तीन तलाक बिल के पास होने से आखिरकार धर्म के नाम पर मुस्लिम महिलाओं पर होने वाले अत्याचार की हार हो ही गई। मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम केस से चर्चा में आने वाले इस मुद्दे पर सबकी अलग-अलग राय है। जहां एक ओर कुछ मुस्लिम धर्म के लोग, तीन तलाक को अपने धर्म के अनुसार अधिकार बताते हैं, वहीं कइयों का कहना है कि यह धार्मिक अधिकार के नाम पर महिलाओं पर अत्याचार है।
तीन तलाक बिल के कानून बनने का सफर
इंदौर (मध्यप्रदेश) में रहने वाली 62 वर्षीय शाहबानों, पांच बच्चों की माँ थी। उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने 1978 में अपने से आधी उम्र की महिला से निकाह रचाकर शाहबानों को तीन तलाक़ दे दिया था।
मोहम्मद अहमद खान के अनुसार तीन तलाक या ‘तलाक ऐ बिद्दत’ की मंजूरी उन्हें उनका इस्लाम धर्म देता है लेकिन इस बात को ना मानते हुए, शाहबानों ने इस तलाक के खिलाफ मुकदमा दर्ज़ कराया था। 1978 में शुरू हुए इस मुकदमे की कार्यवाही 23 अप्रैल 1985 में खत्म हुई जहां सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानों के पक्ष में फैसला सुनाया था।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद इस मुद्दे ने बहुत तूल पकड़ा-
- पहले “ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ” ने इसे अपराध मानने से सिरे से इनकार कर दिया
- फिर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ के हस्तक्षेप से यह मुद्दा राजनीतिक मुद्दा बन गया।
- जहां एक ओर काँग्रेस मुस्लिम पर्सनल लॉ के साथ खड़े होकर तीन तलाक़ के पक्ष में थी, वहीं बीजेपी इसके विरोध में थी।
हालांकि यह मुद्दा वक्त के साथ ठंडा पड़ गया लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के सत्ता में लौटते ही ये फिर से गरमा गया।
2017 में बीजेपी की सरकार जो कि सत्ता में थी, उसने तीन तलाक के विरोध में एक बिल संसद में पेश किया। लोकसभा में बहुमत होने की वजह से ये बिल 28 दिसंबर 2017 को लोकसभा से तो पास हो गया लेकिन राज्यसभा में बहुमत ना होने की वजह ये बार-बार विफल होता रहा।
राज्यसभा में पास होते ही यह बिल लगभग कानून बन चुका था मगर इसे पूर्णत: पारित करने के लिए राष्ट्रपति के हस्ताक्षर की ज़रूरत थी। फिर 1 अगस्त 2019 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने ताबूत में हस्ताक्षर की आखिरी कील ठोक कर इस दिन को ऐतिहासिक दिन बना दिया।
तीन तलाक देने पर सज़ा और जुर्माना
पहले मुस्लिम पुरुष निकाह के वक्त तय की गई “महर” की रकम देकर या कई दफा तो बिना कोई रकम दिए तलाक दे देते थे। देश में ऐसे भी मामले सामने आए हैं जहां शौहर ने कभी भी, कहीं भी, कैसे भी तीन तलाक दे देते थे।
हाल के कुछ सालों में देखा गया है कि कई शौहरों ने तीन तलाक या कह लीजिये तत्कालीन तलाक के लिए सोशल मीडिया, फोन, मेल आदि स्रोत का सहारा लिया है। अब इस कानून के तहत इस तरह के तलाक को असंवैधानिक करार दिया गया।
अब कोई भी पुरूष तीन तलाक देकर महिला पर अत्याचार नहीं कर सकता। ऐसा करने वाले पुरुष को दोषी माना जाएगा और उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। कार्रवाई में सज़ा और जुर्माना दोनो हो सकते है।
हालांकि संविधान के अनुसार तलाक के अन्य प्रारूप को संवैधानिक मान कर बरकरार रखा गया है।
- इसके तहत जो पति-पत्नी अपनी स्वेच्छा से तलाक लेना चाहते हैं, वो कानूनी प्रक्रिया से ले सकते हैं।
- पुरुष व महिला दोनों को संवैधानिक रूप से फैमिली कोर्ट में तलाक की अपील करने का पूरा अधिकार है।
अब धर्म के नाम पर मिले एक तरफा अधिकारों का नाम लेकर कोई भी पुरुष, महिलाओं का शोषण नही कर सकता। अब महिलाएं धर्म के नाम पर लाचार नहीं होंगी।