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व्हाट्सएप और फेसबुक की नफरत से हमें कब आज़ादी मिलेगी?

फोटो साभार pixabay

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स्वतंत्रता दिवस के रोज़ सुबह आयरन की हुई सफेद यूनिफॉर्म पहनकर समय से पहले स्कूल पहुंचने के बाद हाथ में तिरंगा पकड़े हुए हम कितने अच्छे लगते हैं ना! एक स्वतंत्रता दिवस के मौके पर और दूसरा गणतंत्र दिवस के रोज़ हमलोग बहुत स्मार्ट लगते हैं। पीटी वाले सर से झंडे को सही ढंग से बांधना सीखने के बाद भूल जाते हैं।

हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस पर प्रिंसिपल की स्पीच से ज़्यादा दो लड्डू मायने रखते थे। ऐसा लगता था जैसे उन्हीं में सारी खुशियां सिमटी हुई हैं। बचपन के दौर में स्वतंत्रता दिवस का मतलब केवल इतना ही था कि बिना बैग लेकर स्कूल जाना है, क्योंकि उस रोज़ लड्डू मिलना है।

बदलते वक्त के साथ जैसे-जैसे संविधान की थोड़ी समझ हुई, मेरे लिए स्वतंत्रता दिवस के मायने बदल गए। जिस वक्त मुल्क आज़ाद हुआ, उस वक्त हमें भारत उसी रूप में मिला जैसे कोई अनफर्निश्ड घर। भारत निर्धनता, अशिक्षा तथा बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए जूझ रहा था।

आज़ादी के बाद हमने चुनौतियों का सामना किया

देश में सामाजिक विषमताओं के साथ-साथ आर्थिक चुनौतियां भी थीं। हमारे पास भौतिक संसाधनों के नाम पर कुछ भी नहीं था, उस वक्त केवल हिम्मत, हौसला और नवीन भारत के संकल्प को साकार करने के लिए सकारात्मक सोच थी।

नई सरकार के गठन के बाद जनता के प्रतिनिधि संसद पहुंचे, जिसके बाद पंचवर्षीय योजना बनाई गई फिर नए भारत के निर्माण का कार्य शुरू हुआ। पंजाब, राजस्थान और हरियाणा के किसानों को लाभ पहुंचाने के मकसद से एक बांध बनाया गया

भारतीयों के ज्ञान के प्रवाह को बल देने के लिए IIT खोले गए। हमने देश को परमाणु सम्पन्न बनाया, हम सुरक्षा की दृष्टि से मज़बूत हुए, हमने विश्व पटल पर पहुंचने की और कदम बढ़ाए। धीरे-धीरे प्रौद्योगिकी का विकास हुआ और दूरदर्शन चैनल की शुरुआत हुई।

सन् 1965 की जंग के बाद देश ने लाल बहादुर शास्त्री द्वारा ‘जय जवान जय किसान’ का नारा सुना। इसके तहत कृषि के सुधार पर ज़ोर देते हुए हमने हरित क्रांति और दुग्ध क्रांति का दौर देखा, जिसने कृषि उत्पादन बढ़ा और लोगों को रोज़गार के अवसर भी मिले।

ग्लोबलाइज़ेशन का दौर

एक समय आने पर देश ने इमरजेंसी का दंश भी झेला मगर विकास की ओर बढ़ते कदम नहीं रुके। हम सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक दृष्टि से मज़बूत बन रहे हैं। इसी क्रम में हमने अपना सुपर कम्प्युटर बनाया। टेलीफोन बूथ ने आते ही पूरे देश के कोने-कोने से लोग एक दूसरे से जुड़ गए।

फोटो साभार; pixabay

उस वक्त जगह-जगह पीसीओ  दिखते थे। हालांकि उनकी जगह आज मोबाइल ने ले ली है। सड़क, रेलवे और हवाई अड्डों को विकसित किया गया। हमने ग्लोबलाइज़ेशन का दौर देखा, जिसके बाद पिज्ज़ा हट, मैकडोनाल्ड और कई बड़ी कंपनियां  भारत आईं। इसी के साथ भारत के ब्रांड्स भी विदेशों में पहुंचने लगे। कला, संगीत और विज्ञान ने काफी तरक्की की।

व्हाट्सएप और फेसबुक के दौर में नफरत की आग

आज हम व्हाट्एप और फेसबुक के दौर में हैं। हम फिर वहीं लौट रहे हैं, जहां से हमने शुरुआत की थी क्योंकि इन दिनों समस्याओं का अंबार लगा हुआ है। आज कल आतंकवाद, नक्सलवाद, आदिवासियों की जल, जंगल और ज़मीन का संघर्ष, बलात्कार, गरीबी, मॉब लिंचिंग, बोलने की आज़ादी, रोज़गार की कमी, पर्यावरण की समस्या और सामाजिक असमानता पर बात करने से हम लोग उबने लगे हैं।

आज की तारीख में ये शब्द हमारे ज़हन में बैठ चुके हैं। एक सच यह भी है कि हम सब इन शब्दों से डरने लगे हैं। हिंसा का माहौल, भीड़ का डर, रोज़गार, गरीबी और अशिक्षा से डर लगने लगा है।

हमें यह भी समझना होगा कि बातचीत के ज़रिये ही हमें इन चीज़ों का हल निकालना है। हां, एक सवाल ज़रूर है कि कैसे? हम हमेशा से भेड़चाल चलते आए हैं। इतिहास गवाह है कि अंग्रेज़ों ने बातों ही बातों में मीर जफर से गद्दारी करवाकर हिन्दू मुस्लिम में फूट डलवा दी।

कर्तव्यों को लेकर हमें सजग होना पड़ेगा

आज भी ढोंगी बाबाओं के झांसे में आकार बहुत से लोग अपने बच्चों की बली दे देते हैं। कई दफा तो साधारण मनुष्य को भगवान बना देते हैं।जब वही भगवान हमारे साथ छल करते हैं, तब इसके ज़िम्मेदार भी हम ही हैं क्योंकि हम सामने वाले को हमें वेवकूफ बनाने का मौका देते हैं।

आज फेसबुक और व्हाट्सएप पर हिन्दू-मुस्लिम के बीच मतभेद पैदा करने के लिए कई वीडियोज़ वायरल किए जा रहे हैं। इन चीज़ों की वजह से तर्क करने की हमारी शक्ति खत्म होने लगती है। हमें सोचना होगा कि क्या व्हाट्सएप और फेसबुक की नफरत से हमें आज़ादी मिलेगी भी या नहीं?

आज हमें ऐसी चीज़ों से बचने की ज़रूरत है। लोगों को हम जन्मदिन पर संविधान की प्रस्तावना भेंट कर सकते हैं। हमें ऐसे लोगों पर नज़र रखने की ज़रूरत है, जो समाज में नफरत फैलाते हैं। हमें ऐसे चैनलों को देखना बंद करना होगा जो दिनभर हिन्दू-मुस्लिम के बीच नफरत फैलाते हैं।

मैं राजनीति को हमेशा उम्मीद से देखता रहा हूं क्योंकि नेता को हम ही बनाते हैं। आसान भाषा में कहें तो हम ही सरकार बनाते हैं। सरकार को जनता से डरना चाहिए ना कि जनता को सरकार से। हमें अपने कर्तव्यों को लेकर सजग होने की ज़रूरत है।

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