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“मॉब लिंचिंग के मामले हिन्दू संस्कृति को बदनाम करने के षड्यंत्र हैं”- मोहन भागवत

हिन्दी साहित्य क्षितिज के युग पुरुष मुंशी प्रेमचंद ने साम्प्रदायिकता के खतरे से संबंधित एक लेख में कहा था,

साम्प्रदायिकता संस्कृति का मुखौटा ओढ़कर पैठ बनाती है और पैर फैलाती है। जबकि साम्प्रदायिकता का संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है।

उन्होंने उदाहरण देकर साबित किया था कि अलग-अलग तरीकों की वकालत के बावजूद विभिन्न समुदाय सांस्कृतिक चेतना के स्तर पर एक हैं।

मोहन भागवत का माॅब लिंचिंग पर बयान

31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद की जयंती होती है। यह संयोग है कि इसी तिथि के आसपास हाल ही में वृंदावन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दो दिवसीय सामाजिक सद्भाव सम्मेलन आयोजित हुआ। इसके समापन भाषण में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने माॅब लिंचिंग के मामलों को हिन्दू संस्कृति को बदनाम करने का षड्यंत्र बताया और इसे काउंटर करने के लिए अपने प्रचारकों को मुस्तैद किया।

ऐसे में संस्कृति को लेकर मुंशी प्रेमचंद की धारणा बहुत प्रासंगिक हो गई है। मुंशी प्रेमचंद ऐसे साहित्यकार थे जिनका विश्वास था कि साहित्य राष्ट्रभक्ति और समाज के पीछे चलने के लिए नहीं है बल्कि यह इनके आगे-आगे चलने वाली मशाल है। ज़ाहिर है कि असली साहित्य मनोविलास का साधन ना होकर प्रत्यक्ष कर्म का आधार है। संस्कृति को समाज के अमल के अनुरूप निर्धारित करने के लिए मुंशी प्रेमचन्द के विचार बेहद गौर करने लायक हैं।

माॅब लिंचिंग के मामलों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है

आरएसएस के सामाजिक सद्भाव सम्मेलन में कई प्रांतों के प्रतिनिधि आए थे। ये वो प्रांत थे जहां भीड़ की हिंसा के मामले सुर्खियों में आए थे। उन जगहों के प्रतिनिधि संघ प्रमुख के आदेश पर इन घटनाओं पर अपनी रिपोर्ट तैयार करके लाए थे। सभी की रिपोर्ट एक जैसी थी जिनका सार यह था कि इन सारी घटनाओं को दूसरे समुदाय के व्यक्ति द्वारा जबरन ‘जय श्रीराम’ के नारे लगवाने के लिए मारपीट का रूप दे दिया गया।

हालांकि मीडिया में इस तरह की तोड़ मरोड़ कोई नई बात नहीं है। एक घटना के टीआरपी की दौड़ में हिट हो जाने पर हर रोज़ ऐसी घटनाएं गढ़ी जाने लगती हैं। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के फैसले से क्षुब्ध होकर सवर्ण छात्र के दिल्ली में आत्मदाह करने के बाद ऐसी खबरों को लगातार परोसने की होड़ मच गई थी।

फोटो क्रेडिट – getty images

बिना आग के धुंआ नहीं

बिना आग के धुंआ नहीं उठता। गुजरात के ऊना में जब स्वयंभू गो भक्तों ने दलितों पर हमला बोला तो देशभर में इतना बवाल मचा कि खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विचलित हो गए थे। उस वक्त उन्होंने यहां तक कह दिया था कि 80% गाय भक्त फर्ज़ी और गुंडे हैं। संघ ने भी इस घटना की निंदा की थी लेकिन उसने प्रधानमंत्री से यह भी कहा था कि उन्हें गो भक्तों को लेकर ऐसा बयान नहीं देना चाहिए था।

मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं को रोकने की नसीहत देने के बजाय, संघ प्रमुख ने अपने प्रचारकों को चर्चाओं के कारगर प्रतिवाद के लिए मुस्तैद किया है।

23 जुलाई को 49 हस्तियों ने प्रधानमंत्री को संयुक्त रूप से हस्ताक्षरित पत्र भेजकर मुस्लिमों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों पर हो रही माॅब लिंचिंग को रोकने की गुहार लगाई थी। इनमें इतिहासकार रामचंद्र गुहा, फिल्मकार श्याम बेनेगल, अनुराग कश्यप, मणिरत्नम जैसे दिग्गज शख्सियत शामिल थे। होना तो यह चाहिए था कि सरकार उन्हें आश्वस्त करती लेकिन इसके काउंटर के लिए उनके ही समकक्ष 62 गणमान्यों को सामने लाया गया जिन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखने वाली हस्तियों पर प्रश्न दाग दिए।

सरकार समर्थक हस्तियों, जैसे प्रसून जोशी, मधुर भंडारकर, कंगना राणावत आदि द्वारा लिखे गए इस खुले खत में उन 49 कलाकारों से यह पूछा गया,

नक्सली हिंसा के खिलाफ वे क्यों नहीं बोलते, जब कश्मीर में स्कूल जलाए जा रहे थे। तब उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र क्यों नहीं लिखा।

वैसे इन मूर्तिभंजक पत्र लेखकों से भी पूछा जाना चाहिए कि आपका भी तो कर्तव्य था कि नक्सली हिंसा और कश्मीर में स्कूल जलाए जाने जैसी घटनाओं पर उसी वक्त बोलते। उन्हें क्यों सरकार के समर्थन के मौके पर ही ये घटनायें याद आई?

