मैं जिस घटना के बारे में बताने वाला हूं, उसकी वजह से देश में हड़कंप मच गया था। जी हां, आपातकाल का ज़िक्र हो रहा है, जिसने देश को हिलाकर रख दिया था। यह इंदिरा गाँधी के शासन में लागू हुआ था, जो कई मायनों में ऐतिहासिक फैसला था मगर इससे लोकतंत्र को करारा झटका लगा था।
इसने देश के लोकतंत्र को तानाशाही शासन में तब्दील कर दिया था। 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक इमरजेंसी लागू की गई थी। आपातकाल को स्वीकार करना जनता के लिए काफी बड़ी चुनौती साबित हुई थी।
आपातकाल ने सत्ता को झकझोर दिया
आपातकाल के सिलसिले का आगाज़ सन् 1971 में हुए लोकसभा चुनाव के साथ हुआ था। इंदिरा गाँधी उत्तर प्रदेश के बरेली से चुनाव लड़ रही थीं। आखिरकार वह दिन आ ही गया जब इंदिरा गाँधी को चुनाव में भारी मतों से जीत हासिल हुई। इंदिरा गाँधी ने बरेली की लोकसभा सीट से जीत हासिल करने के साथ ही देश में भी अपनी छाप छोड़ दी थी।
उनके विपक्ष में राज नारायण चुनाव लड़े थे। वह समाजवादी पक्ष संभाल रहे थे, जिन्हें भारी मतों से हार का मुंह देखना पड़ा था। वह देश में जाने माने स्वतंत्रता सेनानी भी रह चुके थे जिनका देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान रहा है।
चुनाव सम्पन्न होने के कुछ समय बाद विपक्ष ने सरकार पर निशाना साधा था। अबकी बार इंदिरा गाँधी को निशाना बना गया था। उनके खिलाफ राज नारायण ने केस करने के साथ-साथ सरकार के विरोध में कड़ा रुख अपनाने का फैसला किया था।
1971 लोकसभा चुनाव ने इतिहास में नाम दर्ज़ करा लिया
इंदिरा गाँधी को आचार संहिता भंग करने का खामियाज़ा भी भुगतना पड़ा था। उनपर इलाहाबाद हाईकोर्ट में आचार संहिता को भंग करने के बिनाह पर मुकदमा दायर कर दिया गया था। आचार संहिता को भंग करने की दो बड़ी वजह बताई जाती है। सबसे पहले तो इंदिरा गाँधी के सचिव यशपाल कपूर ने राय बरेली में चुनाव के दौरान प्रचार का सम्पूर्ण संचालन किया था।
इंदिरा गाँधी का चुनाव प्रचार काफी ज़ोर-शोर से हुआ था। चुनाव प्रचार की इजाज़त किसी सरकारी कर्मचारी को नहीं थी। दूसरी वजह भी काफी अहम थी। असल में उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जिस मंच का निर्माण हुआ था, वहां के कई सरकारी कर्मचारियों ने इसका ज़िम्मा यानि फंडिंग करने का फैसला कर लिया था।
इसकी अनुमति किसी सरकारी कर्मचारी को नहीं थी, क्योंकि यह आचार संहिता के खिलाफ है। यह भी मुकदमा दायर होने की दूसरी बड़ी वजह थी। इस मुकदमे को लड़ने का ज़िम्मा शांति भूषण को दिया गया था। यानि राज नारायण की तरफ से शांति भूषण मुकदमा संभाल रहे थे।
केस की शुरुआत और इंदिरा को समन
केस की शुरुआत 1975 में हुई थी। केस की कार्यवाही के दौरान ही जस्टिस सिन्हा (जो कि उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश हुआ करते थे) ने प्रधानमंत्री को कोर्ट में हाज़िर होने का समन भेजा था। इस तरह का फैसला पहले कभी नहीं हुआ था। यह इतिहास के पन्ने में नाम दर्ज़ कराने वाले फैसलों में से एक था।
