्लाह ने फूलन देवी का पग-पग पर साथ दिया और फूलन पकड़े जाने से बची रही। फूलन के अनेक आधे-अधूरे साथियों, मिलने-जुलने वालों व शुभेच्छुओं को पुलिस ने उनके घरों से निकाल-निकालकर गोलियों से भून दिया। इसका लगभग कोई रिकॉर्ड नहीं है। कुछ सच्चे-साथी मुठभेड़ों में मारे गए।

जिस प्रकार 22 ठाकुरों के मारे जाने का रिकॉर्ड है उस प्रकार मुसलमानों, मल्लाहों व गुज्जरों आदि के मारे जाने का रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।गूगल इसपर कोई मदद नहीं करता है। फूलन की रसद के सभी रास्ते बंद कर दिए गए। बीहड़ों में वैसे ही पानी की कमी होती है, जो कहीं थोड़ा बहुत पानी उपलब्ध था उसमें भी सरकार ने ज़हर मिलवा दिया था। यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि इससे कितने वन्य प्राणियों की हत्या हुई होगी। फूलन देवी को कई दिनों तक भूखा प्यासा रहना पड़ा परन्तु उसने हार नहीं मानी और कठिनाईयों से हारकर समर्पण नहीं किया।

फूलन देवी का आत्मसमर्पण और राजनैतिक पारी

केंद्र में श्रीमती इंदिरा गाँधी प्रधान मंत्री थीं व मध्य प्रदेश राज्य में अर्जुन सिंह मुख्य मंत्री थे। जब पकड़ने के सभी पैंतरे फेल हो गए तब आत्म-समर्पण के प्रयास किए गए। डीएसपी राजेंद्र चतुर्वेदी को इस काम पर लगाया गया। वह फूलन देवी को 12 फरवरी 1983 को आत्म-समर्पण कराने में कामयाब हुए। फूलन देवी के साथ मानसिंह, बाबा घनश्याम व अन्य 12 सदस्यों ने भी आत्म-समर्पण किया।

फूलन देवी को उसके अपराधों के लिए 11 साल की सज़ा सुनाई गई। 1993 में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार ने फूलन के सभी केस वापस ले लिए और वह 1994 में जेल से रिहा हो गई। जेल से रिहा होने के बाद फूलन देवी ने बुद्ध धर्म ग्रहण किया और उमेद सिंह से विवाह किया।

1996 में समाजवादी पार्टी से मिर्ज़ापुर लोकसभा सीट से वह संसद सदस्या विजयी हुईं। 1998 में वह लोकसभा सीट हार गईं किन्तु 1999 में वह फिर से जीत गईं।

25 जुलाई 2001 को सरकारी संसदीय आवास ‘अशोक रोड’ पर फूलन देवी की दिन-दहाड़े हत्या कर दी गई। उस वक्त वह मात्र 38 वर्ष की थी। इस प्रकार गरीबों व कष्टों का जीवन जीते हुए गरीबों व असहायों की सेवा व सुरक्षा में अपना जीवन लगाने वाली वीरांगना फूलन देवी शहीद हो गई। फूलन देवी की हत्या का राज़, राज़ ही बना रह गया है क्योंकि सरकार ने इसकी बड़े ही सरसरी तौर पर जांच कराई।

मुख्य अभियुक्त जेल से फरार हो गया था तथा बाद में उसे बेल पर छोड़ दिया गया। फूलन देवी इतिहास के पन्नों पर अपने अदम्य साहस, आत्मविश्वास व विवेक के कारण सदा-सदा के लिए अमर रहेगी। उनके जन्म दिवस 10 अगस्त तथा शहादत दिवस 25 जुलाई के लिए भावपूर्ण श्रद्धांजलि।

 

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