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परिवारवाद की बंदिशों को आखिर कब तोड़ेगी काँग्रेस पार्टी?

सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी

सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी

बहुत दिनों के राजनीतिक दिखावे और उठा-पटक के बाद काँग्रेस ने एक बार फिर आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करते हुए सोनिया गाँधी को अपना अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया और इस तरह उन्होंने देशभर में उस लोकतंत्र की रक्षा कर ली, जिसकी लड़ाई काँग्रेस पिछले 5 सालों से बीजेपी के खिलाफ लड़ रही है।

अब आप काँग्रेस का लोकतंत्र और उसकी लोकतंत्र बचाने की लड़ाई के सच समझ को गए होंगे। मुझे समझ नहीं आता कि जिस काँग्रेस पार्टी और उसके नेताओं ने इस देश की आज़ादी की लड़ाई में सबसे बड़ी भूमिका अदा की, वह कैसे आज तमाम सवालों को हल करने में नाकाम साबित हो रही है?

ऐसे ढेरों सवाल आज भारत की जनता और काँग्रेस के कार्यकर्ताओं के मन में है लेकिन पार्टी उनका जवाब देने में सक्षम नहीं है। कुल मिलाकर काँग्रेस खुद के लिए ही भस्मासुर साबित हो रही है। अब आपको यहां भस्मासुर की भी कहानी जान लेनी चाहिए ताकि स्तिथि पूर्ण रूप से स्पष्ट हो पाए।

भस्मासुर कौन था?

भस्मासुर हिन्दू पौराणिक कथाओं में वर्णित एक ऐसा राक्षस था, जिसे वरदान था कि वह जिसके सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा। कथा के अनुसार भस्मासुर ने इस शक्ति का गलत प्रयोग करना शुरू किया और शिव को भस्म करने चला गया।

फोटो साभार: pixabay

शिव ने विष्णु से सहायता मांगी जिसके बाद विष्णु ने एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण किया और भस्मासुर को आकर्षित करने के लिए नृत्य किया, जिसे देखकर भस्मासुर विष्णु की तरह नृत्य करने लगा और उचित मौका देखकर विष्णु ने अपने सिर पर हाथ रखा। भस्मासुर ने इसकी नकल की और अपने ही वरदान से भस्म हो गया।

परिवारवाद हर पार्टी में है लेकिन काँग्रेस इससे ग्रसित है

बात केवल नेहरू और बाद में गाँधी परिवार के काँग्रेस पर कब्ज़े की नहीं है, क्योंकि परिवारवाद हर भारतीय राजनीतिक दल का हिस्सा है। बस उसका स्वरूप अलग-अलग है। दरअसल, बात है कि काँग्रेस अपने दायरों और बंदिशों को नहीं तोड़ पा रही है। वह घोर परंपरावाद से ग्रसित पार्टी है।

ऐसा नहीं है कि काँग्रेस में गैर गाँधी-नेहरू अध्यक्ष नहीं बने लेकिन उन अध्यक्षों के पास अधिकार नहीं थे और जो अधिकार थे भी, वे मैडम या सर के हस्ताक्षर या मोहर के बगैर इस्तेमाल नहीं किए जा सकते थे।

इसी कारण वे चुने हुए अध्यक्ष कभी काँग्रेस को संगठनात्मक तौर पर बदल नहीं सके। हालांकि मोदी-शाह के मौजूदा दौर में बीजेपी भी कुछ इसी रास्ते पर चल रही है और यह निश्चित ही आगे आने वाले वक्त में बीजेपी को नुकसान करेगा।

परिवारवाद हर पार्टी में है लेकिन काँग्रेस का परिवारवाद अब उसको नुकसान पहुंचा रहा है। इस बार काँग्रेस चाहती तो निर्णायक होकर किसी युवा को पार्टी की कमान सौंपी सकती थी लेकिन उसके सीनियर चाटुकार और अहंकारी नेताओं ने ऐसा नहीं किया। खैर, अब तो जो होना था हो गया। सवाल यह है कि अब सोनिया गाँधी वह कर पाएंगी, जो उन्होंने पिछली बार किया था। 