इससे पहले प्रधानमंत्री इस तरह के हालात से वाकिफ नहीं हुई थीं। इसके कुछ समय बाद इंदिरा गाँधी को कोर्ट में पेश होने का फैसला दिया गया था। आखिरकार इंदिरा गाँधी को जस्टिस सिन्हा के फैसले का पालन करना ही पड़ा। 18 मार्च 1975 को इंदिरा गाँधी की कोर्ट में पेशी हुई थी।
प्रधानमंत्री की गरीमा का मान रखा गया था और उनके बैठने का इंतज़ाम न्यायमूर्ति के मंच पर हुआ था मगर इसमें भी कानून का पालन किया गया। प्रधानमंत्री की कुर्सी न्यायाधीश की कुर्सी से थोड़ी नीचे रखने का इंतज़ाम कराया गया।
इंदिरा के सत्ता से हटने पर मचा कोहराम
प्रजातंत्र में न्यायपालिका को बराबर का दर्ज़ा देने की अनुमति नहीं है। इस घटना के बाद तो जस्टिस सिन्हा के निष्पक्ष होने का अनुमान हो गया। इसके कुछ समय बाद सत्ता में एक नए दौर की शुरुआत हो चुकी थी, क्योंकि इस मुकदमे का फैसला आ चुका था। सुनाए गए फैसले के हिसाब से इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से हटा हटा दिया गया था, जिसके बाद सरकार में कोहराम मच गया।
प्रधानमंत्री के चेहरे पर उदासी की शिकन देखी जा सकती थी। इसके कुछ समय बाद ही इंदिरा गाँधी के दोनों बेटे संजय गाँधी और राजीव गाँधी माँ से मिलने आ पहुंचे थे।
इंदिरा गाँधी को मजबूरन आपातकाल घोषित करना पड़ा
इंदिरा गाँधी को त्यागपत्र देने के अलावा कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था। संजय गाँधी त्यागपत्र देने का विरोध कर रहे थे। वह किसी भी हाल में यह नहीं चाहते थे कि इंदिरा गाँधी को विरोधियों के सामने सर झुकाना पड़े।
संजय गाँधी के लिए माँ की मर्यादा बहुत अहम थी। उनके हिसाब से विरोधी से अधिक खतरा उन्हें पार्टी में बैठे मंत्रियों से था। कुछ पार्टी के लोग प्रधानमंत्री की खाली हुई सीट पर बैठना चाहते थे इसलिए प्रधानमंत्री के पास आपातकाल लागू करने के अलावा और कोई उपाय नहीं था। इससे ही उनकी सीट बचाई जा सकती थी।
आपातकाल का इरादा साफ मगर मौके की तलाश
संजय और इंदिरा गाँधी ने बातचीत करके हल निकाल लिया था। यानि आपातकाल घोषित करने का इरादा साफ था, उन्हें बस मौके की तलाश थी। 23 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गाँधी के विरोध में दिल्ली में रैली का आयोजन किया था। उन्होंने पुलिस और मिलिट्री से सरकार के गैर-कानूनी हुक्म ना मानने की गुज़ारिश भी की थी। यही से पूरा तख्ता पलट गया।
इंदिरा गाँधी को इसके बाद आपातकाल घोषित करने का सुनहरा मौका मिल गया था। रातों-रात आपातकाल लागू करने की जद्दोजहद शुरू हो गई। काँग्रेस के नेता सिद्धार्थ शंकर राय राष्ट्रपति भवन पहुंचे और इसके कुछ समय बाद ही आर.के. धवन और इंदिरा गाँधी की मौजूदगी भी वहां हो गई थी। राष्ट्रपति फखरूद्दीन अहमद ने आपातकाल के कागज़ पर हस्ताक्षर किए और आपातकाल की घोषणा हो गई।
अगली सुबह ऑल इंडिया रेडियो पर इंदिरा गाँधी ने यह ऐलान किया, “राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।” इस तरह 26 जून 1975 को आपातकाल लागू हो गया था।