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क्‍या तीन तलाक पर बना कानून मुस्लिम महिलाओं को इंसाफ देगा?

तीन तलाक

तीन तलाक

तीन तलाक पर कानून अंतत: बन ही गया। सन् 2017 से कानून बनाने की चली कशमकश 31 जुलाई 2019 को राष्‍ट्रपति के दस्‍तखत के बाद खत्‍म हो गई है। यह कानून शुरू से ही विवादों में रहा है, जिसके साथ यह सवाल भी लगातार उठते रहे हैं कि क्‍या यह कानून वाकई मुस्लिम महिलाओं को इंसाफ दिलाएगा। 

इस कानून की अहम बातों को यूं समझा जा सकता है- 

इस कानून को हम मौजूदा केन्‍द्र सरकार की बड़ी कामयाबी मान सकते हैं। केन्‍द्र सरकार के लिए यह कितना बड़ा मुद्दा था, इस बात से भी समझा जा सकता है कि इसे पिछले डेढ़ साल में तीन बार लोकसभा में पेश किया गया और अध्‍यादेश लाने पड़े, तब जाकर यह कानून की शक्‍ल ले पाया है।

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

सरकार की ओर से बार-बार यह कहा गया कि यह जेंडर इंसाफ और बराबरी के लिए बनने वाला कानून है मगर कानून बनाने का यह तरीका, महिलाओं की ज़िदगी से जुड़े हाल में जितने भी कानून बने हैं, उनमें सबसे अलग रहा। अगर हम इस नए कानून पर नज़र डालें. तो ये बातें अहम तौर पर उभरती हैं-  

धारा 498 ‘ए’ को समझना ज़रूरी है

यह भी सही है कि तलाक का यह रूप मर्दों के हाथ में महिलाओं को काबू में रखने या उनसे निजात पाने का मज़बूत हथियार रहा है मगर अब यह बेअसर है, फिर भी अगर कोई मर्द इसके आधार पर अड़ा रहता है, तो कई कानून पहले से भी हैं। इनके ज़रिये महिलाएं, ऐसे पति से कानूनी लड़ाई लड़ सकती हैं।

भारतीय दंड संहित की धारा 498 ए ऐसा ही एक कानून है। घरेलू हिंसा से महिलाओं को बचाने वाला भी एक कानून है। नया कानून, पहले के इन कानूनों से आगे बढ़ा हुआ नहीं दिखता है। (यह भी दिलचस्‍प है कि एक ओर मुस्लिम महिलाओं के जेंडर इंसाफ की बात हो रही हो और दूसरी ओर पहले से मौजूद 498 ए जैसे कानून को लगातार कमजोर करने की कोशि‍श भी चल रही है। यह कानून तो सभी महिलाओं के लिए है।)

फोटो साभार: Getty Images

यही नहीं, महिला आंदोलन और मुस्लिम महिलाओं के साथ काम करने वाला बड़ा समूह मानता है कि यह कानून दरअसल मुसलमान मर्दों को जेल में डालने के मकसद से बनाया गया है। अगर ऐसा ना होता तो जिस पति से गुजारे की उम्‍मीद की जा रही हो, उसे तुरंत जेल में डालने की बात ना होती।

कई मुस्लिम महिला कार्यकर्ता मानती हैं कि हम जेंडर बराबरी और इंसाफ की बात करते हैं। हम इसके लिए लड़ते हैं मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम मर्दों के खि‍लाफ हैं। उन्‍हें जेल में डालकर हम खुश होना चाहते हैं। वे तो सवाल करती हैं कि जेल में जाने के बाद शादी का क्‍या होगा? क्‍या वह बचेगी?

स्त्रियों को बिना तलाक ही छोड़े जाने की संभावनाएं

हमारा अभी का जो सामाजिक और पारिवारिक निज़ाम है, उसमें ज़्यादातर शादीशुदा स्त्रियां बेढब शादी को भी चलाए रखना चाहती है। इसलिए वे अक्सर तकलीफ भी बर्दाश्‍त करती हैं। (यह एक अलग बहस का मुद्दा है कि वे ऐसा क्‍यों करती हैं? वे क्‍यों नहीं ऐसी शादियों से निकल आती हैं?) मुसलमानों में रिश्‍तेदारों से भी शादियां होती हैं। यह कानून महिलाओं की इन हालात को नज़रअंदाज़ करता है। इसलिए वह जो उपाय सुझाता है, वह महिला को इंसाफ दिला पाएगा या नहीं, इस पर शक है।

अगर इस तलाक से शादी खत्म नहीं है, तो ज़ाहिर है, जेल जाने से क्‍या शादी बची रहेगी? इस्‍लाम में शादी दो लोगों के बीच का करार है। साथ ही, वह सड़ांध से भरी शादी को चलाने के हक में भी नहीं है। इसलिए इस करार से बाहर निकलने का रास्‍ता भी है। इसे ही तलाक माना गया है।