मुद्दों पर बिखरी काँग्रेस

संसद के दोनों सदन हो या संसद के बाहर। मौजूदा काँग्रेस हर मुद्दे पर पूरी तरह बिखरी नज़र आती है और यह भी नज़र आता है कि वह ट्रिपल तलाक जैसे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर आज भी केवल मुस्लिम तुष्टीकरण में ही जुटी है और हर बार भटक जाती है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने के मुद्दे पर पार्टी पूरी तरह बिखरी नज़र आई और कोई भी आधिकारिक स्टैंड नज़र नहीं आया।

उनके स्वयं के राज्यसभा के चीफ व्हिप भुवनेश्वर कालिता ने यह कहते हुए काँग्रेस से इस्तीफा दे दिया कि आज काँग्रेस ने मुझे कश्मीर मुद्दे के बारे में व्हिप जारी करने को कहा है जबकि सच्चाई यह है कि देश का मिजाज़ पूरी तरह से बदल चुका है और यह व्हिप देश की जन भावना के खिलाफ है। उनकी पार्टी आत्महत्या कर रही है और वह इसमें उसके भागीदार नहीं बन सकते।

काँग्रेस के कई पुराने और बड़े नेता भी अनुच्छेद-370 के पक्ष में खड़े दिखाई दिए, जिनमें कर्ण सिंह से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक शामिल हैं। काँग्रेस अनुच्छेद-370 के उस मुद्दे पर भी एक राय नहीं बना पाई जिस पर उनके सबसे बड़े नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, “आर्टिकल 370 एक दिन घिसते-घिसते पूरी तरह घिस जाएगा।” देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए यह अफसोस की बात है।

नेताओं को ढो रही है काँग्रेस

राहुल गाँधी के कार्यकाल में एक युवा अध्यक्ष होते हुए भी उन्होंने मध्यप्रदेश और राजस्थान के लिए वही चाटुकार टाइप नेताओं को मुख्यमंत्री के रूप में चुन लिया और एक बार फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे युवाओं को नज़रअंदाज़ कर दिया। इसका कारण समझ नहीं आता कि क्यों काँग्रेस इन नेताओं को ढोने पर मजबूर है?

सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी। फोटो साभार: Getty Images

इसी तरह सोनिया गाँधी के कार्यकाल में एक कठपुतली जैसे प्रधानमंत्री चुनकर आते हैं और सरकार के सारे बड़े कैबिनेट मंत्री अपने आपको प्रधानमंत्री ही समझते रहे। इस कुप्रबंधन का फल भी काँग्रेस को बाद में भुगतना पड़ा। 

तमाम घोटाले और कई तरीके के भ्रष्टाचार सामने आए। सोनिया गाँधी भी इन वजहों से अंत में पार्टी को सुचारू रूप से चलाने में असमर्थ साबित हुईं और उनको एक अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा।

दूसरी तरफ काँग्रेस के सारे बड़े लीडर जो मिनिस्टर थे, वे अपने-अपने धंधे में लग गए और उन्होंने पार्टी पर कोई ध्यान नहीं दिया जबकि काँग्रेस के कुछ पुराने नेताओं मणिशंकर अय्यर और दिग्विजय सिंह को देखकर तो यह कहना सर्वाधिक उचित होगा कि इन्होंने काँग्रेस को तबाह करने की सुपारी ले रखी है लेकिन काँग्रेस का नशा है कि टूटने का नाम ही नहीं लेता।

इस फौज के बल पर जंग नहीं जीती जा सकती

काँग्रेस के पास अब भी वक्त है कि वह भारतीय लोकतंत्र में अपनी उपयोगिता को पहचाने और एक युवा और स्फूर्ति भरे नेतृत्व को पार्टी की कमान सौंपकर अपने सामान्य कार्यकताओं को यह भरोसा दें कि इस पार्टी में सबके लिए समान मौका है। काँग्रेस को चाहिए कि वह अपनी पार्टी के इतिहास से कुछ सबक ले और आगे बढ़े।

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