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“जब मैंने जीबी रोड की दीदीयों के साथ मनाया था रक्षाबंधन”

साल 2019 का रक्षाबंधन मेरे और मेरे साथियों के लिए बहुत खास था। हम इस बार यह त्यौहार जीबी रोड पर रहने वाली बेनाम महिलाओं के साथ मनाने वाले थे। ‘कट-कथा’ नामक एक फाउंडेशन है, जो जीबी रोड की महिलाओं और उनके बच्चों को पढ़ाने का काम करता है। यह हर साल जीबी रोड की दीदीयों के साथ रक्षाबंधन मानते हैं। इस बार मुझे और रॉबिनहुड आर्मी के अन्य साथियों को मौका मिला, जीबी रोड की इन महिलाओं के साथ रक्षाबंधन का त्यौहार मनाने का।

मेरे लिए एक अलग अनुभव होने वाला था। जब से दिल्ली आया था, इस सड़क के बारे में तमाम तरह की बातें सुन चुका था। यह पहला मौका था, जब मैं वहां जा रहा था। बहुत से सवाल थे मन में, डर भी था और हिचक भी।

फोटो प्रतीकात्मक है। सोर्स- Getty

रक्षाबंधन के दिन यानी 15 अगस्त को 12 बजे मैं उनके स्कूल पहुंचा, जहां कट-कथा के सभी सदस्य बच्चों को पढ़ाते थे। यहां से हमें अलग-अलग ग्रुप में अलग-अलग कोठों में जाना था। हमारे ग्रुप को 54,  56,  60 और 73 नंबर के कोठों में जाना था। हाथ में राखी की थाली और मिठाई के डिब्बे लेकर हम उन बेनाम महिलाओं के साथ त्यौहार मनाने सबसे पहले 54 नंबर पर पहुंचे।

घुप अंधेरे और बदबू से भरी सीढ़ियों से हम ऊपर पहुंचे, वहां के मकानों के हालत ठीक नहीं थे। तकरीबन सभी कोठों की हालत एक सी थी। नमीयुक्त बदबू से भरे कमरों में हर जगह मायूसी फैली हुई थी। उस मायूसी का असर दीदीयों के चेहरे पर साफ झलक रहा था। शायद उनके ज़हन में त्यौहार की पुरानी यादें थीं, जो आज उन्हें कचोट रही थीं।

जब हमने उन्हें बताया कि हम उनके साथ त्यौहार मनाने आए हैं तो यह बात सुनते ही उन बेनाम दीदीयों ने हमें वहां से चले जाने को कहा। काफी मनाने के बाद उनमें से एक उमा दीदी (बदला हुआ नाम) राखी बंधवाने के लिए तैयार हो गईं। मैंने उन्हें राखी बांधी। उन्होंने मुझे देखा फिर प्यार से सिर पर हाथ रखा। उनकी आंखों में आंसू झलक रहे थे लेकिन उन्होंने उसे बाहर आने नहीं दिया।

उमा दीदी ने सबकी नज़रों से बचाकर मेरे हाथ में 50 का नोट थमा दिया और उठकर कमरे में चली गईं। वहां से निकलकर हम आगे दूसरे कोठों में गए। कई दीदीयों ने राखी बंधवाई और बांधी भी। कई चेहरों पर मुस्कान थी, कई चेहरों पर दर्द। कई बार ऐसा भी हुआ कि हमें कोठों से बाहर निकाल दिया गया।

जब हम 73 नंबर कोठे में पहुंचे, तो वहां रहने वाली दीदीयों ने राखी बंधवाने से साफ मना कर दिया। कारण साफ था, चंद पैसों के लिए उन्हें इस जगह उनके भाइयों ने ही भेजा था। हम लोगों ने काफी कोशिश की लेकिन हम उन्हें मना नहीं सके। शायद वे अपनी जगह सही थीं। उन्हें इस ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी भाइयों के द्वारा ही मिली थी।

जब दीदीयों से बात कर रहे थे, उनकी कहानी पूछ रहे थे, तो उनकी कहानियों में एक बात सामान्य थी कि सभी दीदीयों को उनके अपनों ने ही धोखा दिया है। जब उनसे मैंने पूछा कि आपका मन नहीं करता खुली हवा में जाने का, घूमने का, उन्होंने कहा कि अब यही हमारी दुनिया है, जिसमें हमने नाउम्मीदी में ज़िन्दा रहना सीख लिया है, हम खुश हैं यहां।

उन दीदीयों में से कईयों के बच्चे पढ़ाई करते हैं और उन्हें इस बात की सबसे ज़्यादा खुशी है। अधिकांश दीदीयों के आधार कार्ड और वोटर कार्ड नहीं हैं, पूछने पर जवाब मिला उन्हें इन सबकी ज़रूरत ही नहीं है।

उनका जवाब सुनकर यही लगा कि शायद इस दिल्ली शहर के अन्दर और कोई शहर है, जहां इंसान नहीं सामान रहता है। पुरुष आते हैं, पसंद करते हैं, इस्तेमाल करते हैं और फिर निकल जाते हैं। जब 15 अगस्त को सारा देश अपनी आज़ादी का जश्न मना रहा था, तब यहां रहने वाली महिलाएं अपने जिस्म का सौदा कर रही थीं। उनकी आंखों में साफ दिख रहा था कि आज़ादी इन्हें कभी नहीं मिली और त्यौहार शायद सोते समय सपने में मानते होंगे। शाम को बहुत सी खुबसूरत यादें और रिश्ते लेकर हम सब अपने घर वापस लौट रहे थे और वे बहने रात होने का इंतज़ार कर रही थीं।

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