यह रास्‍ता स्‍त्री-पुरुष दोनों के पास है। सबसे बड़ा डर है कि अब कहीं स्त्रियों को बिना तलाक छोड़ दिए जाने की घटनाएं ना बढ़ जाएं। वे पत्‍नी रहेंगी भी और नहीं भी। उनके हकों की हिफाज़त फिर कैसे होगी? मर्द तो फिर बच जाएगा। मुमकिन है, वह दूसरी शादी भी कर ले।

वैसे, तीन तलाक कानून से कौन लोग बेहद खुश हैं? अगर सोशल मीडिया, समाज का अक्स है, तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। ऐसे संकेत मिलते हैं कि इसे जेंडर इंसाफ से कम मुसलमानों पर नियंत्रण करने के तरीके के तौर पर ज़्यादा देखा जा रहा है।

कुछ लोग इसकी तुलना दहेज उत्‍पीड़न/ दहेज हत्‍या या 498 ए में सज़ा प्रावधानों से कर रहे हैं। इनका तर्क है कि जब इन कानूनों में सज़ा है, तो इस कानून में सज़ा पर ऐतराज क्‍यों? ऐसे तर्क देने वालों को लगता है कि ये सब कानून सिर्फ एक धर्म के मानने वालों पर लागू है।

ये सब लगातार हो रहे उत्‍पीड़न/हिंसा/हत्‍या जैसे आपराधिक मामलों से जुड़े कानून हैं। या रहे, ये कानून सिविल नहीं हैं। ऐसे सभी कानून सभी धर्मों के लोगों पर एक समान लागू है। ऐसा नहीं है कि दहेज उत्‍पीड़न या दहेज हत्‍या के कानून से मुसलमान बरी हैं। इसलिए अगर समाज के किसी हिस्‍से में ऐसी सोच बस गई है, तो यह बड़ी गलतफहमी जितनी जल्‍दी दूर हो जाए अच्‍छा है।

फोटो साभार: Twitter

इस बहस में कई बार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) भी शामिल हो जा रही है। इसे घालमेल करने की कोशिश ठीक नहीं है। यूसीसी की बहस सिर्फ मुसलमानों की बहस नहीं है। यह सभी धर्मों के लोगों पर असर डालेगा। सवाल तो यह है कि क्‍या किसी के पास इसका कोई खाका है?

इस पूरे विमर्श का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि इन लाइनों को लिखने वाला या महिला संगठनों का बड़ा तबका कहीं से भी इक्‍ट्ठी तीन तलाक देने वालों की हिमायत कर रहा है। अगर कोई मर्द मानता नहीं है और महिला की गरिमा के खिलाफ कोई कदम उठाता है, तो उससे किसी तरह के लगाव का कोई सवाल नहीं है। उसे बचाने की बात तो दूर, हम हमेशा ऐसी महिलाओं के साथ थे, हैं और रहेंगे जो ऐसे मर्दों के मजालिम की शिकार हैं।

महिलाओं, महिला संगठनों और कानूनविदों से सरकार को सलाह लेनी चाहिए थी

हां, इतना तय है कि सरकार ने एक ऐतिहासिक मौका गंवाया है। अगर सरकार वाकई मुस्लिम महिलाओं को संविधान के तहत जेंडर इंसाफ और बराबरी का हक दिलाना चाहती थी, तो वह इसे महिलाओं, महिला संगठनों और कानूनविदों की सलाह-मश्‍व‍िरा और संसद की समिति के ज़रिये व्‍यापक बहस से और बेहतर बना सकती थी। 

अंत में, हम माने या ना माने लेकिन मुसलमानों के बड़े तबके पर इस वक्‍त खौफ का साया है। मुसमलानों के साथ लगातार इधर-उधर हिंसा की घटनाएं हो रही हैं। लोग मारे भी जा रहे हैं। कहीं एक कोने में हुई ऐसी घटनाओं से दूर-दराज तक की ज़्यादातर मुस्लिम महिलाएं बेचैन हैं। वे माँ, बहन, बेटी, पत्‍नी, दोस्‍त और पड़ोसी के रूप में हमारे आसपास हैं।

डर के साये के सबसे गहरे असर में यही महिलाएं हैं। अगर बतौर देश और समाज हम वाकई में मुस्लिम महिलाओं के लिए फिक्रमंद हैं, तो सबसे पहले उन्‍हें इस खौफ से आज़ाद करना होगा। खौफ से आज़ाद इंसान ही अपने हकों का बेखौफ इस्‍तेमाल कर पाएगा। तब ही वह अपने अधि‍कारों के लिए लड़ पाएगी और उसकी हिफाज़त कर पाएगी।

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