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क्या जेंडर समानता के लिए वर्तमान सरकारी योजनाएं सफल हैं?

हमारे देश में बेटी को लक्ष्मी का रूप कहा जाता है और हम उसे एक देवी के रूप में नवरात्रि जैसे खास दिनों में पूजते भी हैं। गाँव-शहर हर जगह यह मान्यता प्रचलित है कि जिस घर में बेटी जन्म लेती है, वह घर खुशियों से भर जाता है।

यदि यह सब यथार्थ का भाग और सामाजिक सच है तो सरकार को इतनी प्रोत्साहन योजनाओं को बनाने की आवश्यकता क्यों होती है? ऐसी प्रोत्साहन योजनाएं जिनमें लड़कियों के जन्म से लेकर उनकी स्कूल की पढ़ाई तक प्रोत्साहन राशियां व आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।

विफल हो रही सरकारी योजनाएं 

यदि वर्तमान परिस्थितियों को देखें और तुलना करें तो इसका उत्तर हां ही लगता है। यह पितृसत्तात्मक समाज आज भी लिंग आधारित भेदभाव से ऊपर नहीं उठ पाया है।

देश के कई हिस्से तो बुरी तरह पितृसत्तात्मक सोच के तले दबे हुए हैं। इसका उदाहरण तब देखने को मिला जब स्वास्थ्य विभाग के एक सर्वे में उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के 132 गाँवों में पिछले तीन महीनों में एक भी लड़की ने जन्म नहीं लिया जबकि इन 132 गाँवों में पिछले 3 महीनों में अप्रैल से जून के महीनों में 216 बच्चों ने जन्म लिया है। जिसमें एक भी लड़की नहीं है। 

सरकार द्वारा इतनी प्रोत्साहन योजनाएं बनाने और पांच वर्षीय योजनाओं में महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान डालने के बाद भी परिस्थितियां बिगड़ी हुई हैं। लड़कियों के जीने के अधिकार से लेकर शिक्षा के अधिकार तक का हनन गाँवों से लेकर शहरों तक हो रहा है।

समाज के स्टीरियोटाइप को हटाना 

भारत की जनगणना 2011 के अनुसार भारत की कुल साक्षारता दर 74% है। जिसमें पुरुषों की साक्षारता 82% और महिलाओं की साक्षारता दर 65.5% है। इसमें 16.5% का अंतर है, जिसे कम नहीं आंका जा सकता है। यह स्थिति केवल ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं अपितु शहरी क्षेत्रों में भी है। 

 इसका सीधा अर्थ यह निकाला जा सकता है कि जब तक सामाजिक ढांचों में परिवर्तन नहीं लाया जाएगा और लिंग आधारित भूमिकाओं से स्टीरियोटाइप नहीं हटाए जाएंगे तब तक समाज में लड़का-लड़की बराबर वाले जुमले केवल जुमले ही रह जाएंगे।

इन ढांचो में परिवर्तन एक दिन या एक रात में लाना तो असंभव है मगर फिर भी कुछ उम्मीदें कायम रखना आवश्यक है। कुछ कदम हैं जो उठाए जा सकते हैं। जैसे-

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