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“मैं मिशन मंगल को महिला प्रधान फिल्म नहीं मानता हूं”

अभी तक ‘मिशन मंगल’ देखी नहीं है और देखने की इच्छा भी नहीं है। उस फंतासी में जीना नहीं चाहता, जिसको फिल्म ने दर्शकों के बीच बुनने की कोशिश की है और दर्शक लहालोट होकर अभीभूत हुए जा रहे हैं।

आपका सवाल होगा कौन सी फंतासी? मुझे एक बात से चिढ़ होती है कि किसी भी काम में औरतों को नायक के तौर पर दिखाने में, औरतों के कैरेक्टर के पूरे संघर्ष को दिखाने में, फिल्मों को परहेज़ क्यों है? महिला वैज्ञानिक के रूप में कैरेक्टर को लिखने में उसके पूरे सामाजिक ताने-बाने को बताने की कोशिश क्यों नहीं की गई है? मतलब उसका वैज्ञानिक बनने का संघर्ष क्या रहा है, ISRO में इस मुकाम तक पहुंचने में उसका संघर्ष क्या रहा है।

हम सभी जानते हैं कि खेल का मैदान हो, या राजनीति का, या फिर डॉक्टरी की पढ़ाई, हर क्षेत्र में महिलाएं तरक्की की सीढ़ियां चढ़ने से सबसे पहले मर्दवाद से ही टकराती हैं और यह वह कारण है, जो किसी भी क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को सीमित कर देती है।

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि मंगलयान के बाद चंद्रयान-2 मिशन में सफल प्रयोग के बाद भारत आज अंतरिक्ष की दुनिया में काफी ऊंची छलांग लगाकर वैश्विक स्तर पर अपनी मज़बूत पहचान बना चुका है, जिसमें दो महिला वैज्ञानिकों ने अहम भूमिका निभाई।

फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

परंतु, वास्तविक सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा कठोर है। भारत ही नहीं, पूरे विश्व में विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी दाल में नमक के बराबर ही है, यहां औरत-मर्द का अनुपात बहुत बुरा है। खासकर साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथेमेटिक्स के क्षेत्र में।

ज़िन्दगी के अन्य क्षेत्रों की ही तरह महिलाओं को विज्ञान में भी केवल स्वयं को सिद्ध ही नहीं करना पड़ रहा है, मिसाल भी कायम करनी पड़ रही है, ताकि अगली पीढ़ी के लिए वह रोल मॉडल भी बन सके। अपनी महती ज़िम्मेदारी के साथ-साथ एक अलग भूमिका निभाने के लिए महिलाओं का संघर्ष अधिक चुनौतिपूर्ण बना हुआ है, चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो।

भारत में तो आज भी कई महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा तक पहुंचना मुश्किल है

भारत में तो महिलाओं का वैज्ञानिक होना बहुत दूर की बात है। वह उच्च शिक्षा तक बहुत परेशानी से पहुंच पाती हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि लड़कियां साइंस पढ़ती नहीं हैं या उनकी रूचि नहीं है। एमएससी के बाद वे गायब हो जाती हैं, वह रिसर्च की पढ़ाई के आखिरी मुकाम एमफिल, पीएचडी तक पहुंच ही नहीं पाती हैं।

वजह, हमारे देश में हर दूसरे घर के प्रमुख लोगों को लगता है कि लड़कियों को परिवार चलाने के लिए बेलन-कलछी चलाना ज़्यादा ज़रूरी है। क्या महिला वैज्ञानिक के कैरेक्टर पर बनाई गई फिल्म में यह दिखाना ज़रूरी नहीं है कि भारत में महिलाओं का वैज्ञानिक होना कोई दाल-भात का कौड़ नहीं है।

आठवीं महिला विज्ञान कॉंग्रेस के उद्घाटन में केंद्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने बताया,

सबको मालूम है कि विज्ञान लिंग तटस्थ है लेकिन महिलाओं को विज्ञान में अवसर प्रदान करने के मामले में तटस्थता नहीं है। देशभर में अनुसंधान और विकास कार्य में 2.8 लाख वैज्ञानिक नियोजित हैं, जिनमें महिलाओं की संख्या सिर्फ 14 फीसदी हैं। इस तरह, विज्ञान में महिलाएं काफी अलपसंख्यक हैं।

ज़ाहिर है महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र में पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण उनकी भागीदारी काफी सीमित है।
अपनी पीएचडी तक की पढ़ाई के दौरान मैंने आज तक यह नहीं सुना कि किसी लड़के को शादी करने के कारण या बच्चों का बाप बनने के कारण अपनी पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी हो पर लड़कियों के सामने यह चुनौती ज़रूर रही कि वह शादी के बाद अपना रिर्सच जारी रख सकेगी या रिर्सच पूरा होने के बाद अपना करियर चालू रख सकेगी।

रिसर्च के लिए महिलाओं को प्रोत्साहित करना ज़रूरी है

महिलाओं की इन चुनौतियों से निपटने के लिए यूर्निवर्सिटी, सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ परिवार और रिसर्चर्स मेंटरिंग को सहयोग का नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है, रिसर्च के लिए वज़ीफे में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने से उनके कामकाज के माहौल को सहज किया जाना भी ज़रूरी है।

हाल के दिनों में स्टेम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथेमेटिक्स का संक्षिप्त रूप है) क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए कई तरह के प्रोत्साहन की शुरुआत से कुछ अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं। यूसी डेविस एडवांस प्रोग्राम ने संस्थागत बाधाओं की पहचान कर, प्रगति और स्थायित्व में सुधार की दिशा में काफी सुधार किए हैं, जिससे महिलाओं को स्टेम क्षेत्र में आगे बढ़ने का मौका मिल रहा है।

विश्व के देशों की तरह भारत में भी इस तरह के प्रोग्रामों को बढ़ावा देने की ज़रूरत है, जिसमें स्कूल से कॉलेज और कॉलेज के बाद रिसर्च में महिलाओं के साथ बाधाओं की पहचान कर उनको दूर किया जा सके और महिलाओं को अधिक प्रोत्साहित किया जा सके।

मिशन मंगल और चंद्रयान मिशन में सफलता की कहानी लिखने वाली महिला वैज्ञानिकों के उस संघर्ष की कहानी होती कि कैसे और किन-किन बाधाओं से लड़ते-भिड़ते महिला वैज्ञानिक यहां तक पहुंच सकीं और अपने आपको सिद्ध करके रोल मॉडल बन सकीं, तो यकीन माने मैं इस फिल्म को ज़रूर देखता और पक्ष में समीक्षाएं भी लिखता।

मनोहर कहानियों की फंतासी में फंसकर खुश रहना महज़ बेवकूफी है और कुछ नहीं। फिल्म का ट्रेलर देखकर तो यही लगता है कि पूरी फिल्म देश के मौजूदा राष्ट्रीय आख्यान में एक कहानी को सुनाने की कोशिश भर है, जिसमें नायिकाओं के चरित्र को राष्ट्रीय गौरव के साथ जोड़ भर दिया गया है और कुछ नहीं।

फिल्म महिला वैज्ञानिकों के योगदान पर बात करती है पर विज्ञान क्षेत्र में महिला वैज्ञानिकों की चुनौतियों से कोसों दूर रह जाती है, इसलिए इसको महिला प्रधान फिल्म कहना महिला वैज्ञानिकों के संघर्ष से न्याय नहीं होगा।

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