बुद्धिजीवी, यह शब्द सुनकर लोगों के कान खड़े हो जाते हैं लेकिन इस शब्द के मायने हर इंसान के लिए अलग-अलग हैं। यह शब्द सम्मान और गाली के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसे गाली के रूप में इस्तेमाल करने वाले लोगों पर गुस्सा और तरस आता है लेकिन मैं यहां बुद्धिजीवियों या इंटेलेक्चुअल्स को टारगेट नहीं कर रही हूं, बल्कि इनसे संबंधित एक फिनोमेना है, जिससे मुझे नाराज़गी है।
देश में आज जिस तरह का माहौल है, उसे देखकर साफ तौर पर यह समझा जा सकता है कि संविधान के लागू होने के लगभग 70 साल पूरे होने के बाद भी भारतीय समाज ने संवैधानिक मूल्यों को अंगीकार नहीं किया है। समता, बंधुता, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता ये आज भी हमारे लिए अजनबी हैं। आज भी जाति, धर्म और लिंग के नाम पर उसी स्तर का भेदभाव और हिंसा होता है, जितना सौ साल पहले होता था।
समाज में सोशल साइंस की भूमिका
हमारी आधी से ज़्यादा जनसंख्या का आज भी साइंटिफिक टेंपर जैसी किसी चीज़ से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि भेदभाव, शोषण और सामंतशाही इतिहास वाले इस समाज को संवैधानिक मूल्यों के आधार पर ढालना आसान बात नहीं है लेकिन सच यह भी है कि सरकारों ने ऐसा करने की ईमानदार कोशिश नहीं की। कोई भी सत्ताधारी कभी नहीं चाहेगा कि जनता को उसके अधिकारों और शक्तियों का ज्ञान हो।
रिसर्च हमारे सामाजिक बदलाव में बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है। शोध चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, उसका मकसद समाज को बेहतर और संवेदनशील बनाना होता है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारे देश में सोशल साइंस फ्रेटरनिटी की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है। संवैधानिक और प्रोग्रेरेसिव मूल्यों को समाज में पैनिट्रैट करने में जो संस्थाएं बड़ी भूमिका निभा सकती हैं, उनमें सोशल साइंस की संस्थाएं भी एक है।
सरकार ने सोशल साइंस और रिसर्च को किया अनदेखा
दुर्भाग्यवश जिस इंटेलेक्चुअल इलिटनेस के फिनोमेना से मुझे दिक्कत है, पूरा एकेडेमिया उससे ग्रसित है। सरकारों ने सोशल साइंस एजुकेशन और रिसर्च को हमेशा अनदेखा किया है और सोशल साइंस फ्रेटरनिटी ने अपने ओबजेक्टिव को। इंटेलेक्चुअल सिर्फ उसे ही माना जाएगा, जो एक जाति विशेष से आता है और एक भाषा विशेष में लिखता या बोलता है।
जिस भाषा में थ्योरी प्रोडयूस की जाती है, उसे समझने के लिए आपको भाषाविद् होना पड़ेगा। जिन किताबों में दुनिया बदलने की ताकत है, उसे लोगों तक पहुंचने नहीं दिया जाता है। शोध की किताबों को भारी-भरकम शब्दों के ज़रिये जटिल बना दिया जाता है।
पूरा एकेडेमिया सिर्फ यही कोशिश करता है कि कैसे साधारण-से-साधारण चीज़ों को भारी भरकम शब्दों के इस्तेमाल से कलिष्ट बनाया जाए। जो भी एकेडेमिया में इंटर करेगा उसका मकसद नॉलेज को लोगों तक पहुंचाना नहीं, बल्कि नॉलेज को मोनोपोलाइज़ कर उसे कठिन-से-कठिन शब्दों में लपेटकर अकादमिक पेपर लिखकर अपना ए.पी.आई. स्कोर बढ़ाना होगा।
लिखकर अपने विचार लोगों तक पहुंचाना
अगर अंबेडकर, गाँधी और नेहरू अपने विचारों को लिखकर ताला लगा देते, तो आज सिर्फ मुट्ठीभर लोग ही उनके बारे में जानते लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने ना सिर्फ अच्छे एकेडमिक टेक्ट्स लिखे, बल्कि अपने विचारों को भी लोगों तक पहुंचाया।
दुःखद है कि हमारा एकेडेमिया आज भी पिछड़ों को लेकर एक्सक्लुसिव है। जाति और भाषा उनके लिए बड़े बैरियर हैं। दलित और आदिवासी एकेडमिशन्स पहले ही नाम मात्र हैं और उनमें भी कितनों को बुद्धिजीवी की कैटेगरी में रखा जाता है, यह चर्चा का विषय है।
हाल ही में जेएनयू में दाखिला लेने वाले एमए फर्स्ट इयर के स्टूडेंट जेएनयू को इसलिए छोड़ना चाहते हैं, क्योंकि वह कक्षा में होने वाले डिस्कशन से कनेक्ट नहीं कर पाते। उनके लिए वह क्लास सिर्फ इंग्लिश स्पीकिंग इलिट्स की क्लास है, बाकी सब मूकदर्शक हैं। एकेडेमिया की डिमांड होती है कि आप साधारण बातों को कठिन भाषा में लिखना सीख जाएं।
यही इंटेलेक्चुअल इलिटिज़्म है, जो ज्ञान को मोनोपोलाइज़ कर उसे नीचे तक नहीं पहुंचने देता है। बड़े बदलाव हमेशा जनता के बीच से आते हैं और अगर प्रोग्ररेसिव बातें नीचे तक पहुंचेगी ही नहीं, तो बदलाव की संभावना अपने आप कम होती जाएगी। ऐसे में नॉलेज में चाहे जितनी भी रिवोल्यूशनरी पोटेन्शियल क्यों ना हो? अंतत: वह कुछ अपर कास्ट, अर्बन और इंग्लिश स्पीकिंग इलिट्स के बुक शेल्फ की शोभा ही बढ़ाएगी।