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#क्या_नहीं_कैसे••

#क्या_नहीं_कैसे••

हमारे जन्म के साथ ही संसार भर के वे सारे लोग जो हमसे पहले इस दुनिया में जन्म ले चुके होते हैं, हमें सिखाते हैं कि हमें क्या बोलना चाहिए, हमें क्या पढ़ना चाहिए, हमें क्या लिखना चाहिए।

हम ये सीख भी लेते हैं- और क्या बोलना, क्या पढ़ना, क्या लिखना हमारे लिए कल्याणकारी है इसे जैसा का तैसा दोहराकर स्वयं के शिक्षित, संस्कारी, सदाचारी, सहृदय होने का प्रमाण भी देते हैं किंतु इसके बाद भी हमें संसार से अपेक्षित आदर, प्रेम, सदशयता प्राप्त नहीं होती। परिणामस्वरूप हमारा विश्वास कल्याणकारी ‘क्या’ से उठ जाता है तब हम खिन्नता से भरकर वह बोलने, लिखने, पढ़ने लगते हैं जिसकी वर्जना होती है।

अंततः हम सदुद्देशय से भरे होने के बाद भी असंतुष्ट और दुखी जीवन को प्राप्त होते हैं।

इसका कारण मात्र इतना है की ‘क्या’ को सिद्ध करने के प्रयास में हम ‘कैसे’ की तरफ़ ध्यान नहीं देते।

स्मरण रखने योग्य यह है कि जितना महत्व ‘क्या’ होता है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण ‘कैसे’ होता है।

इसलिए क्या बोलना है सिखने के साथ हमें यह भी सीखना अत्यंत आवश्यक होता है कि ‘कैसे बोलना है’ ?

क्या लिखना है से कहीं अधिक प्रभावशाली होता है कैसे लिखना ?

क्या पढ़ना है से अधिक कारगर होता कैसे पढ़ना ?

‘क्या’ के साथ ‘कैसे’ को साधते ही हमारा जीवन संतोष और सुख का आगार हो जाता है।

“मैं कड़वा बोलता हूँ तो मेरी शक्कर नहीं बिकती।

वो मीठा बोलकर कच्ची निबोली बेच देता है॥”

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