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विकास से जन्मा बेरोज़गारी का एक और दर्दनाक चेहरा

ओमप्रकाश के जीवन का अधिकतर हिस्सा आजकल अस्पताल के चक्कर लगाने में गुज़र जाता है। वह शुगर और दिल के साथ कई अन्य तरह की शारीरिक परेशानियों का सामना कर रहा है। पहले उसे यह सभी परेशानियां नही थी परंतु 52 साल के ओमप्रकाश के लिए विकास का पिछला दो दशक बेरोज़गारी, निराशा, बीमारी और दुश्वारियों का संदेश लेकर आया है।

इन दुश्वारियों से निराशा इतनी है कि 52 साल के ओमप्रकाश का कहना है,

अब तो ना जाने किस दिन आंखो बंद हो जाएंगी।

अस्पताल के डॉक्टरों का कहना है कि उसकी बीमारी की वजह उसका हाइपरटेंशन है। दरअसल, उसकी हाइपरटेंशन और तकलीफों की वजह उसके रोज़गार पर आया संकट है। यह विकास जनित बेरोज़गारी का भयावह चेहरा है। जिस पर ना सत्तापक्ष की निगाह है और ना ही विपक्ष इसे बहस के काबिल समझता है।

कौन हैं ओमप्रकाश?

ओमप्रकाश एक टाईपराइटर रिपेयर करने वाला मिस्त्री है। जिसने 1985-86 में पहाड़गंज के इलाके में किसी एक व्यक्ति से प्रशिक्षण हासिल करके इस कारोबार की शुरूआत की थी। ओमप्रकाश 1990 के साल को अपने कारोबार और जीवन का सबसे बेहतरीन दौर मानते हैं। इसी साल उनकी शादी भी हुई थी परंतु जैसे-जैसे कंप्यूटर का आगमन हुआ और उसका चलन शुरू हुआ ओमप्रकाष का धंधा चौपट होता चला गया।

ओमप्रकाश याद करते हुए बताते हैं कि 2000 के बाद उनके काम में भारी गिरावट शुरू हुई। जब हरेक जगह कंप्यूटर के की-बोर्ड ने टाइपराटर की जगह लेनी शुरू कर दी थी।

अपने पुराने दिनों को याद करते हुए ओमप्रकाश बताते हैं कि एक ज़माना था जब उनके अपनी तरह के अंदाज़ और अपनी तरह के नखरे होते थे। वह कहते हैं,

हमारे पास जब कोई शिकायत आती थी तो पांच-छह दिनों के लिए हम शिकायत को वैसे ही टाल देते थे और टाइपराटर मालिक के पास हमारा इंतज़ार करने के अलावा कोई और चारा नहीं होता था। आज तो यदि गलती से भी कोई शिकायत अथवा काम की खबर आ जाए तो हम एक घंटे एक ही जगह पर खड़े होते हैं कि कहीं ग्राहक निकल ना जाए।

ओमप्रकाश बताते हैं कि उनके जैसे दिल्ली शहर में टाईपराटर रिपेयर करने वाले सैंकडों लोग होते थे। आज सबकी हालत खराब है। टाईपराटर सिर्फ पुराने ज़माने के कुछ गिनती के लोगों के ही पास बचे हैं। पुराने टाईपराटर को ठीक करने वालों में से अधिकतर दूसरे पेशों में चले गए हैं अथवा भयावह बेकारी से जूझ रहे हैं। वह बताते हैं,

कोई परचून की दुकान कर रहा है, कोई ऑटो चला रहा है, कोई अपने पुराने काम के साथ सुबह अखबार की हाॅकरी कर रहा है। परंतु बदलते वक्त के साथ किसी ने भी इस खत्म होते पेशे में काम करने वाले लोगों के लिए वैकल्पिक रोज़गार की चिंता नही की है। दूसरे पेशों में चले जाने के बावजूद भी अधिकतर मिस्त्री एक प्रच्छन्न बेरोज़गारी का शिकार ही हैं।

यह केवल टाईपराटर मिस्त्रियों का सवाल नहीं है। टाईपराटर से जुडे़ तमाम तरह के कामों की कमोबेश यही अवस्था है। टाईपराटर के लिए बनने वाले रिबन से लेकर उसके पूरे ढ़ांचे के विनिर्माण से जुडे़ लोग इस बदलते दौर में इसी प्रकार के दर्दनाक हालात के शिकार हैं।

