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संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष विजय लक्ष्मी पंडित की कहानी

विजय लक्ष्मी पंडित एक ऐसा नाम है जो कि महिला सशक्तिकरण का मज़बूत उदाहरण है। वह 1937 में देश की पहली महिला मंत्री बनी थीं और इसी वर्ष वह संयुक्त प्रांत की प्रांतीय विधानसभा के लिए निर्वाचित हुईं और स्थानीय स्वशासन और सार्वजनिक स्वास्थ्य मंत्री के पद पर नियुक्त की गईं।

विजय लक्ष्मी पंडित सन 1946 में तथा उसके बाद के कई वर्षों तक संयुक्त राष्ट्र में किसी राष्ट्र के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने वाली पहली महिला थीं। 

1947 में वह विश्व की प्रथम महिला राजदूत बनीं जिन्होंने तीन राजधानियों मास्को, वाशिंगटन और लंदन में राजदूत के पद पर कार्य किया। 1953 में वह संयुक्त महासभा की प्रथम निर्वाचित महिला अध्यक्ष बनी और इस तरह विजय लक्ष्मी पंडित हर बड़े पद पर काबिज़ रहने वाली प्रथम महिला भी बनती रही।

विजय लक्ष्मी का राजनीति में पहला कदम

विजय लक्ष्मी पंडित इतने महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय पदों का नेतृत्व इसलिए कर सकीं क्योंकि उनका लालन-पालन उन्मुक्त वातावरण में किया गया था, जिसमें जीवन और जीवन के अवसरों में महिला तथा पुरुषों की समान प्रभावशाली भागीदारी उपेक्षित रही।

अपनी किताब The Scope of Happiness: A Personal Memoir में वह बताती है कि जब भाई जवाहर लाल को हैरी और कैंब्रिज पढ़ने के लिए भेजा गया था, तब भाई की उतनी आलोचना नहीं हुई थी जितनी उनके(विजय लक्ष्मी पंडित) लालन-पालन के लिए अंग्रेजी अध्यापिका को रखने पर हुई। वो लिखती हैं,

मेरी मां इन सारी आलोचना से परे रहकर मेरी अध्यापिका के साथ मिलकर संस्कृत, हिंदी, घुड़सवारी और टेनिस सबकुछ सीखाती रही।

विजय लक्ष्मी पंडित छोटी उम्र में ही लिफाफों को डाक लाने-ले जाने का काम करती थी। इस तरह वह कम उम्र में ही स्वयंसेविका के रूप में राजनीति से जुड़ गईं।

शुरूआत में उन्होंने इलाहाबाद के मेयो हाल में होने वाले आयोजनों में पानी पिलाने से लेकर रोते हुए बच्चों को शांत कराने जैसे काम किए। ये आयोजन कभी होमरूल आंदोलनों को लेकर होते थे, तो कभी दक्षिण अफ्रीका में या अन्य जगहों पर गिरमिटिया मज़दूरों की स्थिति पर। ये आयोजन तरह-तरह के मुद्दों को सामने लाते थे जिनके बीच विजय लक्ष्मी की भी सोच बढ़ती गई।

इन स्मृतियों को याद करते हुए विजय लक्ष्मी लिखती हैं,

मेरे मन में उन श्रेष्ठ प्रयोजनों से भागीदारी की भावना उत्पन्न हुई थी। कई वर्षों के बाद जब मैं संयुक्त राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर रही थी, तब मेयो हाल के हुए आयोजनों के अनुभव मेरे काम आ रहे थे।

अपनी किताब में वे लिखती हैं,

जीवन में कोई भी काम अगर आप पूरे लगन से करते हैं, तो वह कभी न कभी आपके काम ज़रूर आता है।

विजय लक्ष्मी पंडित, फोटो क्रेडिट- यूट्यूब

विवाह और आघात

1919 में विजय लक्ष्मी का विवाह एक गुजराती विद्वान श्री रणजीत पंडित से हुआ। विवाह के बाद वे अपने घर के नाम, स्वरूप कुमारी नेहरु से विजय लक्ष्मी पंडित कहलाई।

