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एक स्वतंत्र मुल्क के भीतर हमारी आज़ादी कहां स्थित है?

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

लोग आज़ादी के इस जश्न में अपने आपको कैद महसूस कर रहे हैं। चारों ओर फैले शोर में भी अजीब सा गहरा सन्नाटा है। रह-रहकर पहलू खां की तस्वीर समाने आ रही है और आंखों में आंखें डाले पूछ रही है कि क्या मुल्क की आज़ादी मेरी आज़ादी नहीं थी? यही प्रश्न रोहित वेमुला भी पूछा करते हैं, हमारे पास कोई उत्तर नहीं है।

‘आज़ादी’ सिर्फ एक शब्द मात्र बनकर रह गई है, एक बार फिर इसके मायनों की खोज पर निकलने की सख्त ज़रूरत है। इस मुल्क को जब ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी मिली थी, तब वज़ीर-ए-आज़म ने एक नए हिंदुस्तान की कल्पना करते हुए, अपने भाषण में कहा था, “यह समय आराम करने या चैन से बैठने का नहीं है, बल्कि सतत प्रयास करने का है ताकि हमारे द्वारा बारम्बार की गई प्रतिज्ञा पूरी हो सके।”

उन्होंने कहा था, “भारत की सेवा का मतलब लाखों पीड़ित लोगों की सेवा करना है। इसका मतलब गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और अवसर की असमानता को समाप्त करना है। हमारी पीढ़ी के सबसे महानतम व्यक्ति की महत्वाकांक्षा हर आंख से एक-एक आंसू पोंछने की है। हो सकता है यह कार्य हमारे लिए संभव ना हो लेकिन जब तक पीड़ितों के आंसू खत्म नहीं हो जाते, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।”

फोटो साभार: Flickr

एक नए आज़ाद और संप्रभु भारत की कल्पना में गरीबी, शोषण और भेदभाव से मुक्ति पाने की हिंदुस्तान की आवाम की उम्मीदें शामिल थीं। हर ज़हन में सम्मानजनक जीवन जीने की उम्मीद, बराबरी की उम्मीद, न्याय और सौहार्द की उम्मीद थी। वक्त बीता गया और वादों के साथ उम्मीदों ने भी दम तोड़ना शुरू कर दिया।

नए मुल्क में आज़ादी का ख्वाब देखने वालों की तादाद गिरने लगी, क्योंकि आज़ादी मात्र चंद लोगों का विशेषाधिकार बन गई थी। एक उम्मीद भरी नई सुबह को निराशा के घने अंधकार ने ढक लिया और वक्त के साथ आज़ादी का सौदा किया जाने लगा। पिछले 70 सालों का इतिहास इस बात का गवाह है कि आखिरकार शहीद-ए-आज़म का डर हकीकत में बदल चुका था।

गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ों ने ले ली थी। देश की बड़ी आबादी अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रही थी। आज के भयावह दौर में लोग आज़ादी के सार को लगभग भूल चुके हैं। मन में सवाल यह उठता है कि एक स्वतंत्र मुल्क के भीतर हमारी आज़ादी कहां स्थित है?

क्या वह अखलाक आज़ाद था, जिसे भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला? क्या कठुआ की आसिफा आज़ाद थी? क्या जातिवाद का शिकार बना रोहित वेमुला आज़ाद था? कितने आज़ाद हैं कॉरपोरेट की लूट से त्रस्त आदिवासी? सड़कों पर बेरोज़गार भटकने वाले युवा कितने आज़ाद हैं? कितनी आज़ाद हैं वे महिलाएं जिन्हें अपवित्र बताकर मंदिर में प्रवेश करने नहीं दिया जाता?

क्या अपने साथ हुई ज़्यादती के खिलाफ लड़ने वाली उन्नाव की बेटी आज़ाद है? क्या जस्टिस लोया आज़ाद थे? क्या कृषि संकट से दिन रात जूझता किसान आज़ाद है?

जी  हां, हम आज भी गुलाम हैं। पितृसत्ता, जातिवाद, सामंतवाद, होमोफोबिया और पूंजीवाद के गुलाम हैं हम। दुर्भाग्यवश, असल आज़ादी की कीमत बहुत महंगी होती है। जश्न की चमक से सबकी आंखें चौंधिया गई हैं। किसी को गुलामी की कानों कान खबर नहीं है। सब खुश हैं, इस भ्रम में कि सब आज़ाद हैं। पहलू खां की आत्मा रो रही है।

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