सूचना प्रौद्योगिकी की क्राान्ति और बेरोज़गारी

1874 में बने पहले कमर्शियल टाईपराटर के साथ टाईपराटर के उद्योग से जुडे़ सभी लोगों की आजीविका दम तोड़ रही है और यह केवल टाईपराटर का ही सवाल नहीं है।

औद्योगिक युग के तमाम कारोबार एक गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी की क्राान्ति के इस दौर में आज मोबाइल फोन ने हाथों से घडियां उतरवा दी हैं। घरों में रखे अलार्म को गायब कर दिया है, घर में बजते रेडियो, ट्रांजिस्टर को इतिहास बना दिया है, डायरी और प्रोगामर को पुराने दौर और पुराने ज़माने के लोगों की कहानी बना दिया है।

इसके साथ ही उनसे जुड़े उद्योगों को एक नई किस्म की दुर्दशा की स्थिति में धकेल दिया है। बदलते पहनावे और फैशन और उसकी बिक्री ने दर्जी की दुकानों को बंद करने पर मजबूर कर दिया है। पुराने फोटो स्टुडियो और 90 के दशक में गली-गली में उग आए टेलिफोन बूथ और उनसे पनपे नए रोज़गार सभी गायब हैं। पुरानी प्रिंटिंग प्रेस उसमें संलग्न लोग और ऐसे ही ना जाने कितने खत्म होते कारोबार हैं।

दरअसल, यह एक संक्रमण का दौर है। हम औद्योगिक युग से सूचना युग की और प्रस्थान कर रहे हैं। आज हम औद्योगिक समाज से एक ज्ञान आधारित ऐसे समाज की ओर प्रस्थान कर रहे हैं जिसमें सूचना और सूचना को रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति एक उत्पादन ईकाई बन जाने की प्रक्रिया से गुज़र रहा है।

खत्म होते रोज़गार पर कोई गंभीर चर्चा नहीं हो रही है।

इस समय में मौजूदा दौर के शिक्षित नौजवानों की बेरोज़गारी की चर्चा और उसके आंकडें तो काफी हैं परंतु नए सूचना युग की शुरूआत के कारण औद्योगिक युग के खत्म होते रोज़गार और उसमें संलग्न लोगों पर कोई गंभीर चर्चा नहीं हो पा रही है। औद्योगिक युग के ऐसे खत्म होते रोज़गारों में संलग्न रहे लोगों की संख्या करोड़ों में है परंतु अफसोस इस बात का है कि उनकी चिंता सरकार की नीतियों तक में नहीं है।

पिछले दिनों सरकार ने असंगठित क्षेत्र के लिए एक पेंशन स्कीम की योजना पेश की जो कि 18 से लेकर 40 साल के सभी उन लोगों को कवर करेगी जो असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं परंतु सवाल फिर वही है कि ओमप्रकाश का क्या? क्या आपनी उम्र की आधी सदी बिता चुके और विकास के शिकार होकर अपना रोज़गार गंवा चुके ओमप्रकाश जैसे असंख्य बेरोज़गारों के भविष्य उनके स्वास्थ्य को लेकर चर्चा करने के लिए सरकार अथवा विपक्ष के पास समय नहीं है।

सूचना युग का स्वागत है कि वह विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया की एक अवस्था है परंतु क्या पिछले औद्योगिक युग के अनेकों पेशों में लगे लोगों का इस सूचना युग तक आने में कोई योगदान नहीं था? क्या उन्होंने विकास की इस प्रक्रिया में अपनी एक ऐतिहासिक भूमिका अदा नहीं की थी?

यदि आप गौर से देखें तो जीवन के कठिन दौर से गुज़र रहे इन छुपे हुए बेरोज़गारों को अपनी दुश्वारियों के साथ आप अपने चारों तरफ ही पाएंगे। हमारे आसपास ऐसे अनेकों ओमप्रकाश हैं और संक्रमण के इस दौर में आज ज़रूरत है, वर्तमान दौर के युवा बेरोज़गारों के साथ इन बेरोज़गारों की बेकारी को भी चर्चा के केन्द्र में लाने की।

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