देश के आजादी के संघर्ष में दोनों साथ सक्रिय रहे। 1932 में विजय लक्ष्मी ने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत नगरपालिका सदस्य के रूप में की। एक सभा की अध्यक्षता करते हुए उनको गिरफ्तार कर लिया गया था और तीन महीने जेल की सज़ा भी हुई।

विजय लक्ष्मी पंडित का राजनीतिक दायित्यवों के बीच ही परिवार का दायित्व भी पूरा होता रहा। 1944 में इन्हीं राजनीतिक व्यस्तताओं और कारावास में रहते हुए ही विजय लक्ष्मी के पति रंजीत सीताराम पंडित की मृत्यु हो गई।

यह वह दौर था जब हिंदू विधवा को पति की संपत्ति का उत्तराधिकारी नहीं माना जाता था। उस समय भाई नेहरू भी जेल में थे और विजया पूरी तरह से निर्धन हो चुकी थी। उस समय विजय लक्ष्मी के पास भविष्य को लेकर कोई योजना नहीं थी।

समाज और राजनीति में बढाई सक्रियता

विजय लक्ष्मी ने इस दुख से उभरने के लिए समाज सेवा का सहारा लिया। उन्होंने बंगाल जाकर हैजा पीड़ितों के लिए काम करने का फैसला लिया और “बालक बचाओ कोष” स्थापित करके काम करना शुरू किया।

इसी समय गांधी जी जेल से रिहा हुए और उन्होंने फिर विजय लक्ष्मी को वैश्विक मामलों में तेज बहादुर सप्रु के साथ सक्रिय किया। इसके बाद भारतीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल होकर विजया अमेरिका और यूरोप के देशों में सक्रिय होने लगी।

विजय लक्ष्मी संविधान सभा की सदस्य भी रही हैं और हिंदू कोड बिल पर उनके सुझावों को शामिल भी किया गया है। वह 1952 और 1964  में लोकसभा के लिए निर्वाचित भी हुई।

विजय लक्ष्मी ने 1952 में चीन भेजे गए सद्भावना मिशन का नेतृत्व भी किया और 1962 से 1964  तक महाराष्ट्र की राज्यपाल भी रहीं। 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद उनको फुलपुर से चुनाव लड़ने के लिए राज्यपाल का पद छोड़ना पड़ा। बाद में उन्हें लगा कि वे इंदिरा गांधी के नेतृत्व में और बदलते राजनीतिक महौल में  काम नहीं कर सकेंगी तो 1968 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया।

परिवारवाद के खिलाफ रखती थी राय

विजया ने राजनीति में परिवारवाद के अधिनायकवाद पर खुलकर अपनी राय रखी पर इसके विरोध में किसी राजनीतिक दल का हिस्सा बनना स्वीकार नहीं किया। अपनी किताब में वो लिखती हैं,

मैं दीर्घकाल तक निष्क्रिय दृष्टा बनी रही हूं परंतु यदि मेरे मौन का कारण ऐसा मान लिया जाए कि मैं सबके विनाश के साथ सहमत हूं, जिसके प्रति मुझे सर्वाधिक प्रेम का पाठ पढ़ाया गया है, तब मेरी आत्मा को शांति नहीं मिल सकती। 

एक वक्त ऐसा भी था जब इस बात की भी हवा चली कि उनके वैश्विक अनुभव के आधार पर उनको राष्ट्रपति बना दिया जाए, जो वैश्विक संबंधो को बनाने में मददगार साबित होगा लेकिन इसके लिए विजय लक्ष्मी को इंदिरा का अधिनायकवाद स्वीकार्य नहीं था।

कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति उनके अनुभवों का फायदा उठाने में कामयाब नहीं हो सका। 1 दिसंबर 1990 में विजय लक्ष्मी ने देश में दो दशक की राजनीति को देखते हुए अंतिम सांस ली। 

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नोट:- इस लेख को लिखने में विजय लक्ष्मी पंडित की किताब The Scope of Happiness: A Personal Memoir से मदद  ली गई है।

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