मूर्तिभंजकों ने खुले पत्र में इरादतन लिखा कि नक्सलियों द्वारा आदिवासियों की हत्या के समय वे 49 कलाकार चुप क्यों रहे? लेकिन बात यह भी है कि आदिवासियों के अधिकार और उनकी गरिमा सुरक्षित करने के लिए इन लोगों ने कुछ नहीं किया है। उनकी दलीलें शातिर वकील के कपटाचार की तरह हैं।

सांगठनिक सुझावों से जातिवाद दूर करने की सुपरफीशियल कोशिश

वृंदावन सम्मेलन का मुख्य विषय था जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करना। इसके लिए सांगठनिक टिप्स दिए गए जैसे,

लेकिन इन सुपरफीशियल प्रयासों से समाज का माइंडसेट नहीं बदला जा सकता है और जब तक यह नहीं होगा तब तक समस्या हल नहीं होने वाली है।

संघ के विचारक मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था का पालन करते हुए अतीत में हर जाति अपने निर्धारित काम के अनुरूप स्वेच्छा से सेवा करती थी लेकिन अंग्रेज़ों ने इसे लेकर कटुता भर दी। गुरू गोलवलकर की संघ में ईश्वरीय ग्रंथ का दर्जा रखने वाली पुस्तक “बंच आफ थाॅट्स” में यह लिखा हुआ है।

वर्ण व्यवस्था राष्ट्रवाद के लिए घातक

अप्राकृतिक प्रबंधन, खानदान और नस्ल के आधार पर किसी की नियति तय नहीं की जा सकती जबकि वर्ण व्यवस्था का सिद्धांत इसी अप्राकृतिक प्रबंधन को थोपता है। अगर यह सिद्धांत सच्चा होता तो संघ को सर्वोत्तम प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी कैसे मिलते। अच्छे वैज्ञानिक, अफसर, न्यायाधीश, अकादमिक और नेता तभी मिलेंगे जब हर व्यक्ति की क्षमता, रूचि और कौशल के आधार पर भूमिका प्राप्त करने का अवसर उसके लिए खुला हो। साथ ही समाज के जो घटक पिछड़ रहे हैं, उन्हें उत्थान की ओर अग्रसर किया जाए ताकि वंचितों में जो प्रतिभाएं हैं वे भी उभर सकें।

वर्ण व्यवस्था राष्ट्रवाद के लिए अतीत में भी घातक साबित हुई है और आगे भी होगी। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सामाजिक समरसता की तमाम प्रक्रियाओं को लंबे समय से संघ के निर्देशन में अपना रही भाजपा, जब से सत्ता में आई है तब से जातिगत अहंकार का नए सिरे से विस्फोट हो गया है।

इसकी झलक सोशल मीडिया पर आरक्षण से लाभांवित हुई जातियों के लिए घृणा भरे उदगारों की भरमार के रूप में देखने को मिलती है। इन उदगारों के कारण ही दलित दूल्हे को बारात में घोड़ी पर चढ़ने पर पीटने जैसी घटनाएं बढ़ी हैं लेकिन संघ ऐसे मौकों पर उद्दंडों की निंदा के लिए कभी आगे नहीं आया।

दम्भ जताने वाले जातिगत संगठन भी इस माहौल में तेज़ी से पनप रहे हैं। वर्ण व्यवस्था के विचारों को जब तक पूरी तरह से नहीं त्यागा जाएगा तब तक जन्म के आधार पर दूसरों को हेय दृष्टि से देखने की गंदगी लोगों की सोच से नहीं निकल सकती। विडंबना यह है कि संघ जिस संस्कृति को बचाना और बढ़ाना चाहता है, उससे संबंधित पुस्तकें वर्ण व्यवस्था आधारित घृणा की पोषक हैं। संघ के प्रयासों में उन पुस्तकों के विचार केन्द्र में आ जाते हैं। उदार वर्ण व्यवस्था की वकालत का रास्ता भी आखिर में कट्टर जातिवाद के मुकाम पर ही जाकर ठहरता है।

सच्चाई पर लीपा पोती करने से नहीं बचेगी संस्कृति

आज पूरे विश्व का नियम सार्वभौमिक मानवाधिकारों की कसौटी पर टिका है। पुराने सीमित समाज की व्यवस्थाएं इसमें खोटे सिक्के की तरह बाहर होती जा रही हैं। यही आवेग है जिसके चलते मुसलमानों में तीन तलाक खत्म करने के वर्तमान सरकार के कदम को नैतिक शक्ति प्राप्त हो रही है। यही आवेग वर्ण व्यवस्था के मोह को भी झुलसाने वाला है, जिससे मुंह चुराने का कोई फायदा नहीं होने वाला है।

सांस्कृतिक गौरव को बचाने के लिए काउंटर की उत्कंठा ठीक है लेकिन यह सच्चाई पर लीपापोती करने से नहीं, बल्कि मानवाधिकार और विधि अनुरूप व्यवस्था के संचालन में तेज़ी लाने से ही संभव होगा। सरकार के लिए संघ को इसी दिशा में प्रेरक शक्ति की भूमिका निभाने पर ध्यान देना चाहिए।

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